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नज़्म
सब्र का फल लोग कहते हैं मिलेगा एक दिन
आह कब तक इंतिज़ार-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा करूँ
जगदीश सहाय सक्सेना
नज़्म
जो वादा-ए-फ़र्दा पर अब टल नहीं सकते हैं
मुमकिन है कि कुछ अर्सा इस जश्न पे टल जाएँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
रोज़ मुझ को वा'दा-ए-फ़र्दा पे जो टरख़ाए है
मैं तिरी चालों को समझूँ हूँ मुझे बहलाए है
ज़रीफ़ जबलपूरी
नज़्म
इफ़्फ़त ज़ेबा काकोरवी
नज़्म
फ़र्दा महज़ फ़ुसूँ का पर्दा, हम तो आज के बंदे हैं
हिज्र ओ वस्ल, वफ़ा और धोका सब कुछ आज पे रक्खा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी
बला-ए-फ़िक्र-ए-फ़र्दा हम से कोसों दूर होती थी
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
हर भँवर में और हर तूफ़ान में साहिल है तू
सीना-ए-इमरोज़-ओ-फ़र्दा का धड़कता दिल है तू
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
तुलू-ए-सुब्ह-ए-फ़र्दा की मुनादी भी ज़रा सुन लो
ये एटम जब फटेगा तो क़यामत चार-सू होगी
कैलाश माहिर
नज़्म
जिस के होने से शुऊ'र-ए-दोश-ओ-फ़र्दा था हमें
जिस के होने से यक़ीं था अपने होने का हमें
ग़ुलाम हुसैन साजिद
नज़्म
मुंतज़िर जब एक फ़र्दा के हैं सब इमरोज़-ओ-दोष
ज़िंदगी को एहतिमाम-ए-फ़िक्र-ए-फ़र्दा क्यों न हो