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बेगानगी

MORE BYमुमताज़ मुफ़्ती

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे बच्चे की कहानी जिसे घर में कोई प्यार नहीं करता है। उससे बड़ी एक बहन और एक छोटा भाई है। हर कोई छोटे भाई से मोहब्बत करता है। उसकी हर फ़रमाइश पूरी की जाती है मगर उससे कोई प्यार नहीं करता है। जब से वह पैदा हुआ तभी से उसकी बद-सूरती को लेकर उससे नफ़रत की गई है और उसी नफ़रत की वजह से वह अपने ही घर में ख़ुद को बेगाना महसूस करने लगता है।

    रशीद ने उठकर आँखें खोलीं। दो एक अंगड़ाइयाँ लीं और खोए हुए अंदाज़ में सीढ़ियों के क़रीब जा बैठा। उसने कोठे पर एक सरसरी निगाह डाली। तमाम चारपाइयाँ ख़ाली पड़ी थीं। सब लोग नीचे जा चुके थे। जहां तक निगाह काम करती थी, सामने ऊंचे ऊंचे मकानों का अंबार दिखाई देता था। उसके लिए दुनिया एक बेमानी फैलाओ थी। अच्छा अब तो सुबह हो चुकी है। उसने एक और अंगड़ाई लेते हुए महसूस किया। जैसे वो ख़त्म होने वाले दिन की कोफ़्त का बोझ महसूस कर रहा हो। उसके लिए दिन, एक मुसलसल कोफ़्त थी। आज छुट्टी का दिन था। उसके नज़दीक छुट्टी से बढ़कर कोई अज़ाब था। वो महसूस करता था कि घर के तमाम लोग उसके वजूद से ही मुनकिर थे। इस लिए उन्हें अपने वजूद और अज़मत का एहसास दिलाने के लिए उस पर लाज़िम हो जाता कि वो आपा के चुटकी ले या महमूद का मुँह चिढ़ाए या महमूद के पालतू तोते की दुम खींच ले और नहीं तो चीज़ें इधर उधर कर दे।

    रशीद ने एक और अंगड़ाई ली। अब मैं क्या करूँ? वो मुबहम तौर पर महसूस कर रहा था। तमाम लोग घर में उसे कोई ऐसा कोना तक नज़र नहीं आता था जिसे वो अपना सकता या जहां उसकी मौजूदगी से बेगानगी बरसती। उसने उकताए हुए अंदाज़ से क़मीज़ के दामन से अपनी आँखें पोंछीं। शाने झटके और दीवार से सहारा लगा लिया। ज़िंदगी उसके लिए नाक़ाबिल-ए-फ़हम बेगानगी से भरी हुई थी। वो सिर्फ़ ये समझ चुका था कि दुनिया में यक़ीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि क्या से क्या हो जाएगा। वो ये नहीं समझ सकता था कि वो क्यों रशीद है और महमूद क्यों महमूद है और उसने महमूद का सा बरताव कर के आज़मा देखा था मगर उस के बावजूद घर वाले उस पर रशीदियत ठूँस रहे थे।

    उसकी निगाहें उकताए हुए अंदाज़ में यहां से वहां और वहां से यहां घूम रही थीं। सामने महमूद का तोता पिंजरे में फड़फड़ा रहा था। उसके होंटों पर हक़ारत की एक लहर सी दौड़ गई। महमूद का तोता, महमूद का तोता, उस के दिल का कोई हिस्सा कह रहा था। जैसे उसे छेड़ रहा था। फिर उसकी नज़र सामने खिड़की पर जा पड़ी जो गली में खुलती थी। उसके होंटों पर मुस्कुराहट गई। सुबह-शाम की मुसलसल कोफ़्त में सिर्फ़ वो खिड़की ही ख़ुशी की एक उम्मीद गाह थी मगर वो बूढ़ा फ़क़ीर जिस पर रशीद इस खिड़की से पत्थर फेंका करता था, दो रोज़ से नहीं गुज़रा था। दो रोज़ उसने बूढ़े फ़क़ीर के इंतिज़ार में गुज़ारे थे। उसने एक झुरझुरी ली और लाशऊरी तौर पर उसने एक पत्थर उठा कर ज़ोर से किसी तरफ़ फेंक दिया।

