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नज़्म
ग़म से भागें भी तो फ़र्याद-ओ-शिकायात की ज़ंजीर कहाँ कटती है
वक़्त वो दौलत-ए-नायाब है आता नहीं हाथ
वहीद अख़्तर
नज़्म
मुझ को हासिल है वो मेआर-ए-शब-ओ-रोज़ कि जो
उस के महबूब के हातों में नहीं ख़्वाब में है
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
देखता क्यूँ नहीं तेरे बाबा के बालों में खुजली है और उँगलियाँ झड़ चुकी हैं
हिसाब-ए-शब-ओ-रोज़ करते हुए
जावेद अनवर
नज़्म
कि इक जुनूँ सा है मुझ पे तारी
मनाज़िर-ए-कोह-ओ-कुंज जश्न-ए-शब-ए-मुनव्वर मना रहे हैं