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भाबी

MORE BYइस्मत चुग़ताई

    स्टोरीलाइन

    पंद्रह साल की भाबी कॉन्वेंट में पढ़ी थी और ख़ासी फ़ैशनेबल थी। मगर भैया को उनके अंदाज़ बिल्कुल भी पसंद नहीं आए। कहीं किसी और के साथ उनका चक्कर न चल जाए, उन्होंने घर वालों के साथ मिल कर उन्हें पक्की घर वाली बना दिया। मगर एक रोज़ जब उसी फ़ैशनेबल अंदाज़ में शबनम उनके सामने आई तो भय्या के सारे ख़यालात धरे के धरे रह गये।

    भाभी ब्याह कर आई थी तो मुश्किल से पन्द्रह बरस की होगी। बढ़वार भी तो पूरी नहीं हुई थी। भइया की सूरत से ऐसी लरज़ती थी जैसे क़साई से गाय मगर साल भर के अंदर ही वो तो जैसे मुँह-बंद कली से खिल कर फूल बन गई, जिस्म भर गया, बाल घुमेरे हो गए। आँखों में हिरनों जैसी वहशत दूर हो कर ग़ुरूर और शरारत भर गई।

    भाभी ज़रा आज़ाद किस्म के ख़ानदान से थी, कॉन्वेंट में ता’लीम पाई थी। पिछले साल उस की बड़ी बहन एक ईसाई के साथ भाग गई थी। इसलिए उस के माँ बाप ने डर के मारे जल्दी से उसे कॉन्वेंट से उठाया और चट-पट शादी कर दी।

    भाभी आज़ाद फ़िज़ा में पली थी। हिरनियों की तरह क़ुलांचें भरने की आदी थी मगर ससुराल और मैका दोनों तरफ़ से उस पर कड़ी निगरानी थी और भइया की भी यही कोशिश थी कि अगर जल्दी से उसे पक्की घर हस्तिन बना दिया गया तो वो भी अपनी बड़ी बहन की तरह कोई गुल खिलाएगी, हालाँकि वो शादीशुदा थी। लिहाज़ा उसे घर हस्तिन बनाने पर जुट गए।

    चार पाँच साल के अंदर भाभी को घिस घिसा कर वाक़ई सबने घर हस्तिन बना दिया। वो तीन बच्चों की माँ बन कर भद्दी और ठस हो गई। अम्माँ उसे ख़ूब मुर्ग़ी का शोरबा, गोंद स्टोरे खिलातीं। भइया टॉनिक पिलाते और हर बच्चे के बाद वो दस पंद्रह पौंड बढ़ जाती।

    आहिस्ता-आहिस्ता उसने बनना सँवरना छोड़ ही दिया था। भइया को लिपस्टिक से नफ़रत थी। आँखों में मनों काजल और मस्कारा देखकर वो चिड़ जाते। भइया को बस गुलाबी रंग पसंद था या फिर सुर्ख़... भाभी ज़्यादा-तर गुलाबी या सुर्ख़ ही कपड़े पहना करती थी। गुलाबी साड़ी पर सुर्ख़ बलाउज़ या कभी गुलाबी के साथ हल्का गहरा गुलाबी।

    शादी के वक़्त उस के बाल कटे हुए थे। मगर दूल्हन बनाते वक़्त ऐसे तेल चपड़कर बाँधे गए थे, लेकिन पता नहीं चलता था कि वो पर कटी मेम है अब उस के बाल तो बढ़ गए थे, लेकिन पै दर पै बच्चे होने की वजह से वो ज़रा गंजी सी हो गई थी। वैसे भी वो बाल कस कर मैली धज्जी ही बांध लिया करती थी। उसके मियाँ को वो मैली कुचैली ऐसी ही बड़ी प्यारी लगती थी और मैके ससुराल वाले भी उसकी सादगी को देखकर उस की तारीफ़ों के गुन गाते थे। भाभी थी बड़ी प्यारी सी, सजील नक़्शा, मक्खन जैसी रंगत, सुडौल हाथ, पांव... मगर उसने इस बुरी तरह अपने आपको ढीला छोड़ दिया था कि ख़मीरे आटे की तरह बह गई थी।