    रशीद अभी छः माह का हुआ था और उसे ये मालूम था कि वो एक बड़ी बहन का भाई है और माँ-बाप ने उसे सिसक सिसक कर पाया है। हत्ता कि वो ये भी नहीं जानता था कि वो बज़ात-ए-ख़ुद क्या है। आया वो बाप का नाम क़ायम करने या माँ का सुहाग मुस्तहकम करने के लिए है या माँ-बाप के किसी ख़ास मक़सद के लिए है या वैसे ही है। वो सिर्फ़ ये जानता था कि अव्वल तो वो है ज़रूर और दूसरे वो कोई बड़ी अहम हस्ती है और वो माँ-बाप की आँखों का नूर है। गो हस्ती और नूर के मुताल्लिक़ उसके एहसासात वाज़िह थे। वो जानता था कि बार-बार 'अगो' कह कर वो अपनी माँ को बुला सकता है। यानी अपनी कोई ख़्वाहिश पूरी करने के लिए उसे सिर्फ़ होंट हिलाने की ज़रूरत थी। जब छः साल की मुसलसल मिन्नतों के बाद बेटा पैदा हुआ तो माँ-बाप के लिए उसे नजरअंदाज़ करना ज़रा मुश्किल हो जाता है।

    जब रशीद को पूरी तरह अपनी क़ुव्वत का एहसास हो गया तो उसे दूध पीते, सोने और बाक़ी वक़्त निकम्मे पड़े रहने या फ़ुज़ूल अपना अँगूठा तलाश करने या दूर पड़ी हुई चीज़ों को पकड़ने की कोशिश में चंदाँ दिलचस्पी रही। अलबत्ता लोगों को नचाना ज़रूर बाइस-ए-फ़र्हत था। इस दिलचस्प शुग़्ल में उसने दो साल बसर किए। इस अर्से मैं हज़ारों इन्किशाफ़ात के इलावा उस पर ये भी आश्कारा हुआ कि वो बदसूरत है। इब्तिदा में तो उसे बदसूरती की तफ़सीलात के मुताल्लिक़ कोई वाक़फ़ियत हुई। फिर रफ़्ता-रफ़्ता उसे मालूम होता गया कि उसकी नाक चपटी है। पेशानी छोटी और होंट मोटे हैं। मगर उसके बावजूद उसे ये मालूम हुआ कि बदसूरती ऐब समझी जाती है या वस्फ़। वो सिर्फ़ ये जान सका कि माँ-बाप उसे बदसूरत कह कर या उसके नाक, होंट और पेशानी के मुताल्लिक़ कह कर फ़र्त इंबिसात से उसे गोद में उठा कर प्यार करते थे। इस लिहाज़ से तो बदसूरती बहुत प्यारी ख़ुसूसियत थी।

    उस ज़माने में दुनिया यूं बेमानी नहीं थी। बल्कि मख़सूस उसूलों पर चलती थी। उसका हँसना, रोना, रूठना यक़ीनी नताइज पैदा कर सकता था। वो दो साल उसकी ज़िंदगी में एक गुज़शता मगर क़ाबिल-ए-हुसूल रंगीनी से सरशार थे। उन दिनों ज़िंदगी इस क़दर पेचीदा और लोग इस क़दर ज़िद्दी और अंधे थे। उन दिनों अपने वजूद का एहसास दिलाने के लिए उसे किसी दकी़क़ अमल की ज़रूरत थी। मगर जल्द ही वो दिन गया जब वो बात रही। उस रोज़ वो अपनी बहन की गोद में बैठ कर हस्ब-ए-मामूल क़वाइद करवा रहा था कि उनकी मुलाज़िमा रज़ीया दौड़ी दौड़ी आई और कहने लगी, बीबी तुम्हें मुबारक हो। ख़ुदा ने तुम्हारे घर एक और नन्हा भाई दिया है। सलीमा ने ये सुना तो रशीद को यूं पटक कर भाग गई जिस तरह वो ख़ुद नए खिलौने की आमद पर पुराने खिलौने फेंक दिया करता था। ये पहला दिन था जब रशीद की यूं तहक़ीर की गई। रशीद की तहक़ीर... सलीमा की इतनी जुरात। पहले तो वो हैरान चुप-चाप ज़मीन पर बैठा रहा। फिर इन सब बातों को सोच कर उसने यकलख़्त रोना शुरू कर दिया। उसकी दानिस्त में रोने से बढ़कर कोई क़ुव्वत थी मगर ख़ुदा जाने उस रोज़ उसके रोने में क्यों असर था। हत्ता कि आँसूओं वाला रोना भी काम आया। फिर उसे ताज़ा-दम हो कर रोना पड़ा।

