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नज़्म
और ये सफ़्फ़ाक मसीहा मिरे क़ब्ज़े में नहीं
इस जहाँ के किसी ज़ी-रूह के क़ब्ज़े में नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक ख़्वाहिश बे-तरह करती है मुझ को बे-क़रार
काश तुझ को देख सकती आँख हर ज़ी रूह की
बासिर सुल्तान काज़मी
नज़्म
मेरी उँगलियों के लम्स की चाहत में जलते हैं
किसी ज़ी-रूह के क़दमों की आहट को तरसती ये चटानें
सीमा शकेब
नज़्म
हर इक ज़ी-रूह की नज़रों का मरकज़, मौजिब-ए-हैरत
चमकते नूरियों की शौकत-ए-बेताब का शाहिद