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नज़्म
इक़बाल सुहैल
नज़्म
वो एक लम्हा हज़ार सदियों के बंधनों से निकल कर आया
वो एक लम्हा जो दस्तरस के वसीअ हल्क़ों से दूर रह कर
आदिल मंसूरी
नज़्म
नहीं, मैं नहीं देख सकता वो ग़ैर-मनक़ूता नुक़्ता
जो कश्फ़ से अरीज़ है और मुराक़बे से वसीअ!
अहमद जावेद
नज़्म
जो सुब्ह ने बंसरी बजाए हवाएँ करवट बदल रही हैं
वसीअ' दरिया की हल्की मौजें तड़प रही हैं उछल रही हैं