    आख़िर रज़ीया आई। उसने रशीद को झिंझोड़ कर उठा लिया। अव़्वल तो रज़ीया उसे मनाने को आई। रज़ीया एक अदना मुलाज़िमा... किस क़दर बेइज़्ज़ती की बात थी और फिर वो भी उसे झिंझोड़ कर उठाए। उस रोज़ उसके ख़याल में दुनिया के उसूल ही बदल रहे थे।

    माँ के सामने जा कर उसने दो तीन चीख़ों से आपा, रज़ीया और दुनियाभर के ख़िलाफ़ शिकायत की मगर माँ उसे गोद में उठाने और जुमला लोगों को बुरा-भला कहने और घूरने की बजाये नहीफ़ सी आवाज़ में कहने लगी, ये क्या सर खा रहा है... इसे यहां से ले जा और जो नेअमत ख़ाने में मिठाई पड़ी है वो इसे दे दे। ये थी उसकी माँ। उसकी अपनी माँ जिसकी आँखों को उसने नूर बख़्शा था। वो माँ... अगर उसकी क़ुव्वत-ए-इज़हार अपने बाप की तरह वसीअ होती तो वो ये कह उठता, बस चौदहवीं सदी गई है जबकि माँ को अपने सगे बेटे से मुहब्बत नहीं रही। माँ का ख़ून भी सफ़ेद हो गया...

    रज़ीया उसे बावर्चीख़ाने में तन-ए-तन्हा छोड़ जाये... अपने हाथ से मिठाई खाने के लिए... माँ से दूर माँ की वारी सदक़े बग़ैर... सूखी मिठाई और माँ उस गोश्त के लोथड़े के पास लेटी है। कैसी बेहूदा शक्ल थी। सर मुँह, यक़ीनी तौर पर चौदहवीं सदी आचुकी है जिसके मुताल्लिक़ अक्सर अब्बा ज़िक्र किया करते थे।

    फिर उसे ये मालूम हुआ कि माँ बीमार है और उसने अख़्ज़ किया कि बीमार उसे कहते हैं जिसके इर्द-गिर्द भीड़ लगी रहती है। जिसके लिए मिठाईयां मँगवाई जाएं और जिसकी उतनी ही देख-भाल हो, जितनी किसी माने में उसकी अपनी हुआ करती थी। यानी बीमारी में भी वही तासीर थी जो किसी ज़माने में उसके रोने में थी और अब दिन-ब-दिन ज़ाए हो रही थी। बीमार बन कर उसकी हुकूमत शायद लौट आए मगर उसे ये मालूम हो सका कि किस तरह बीमार पड़ जाये। उसने दो एक मर्तबा अपनी बीमार माँ को इस उम्मीद पर लिपट कर चूमा कि शायद इस तरह माँ की बीमारी उसे लग जाये मगर इसके बावजूद घर वाले उसे बीमार समझने से मुनकिर रहे। बहरहाल उन दिनों अपनी मिटी हुई अनानियत हासिल करने के लिए रोने, रूठने और ज़िद करने के इलावा उसके पास कुछ भी था और उनके इस्तिमाल में उसने बड़ी फ़राख़दिली से काम लिया। मगर उनके इस्तिमाल से मज़ीद मुश्किलात पैदा हो रही थीं।

