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नज़्म
अव्वल वफ़ात-ए-बर्क़ का उस को हुआ मलाल
फिर चल दिया जहान से ये मुंशी-बा-कमाल
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
नज़्म
नसीम अंसारी
नज़्म
बाहर ले कर जाती थीं
अब्बा की वफ़ात के बा'द घर के अंदर मैं ही तो वाहिद मर्द था
फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो
नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