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नज़्म
क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर
शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
जंगल की शादाबी जैसा पहना था कोई जल्वा उस ने
पैराहन इक नई वज़्अ का खुले समुंदर जैसा उस ने
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
उस के सीने में क़ुतुब-शाह का किरदार भी है
वज़्अ'-दारी भी है इख़्लास भी है प्यार भी है
अमीर अहमद ख़ुसरव
नज़्म
ज़माना कुछ कहे लेकिन ये इक रौशन हक़ीक़त है
'रज़ी' अपनी वज़ा-दारी जो पहले थी सो अब भी है
रज़ी बदायुनी
नज़्म
इश्क़ बेताब मगर हुस्न को पाबंदी-ए-वज़्अ
मेरे वारफ़्ता तक़ाज़े थे मगर तुम मजबूर