    माना कि माँ के दूध के इलावा मिठाई और गोश्त के टुकड़े भी खाने का आदी था मगर माँ के दूध से बिल्कुल महरूम कर देना। खेलने को भी देना किस क़दर कमीनापन था। इस से पहले तो उसे बे रोक-टोक खेलने की इजाज़त थी।

    पहले-पहल तो उसे ये आस रही कि सेहत होने पर माँ वही पहली सी माँ हो जाएगी। मगर माँ ने बिस्तर छोड़ दिया। चलना फिरना शुरू कर दिया। मगर उसे वो मुहब्बत नसीब हुई। प्यार तो वो करती थी मगर वो प्यार मुक़ाबलतन ज़ाहिरी और फीका महसूस होता। माँ का ध्यान तो हर वक़्त नन्हे की तरफ़ लगा रहता था। उसी को साथ सुलाती और रशीद जब रात को जागता तो वो देखता कि वो तन-ए-तन्हा खटोले पर पड़ा है। वो बेचारा उस अंधेर पर रो पड़ता और चाहता कि माँ उसे पास बुलाए मगर माँ किस बेगानगी से हाथ बढ़ा कर उसे थपक देती, जिस तरह दूर से कुत्ते को रोटी का टुकड़ा फेंकते हैं।

    आख़िर रशीद लोगों की अदम तवज्जही से तंग आकर एह्तिजाजी हरकात को जायज़ क़रार देने पर मजबूर हो गया। उसकी हरकात से मुतास्सिर तो क्या, माँ-बाप ने उन्हें समझने तक की तकलीफ़ गवारा की। शायद वो समझते थे कि दर्द-ए-दिल का इज़हार दो लफ़्ज़ों की मदद के बग़ैर नहीं हो सकता। वो समझते रहे कि रशीद को बिस्तर पर पेशाब करने की क़बीह आदत पड़ गई है और वो रात को बिलबिला उठता है और उसे इस्हाल की शिकायत है। वो नहीं जानते थे कि जो गालियों, बद-दुआओं या लफ़्ज़ों से अपने ग़ुस्से और दुनिया के बेवफ़ाई का इज़हार नहीं कर सकते वो दर्द-ए-दिल का इज़हार मसाने और मेदे से कर सकते हैं।

    माँ से मायूस हो कर रशीद ने अब्बा से अज़ सर-ए-नौ राबिता पैदा करने की कोशिश की मगर वो तो इस मुआमले में बिल्कुल मजबूर थे क्योंकि वो हर वक़्त सुनते थे कि महमूद की शक्ल उन पर थी और बदसूरती तो ख़ैर रशीद की शक्ल बिल्कुल उन पर थी। बाप के लिए इस अहम तफ़सील को नजरअंदाज़ करना किस क़दर मुश्किल हो जाता है। वो किस तरह महमूद से ग़द्दारी कर सकते थे।

    आख़िर आहिस्ता-आहिस्ता रशीद पर इन्किशाफ़ हो गया कि बिल्ली की दूम खींचने और मुर्ग़ी के पर नोचने में भी राहत होती है। गो ये राहत माँ-बाप का नूर-ए-नज़र और घर का चिराग़ होने के मुक़ाबले में हेच थी, मगर राहत ज़रूर थी। माँ-बाप तो उसे गोश्त के लोथड़े में, जिसे वो महमूद कह कर पुकारते थे, अपना वजूद खो चुके थे। सुबह से शाम तक महमूद का ज़िक्र। महमूद की आँखों, पेशानी और होंटों के क़िस्से, महमूद की सेहत, मुस्कुराहट और खेल का रोना और महमूद भी वो जिसे रोने तक की तमीज़ थी। कैसी बेसुरी अलापता था। रशीद ने कई दफ़ा महमूद का मुँह तक नोचना गवारा किया कि माँ का क़ुर्ब हासिल हो या उस का मुँह चूमने से वो ख़ुद महमूद बन जाये। मगर वालदैन भी पत्थर के बने होते हैं। उन पर इन बातों का असर ही नहीं होता।

    एक रोज़ जब रशीद अब्बा की छड़ी का घोड़ा बना कर सवारी कर रहा था और उनके काग़ज़ात को पांव तले रौंद रहा था तो उन्होंने बहुत डाँट डपट की। जब रशीद ने जवाब में चीख़ों से दर्द-ए-दिल का इज़हार किया तो उन्होंने एक दो थप्पड़ जड़ दिए और जलाल में कहने लगे, बहुत बदमाश हुआ जा रहा है। कभी आपा को मार, कभी माँ से लड़, घर में कुहराम मचा रखा है... पाजी। इस सरज़निश के दौरान में माँ महमूद का पोतड़ा ठीक करने में शिद्दत से मसरूफ़ रही। गो उधर से प्यार की कोई उम्मीद नज़र आती। फिर भी उसे मजबूरन फ़र्याद लेकर माँ के पास जाना ही पड़ा लेकिन माँ ने भी हर वक़्त सर खपाता रहता है। कह कर एक थप्पड़ मार दिया। इतना ज़रूर हुआ कि माँ ने, यहां मर। कह कर झिंझोड़ कर उसे उठा लिया और अपने पास लिटा लिया। यही तो उसकी ख़्वाहिश थी कि वहां मरे। किसी से थप्पड़ खा कर उसे वहां मरना नसीब तो हुआ। उस की मालूमात में ये एक इज़ाफ़ा था।

    अब रशीद तीसरी जमात में था। चूँकि पिछले साल वो फ़ेल हो गया था। रशीद के वालिद को यक़ीन था कि रशीद फ़ित्री तौर पर कुंद ज़ह्न है बल्कि उनका ख़याल था कि उसके दिमाग़ में अक़्ल-ए-सलीम का ख़ाना ख़ाली है। इसका सबसे बड़ा सबूत ये था कि तीसरी जमात में फ़ेल हो गया था। घर में वो अपने इस ख़याल के मुताल्लिक़ अक्सर बात करने के आदी थे या वो महमूद की ऐसे अंदाज़ में तारीफ़ करते जिससे रशीद की ना अहलियत अख़्ज़ हो।

    महमूद सवालों में ताक़ है। अगर रशीद का ज़ह्न भी अच्छा होता तो कैसी अच्छी बात थी। मगर ये रशीद का क़सूर नहीं... उसकी याददाश्त ठीक नहीं... बेचारे को बातें याद नहीं रहतीं... और... महमूद की माँ... तुमने सुना.. इधर आना... बाहर महमूद का उस्ताद आया हुआ था। कहता था, महमूद फ़रफ़र सबक़ सुना देता है।

    किसी वक़्त जब दोनों बच्चों के मुस्तक़बिल का ज़िक्र छिड़ जाता तो वो अक्सर कहा करते, महमूद... महमूद ... को तो इंजिनियर बनाएंगे। उसे रुड़की भेजेंगे... रुड़की। रुड़की से बढ़कर हिन्दोस्तान में कोई इंजिनियरिंग कॉलेज नहीं। सुना तुमने महमूद की माँ। रुड़की में बहुत बड़ा कॉलेज है... शानदार।

    इस दौरान में वो महमूद की तरफ़ इस ज़ाविए से देखते जैसे कोई मुसव्विर अपने शाहकार की तरफ़ देखता है। फिर वो चौंक कर एक मौहूम सी आह भर कर रशीद की तरफ़ देखते। रशीद महमूद के तोते को दिक़ कर। तुम्हें तो हर वक़्त शरारत सूझती है। महमूद की माँ... देखा तुमने पिंजरे को बल दे रहा था शैतान। महमूद की माँ... अगर रशीद भी ज़हीन होता तो उसे भी रुड़की भेजते। मगर कोई बात नहीं... कोई बात नहीं... ये तो क़ुदरती बातें हैं। इन्सान को इन बातों में दख़ल नहीं। हर हालत में ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए। क्यों महमूद की माँ... ये तुम क्या धो रही हो। तुम्हें तो हर वक़्त काम ही रहता है। हाँ, रज़ीया कहाँ है। रशीद मैं कहता हूँ, इस पिंजरे को छेड़... सुनता नहीं।

    रशीद बाप की इन पेचीदा बातों के दौरान जमाइयाँ ले-ले कर थक जाता। फिर दफ़्अतन उसका जी चाहता कि ज़ोर से मुर्ग़ी की दुम खींचे या आपा की टांग में चुटकी ले या किसी रेंगती हुई चियूंटी को पांव से मल दे। दुनिया में सबसे ज़्यादा बदनुमा चीज़ उसके नज़दीक महमूद का तोता था।

    रशीद अपनी जगह से उठा। एक और अंगड़ाई ली... अच्छा तो अब क्या करूँ। उसने चारों तरफ़ निगाह डाली मगर कोई चीज़ उसके लिए बाइस-ए-दिलचस्पी थी। सीढ़ियों से नीचे उतर कर उसने देखा कि माँ, आपा और रज़ीया बावर्चीख़ाने में हैं... अब्बा और महमूद की आवाज़ें बैठक में से रही थीं। वो बावर्चीख़ाने में दाख़िल हुआ। अम्मां! उसने उकताए हुए अंदाज़ में कहा, भूक लग रही है।

    अम्मां बोली, गए। आँख खुल गई। हज़ार दफ़ा कहा है कि सुबह उठकर स्कूल का काम किया करो।

    आपा कहने लगी, अम्मां! महमूद ने आज सुबह ही सुबह दस सवाल निकाल लिए हैं...

    रशीद ने इन बातों पर ध्यान दिया। उसने चारों तरफ़ सरसरी निगाह डाली और फिर माँ से लस्सी का गिलास ले लिया।

    माँ ने कहा, मुँह-हाथ तो धो लिया कर। कितना गंदा है।

    मगर रशीद लस्सी पी चुका था। वो अपनी क़मीज़ से मुँह पोंछ कर गिलास संदूक़ पर रखकर बाहर निकल आया। कमरे में सामने चाक़ू पड़ा था। उसने चाक़ू उठा लिया और सरसरी तौर पर मेज़ का कोना खुरचना शुरू कर दिया। बाहर बैठक से अब्बा और किसी मेहमान की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।

    ये भी किया उम्र है... बादशाही उम्र... बचपन से बढ़कर ज़िंदगी में कोई ख़ुशी नहीं।

    रशीद सोच रहा था। बचपन से बढ़कर कोई उम्र नहीं। यही बचपन... आख़िर वो क्या बात है जिसकी बिना पर लोग बचपन को इस क़दर सराहते हैं। क्या बाक़ी, बचपन से भी ज़्यादा उकता देने वाली है। उसने एक झुरझुरी ली... बाहर अब्बा कह रहे थे।

    महमूद... महमूद तो सवालों में बेहद ताक़ है। रुड़की...! रुड़की से बढ़कर कोई दर्सगाह नहीं। सौ रुपया माहवार ख़र्च। नसीब की बातें हैं। वो हमारा रशीद... दो साल इस से बड़ा है। बिल्कुल कुंद ज़ह्न, काम-चोर, निकम्मा... अल्लाह का हर हाल में शुक्र अदा करना चाहिए।

    रशीद उठ बैठा और बराबर वाले कमरे में चला गया। शायद उसके लिए वहां अब्बा की आवाज़ नहीं पहुँचती थी। या इसलिए कि सामने पड़ी हुई चटाई से तिनके खींचने की ख़्वाहिश उसे मजबूर कर रही थी।

    बावर्चीख़ाने में माँ कह रही थी कि रज़ीया वो कहाँ ग़ायब हो गया है। जा देख तो कहीं संदूक़ में से कपड़े निकाल कर फाड़ तो नहीं रहा। मैं भी कितनी भूल करती हूँ। सुबह संदूक़ को खोला था तो उसे बंद नहीं किया। जा देख तो... तौबा में तो इस लड़के से आजिज़ चुकी हूँ।

    रज़ीया की आहट सुनकर रशीद चटाई को छोड़कर परे जा बैठा और एक लोहे के टुकड़े से नाख़ुन कुरेदने में मशग़ूल हो गया। रज़ीया अंदर आई। उसने नफ़रत से खौलती हुई निगाह रशीद पर डाली। मगर रशीद बज़ाहिर अपने काम में हमा-तन मशग़ूल था। फिर जब रज़ीया संदूक़ को ताला लगा रही थी तो जाने रशीद को क्या हुआ। उसने अपने बाज़ू में शदीद अकड़ सी महसूस की। उसका हाथ ग़ैर इरादी तौर पर लपका और उंगलियों ने बढ़कर रज़ीया की कमर में चुटकी ले ली। उसने भागते हुए ऊई सुना और फिर रज़ीया जाने क्या-क्या कह रही थी। मगर वो ग़ुस्ल-ख़ाने पहुंच कर बाल्टी में हाथ डुबो रहा था और गिरते हुए क़तरों को ग़ौर से देख रहा था। क़तरों को गिरते हुए देखकर उसे वो बूढ़ा फ़क़ीर याद गया जिस पर वो चौबारे की खिड़की में से पत्थर फेंका करता था।

    बूढ़े की आजिज़ाना निगाह... बेबसी... और बेचारगी... उस रोज़ जब उसकी आँखों से पानी क़तरों में गिर रहा था किस क़दर मज़हकाख़ेज़ शक्ल थी। उसके होंटों पर मुस्कुराहट गई और वो इत्मिनान से बैठ गया। बाहर माँ ग़ुस्से से पूछ रही थी,

    रज़ीया, महमूद के तोते का पिंजरा यहां धूप में किस ने रखा है?

    रज़ीया बोली, तौबा बीबी। मैंने तो अभी उसे चौबारे में रखा देखा था। मैं तो किसी चीज़ को भी हाथ तक नहीं लगाती। मेरी तो बीबी ये आदत ही नहीं।

    माँ ने हाथ हिला कर कहा, बस ये उसी शैतान की कारस्तानी है। जाने महमूद के तोते से उसे क्या बैर है। और भाई होते हैं, आपस में प्यार और मुहब्बत से रहते हैं। इस लड़के पर तो महमूद को देखकर भूत सवार हो जाता है। रज़ीया...! ले, इसे चौबारे में रख और इसकी कटोरी में पानी डाल दे।

    रशीद दरवाज़े से झांक रहा था। महमूद का तोता उसके दिल का कोई हिस्सा कह रहा था। क्या हुआ, क्या हुआ। महमूद के तोते को? अब्बा अंदर आकर कह रहे थे, हाँ, बस ऐसा कौन काम करेगा। इस लड़के में तो ज़र्रा भर रहम नहीं। क़साई है क़साई। सुबह शाम चीज़ें उलट-पलट करने के इलावा उसे कोई काम नहीं। कल मेरे दफ़्तर के काग़ज़ात की बीड़ियाँ बना रहा था। नामाक़ूल...! ले रज़ीया इसे चौबारे में ले जा। महमूद तो तोते पर जान छिड़कता है। जब तक उसे खिला नाले, ख़ुद नहीं खाता। उसे जानवरों से किस क़द्र मोहब्बत है... महमूद की माँ..! महमूद की माँ!

    क्यों अब्बा जी... महमूद ने अंदर आते हुए कहा।

    कुछ नहीं बेटा। बाप ने जवाब दिया। रशीद ने तुम्हारा तोता धूप में रख दिया था। बेचारे का गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा था। तुम कहाँ चले गए थे?

    इस पर महमूद बोला, नहीं अब्बा जी! मैंने ख़ुद तोते को धूप में रखा था। उसने पानी की कटोरी उलट दी थी और पानी में तरबतर हो रहा था। मैंने उसे सुखाने के लिए धूप में रखा था। फिर उसे उठाना मुझे याद नहीं रहा।

    महमूद की माँ... महमूद की माँ... बाप कह रहा था, तुमने सुना? महमूद ने ख़ुद तोते को धूप में रखा था। महमूद की ये बात अच्छी आदत है। देखो सच सच कह देने से बिल्लकुल नहीं घबराता। लो, अगर रशीद तोते को धूप में रखता तो चाहे कुछ ही हो जाता, वो कभी इक़रार करता... रज़ीया... रज़ीया कहाँ है रशीद? रज़ीया!

    अभी यहीं था। माँ ने कहा, जाने कहाँ चला गया है? गली में होगा। मैं तो इस लड़के से तंग चुकी हूँ।

    ख़ैर कोई बात नहीं। तुम तो घबरा जाती हो। यहीं कहीं होगा। बाप ने उसे तसल्ली दी।

    रशीद दबे पाँव ग़ुस्लख़ाने से निकल कर चौबारे में चला गया। बूढ़े फ़क़ीर के आने का वक़्त हो रहा था मगर वो बूढ़ा दो दिन से नहीं आया था।

    रशीद के बदन में ना उमीदी से सुस्ती सी महसूस हो रही थी इस वाहिद इशरत से वो गुज़शता दो दिनों से महरूम था। उसने छः सात मोटे मोटे पत्थर चुन लिये और खिड़की में बैठ गया। सामने मकानों का ढेर नज़र रहा था। गली में ख़ाक उड़ रही थी। धूप से आँखें चुंधियाए जाती थीं। मकानों से परे रेत के टीले खड़े थे। कहीं कहीं बगूले नाच रहे थे। वो इन बगूलों को हसरत भरी निगाह से देख रहा था।

    आख़िर वो फ़क़ीर का इंतिज़ार करते करते थक गया। उसने झुरझुरी ली। दोनों हाथों का प्याला बना कर अपनी ठोढ़ी उस पर टिका दी और मासूमियत भरे अंदाज़ में बैठ गया। उसे देखकर ये महसूस होता था कि जैसे किसी मज़लूम के दुख को देखकर वो ख़ुदा से उसकी नजात के लिए दुआ कर रहा हो।

    इंतिज़ार से मायूस हो कर वो इधर उधर देखने लगा। उसकी निगाह सामने वाले मकान के रोशनदान पर पड़ी। रोशनदान में सुर्ख़ शीशे को देखकर एक बेगाना सी मुस्कुराहट उसके होंटों पर गई। उसने एक पत्थर उठा लिया और उससे खेलने लगा। फिर जाने क्या सूझी। उसके बाज़ू ने ज़ोर से झटका खाया। पत्थर से सुर्ख़ शीशा टूटने की आवाज़ आई फिर वो खिड़की से हट कर चौकी पर बैठा। सामने महमूद का तोता फड़फड़ा रहा था। महमूद का तोता... उसके दिल से आवाज़ आई। जैसे कोई उसे छेड़ रहा हो। महमूद का तोता... महमूद का तोता... तमाम फ़िज़ा आवाज़ों से भरी हुई महसूस हो रही थी। उसने लपक कर पिंजरा उतार लिया और उसे धूप में रख दिया। उसके लबों पर मुस्कुराहट गई। चौकी पर अब्बा का उस्तुरा देखकर रशीद ठिठक गया। उसने उस्तुरा उठा लिया। पता नहीं उसके दिल में क्या ख़याल आया। मुँह सुर्ख़ हो गया। आँखें मसर्रत से चमक उठीं। महमूद का तोता। उसने दाँत पीसते हुए कहा। वो पिंजरे के क़रीब हो बैठा। पिंजरे का दरवाज़ा खुल गया। दुनिया घूमती हुई महसूस हो रही थी। हत्ता कि उसे बूढ़ा फ़क़ीर भी याद रहा। खच खच खच&. लहू की बूँदें उस के हाथों पर गिर रही थीं... सुर्ख़ रंगीन मख़मल सा लहू। खिड़की से बाहर रंगीन सुनहरी सुर्ख़ी नाच रही थी। दो बगूले आसमान पर मख़मली क़ौस बन कर झूम रहे थे।

    महमूद का तोता। उसके दिल का कोई कोना तम्सख़र से कह रहा था। महमूद...!

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