    भइया उससे नौ बरस बड़े थे मगर उस के सामने लौंडे से लगते थे। वैसे ही सुडौल कसरती बदन वाले, रोज़ वर्ज़िश करते, बड़ी एहतियात से खाना खाते बड़े हिसाब से सिगरेट पीते। यूं ही कभी व्हिस्की बियर चख लेते। उनके चेहरे पर अब लड़कपन था। थे भी तीस इकत्तीस बरस के, मगर चौबीस पच्चीस बरस के ही लगते थे।

    उफ़ भइया को जीन और स्कर्ट से कैसी नफ़रत थी। उन्हें ये नए फ़ैशन की बे-इस्तंबोल की बदन पर चुपकी हुई क़मीज़ से भी बड़ी घिन आती थी। तंग मोरी की शलवारों से तो वो ऐसे जलते थे कि तौबा ख़ैर, भाभी बे-चारी तो शलवार क़मीज़ के क़ाबिल रह ही नहीं गई थी। वो तो बस ज़्यादा-तर ब्लाउज़ और पेटीकोट पर ड्रेसिंग गाउन चढ़ाए घूमा करती। कोई नई जान पहचान वाला जाता तो भी बे-तकल्लुफ़ी से वही अपना नैशनल ड्रेस पहने रहती। कोई पुर-तकल्लुफ़ मेहमान आता तो उमूमन वो अंदर ही बच्चों से सर मारा करती जो कभी बाहर आना पड़ता तो मलगज्जी सी साड़ी लपेट लेती। वो घर हस्तिन थी, बहू थी और चहेती थी, उसे रन्डियों की तरह बन-सँवर कर किसी को लुभाने की क्या ज़रूरत थी।

    और भाभी शायद यूं ही गोडर बनी अधेड़ और फिर बूढ़ी हो जाती। बहुएं ब्याह कर लाती जो सुबह उठकर उसे झुक कर सलाम करतीं, गोद में पोता खिलाने को देतीं। मगर ख़ुदा को कुछ और ही मंज़ूर था।

    शाम का वक़्त था हम सब लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। भाभी पापड़ तलने बावर्ची-ख़ाना में गई थी। बावर्ची ने पापड़ लाल कर दिए भइया को बादामी पापड़ भाते हैं।

    उन्होंने प्यार से भाभी की तरफ़ देखा और वो झट उठकर पापड़ तलने चली गई। हम लोग मज़े से चाय पीते रहे। हाय भाभी थी कि फ़रिश्ता में तो कॉलेज से आकर बावर्ची-ख़ाना में जाने पर किसी तरह मजबूर ही नहीं की जा सकती थी और ना ही मेरा शाम को पुर-तकल्लुफ़ लिबास बावर्ची-ख़ाना के लिए मौज़ूं था। उसके इलावा मुझे पापड़ तलने ही कब आते थे। दूसरी बहनें भी मेरी क़तार में खड़ी थीं। फ़रीदा का मंगेतर आया था। वो उसकी तरफ़ जुटी हुई थी, रज़िया और शमीम अपने दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाने में मसरूफ़ थीं। वो क्या पापड़ तलतीं। और हम सब तो बाबुल के आँगन की चिड़ियाँ थीं और उड़ने के लिए पर तोल रही थीं।

    धायें से फ़ुटबाल आकर ऐन भइया की प्याली में पड़ी। हम सब उछल पड़े। भइया मारे ग़ुस्सा के भन्ना उठे।

    “कौन पाजी है?” उन्होंने जिधर से गेंद आई थी उधर मुँह करके डाँटा।

    बिखरे हुए बालों का गोल मोल सर और बड़ी बड़ी आँखें ऊपर से झांकें। एक ज़क़ंद में भइया मुंडेर पर थे और मुजरिम के बाल उनकी गिरिफ़्त में।

    “ओह!” एक चीख़ गूँजी और दूसरे लम्हे भइया ऐसे उछल कर अलग हो गए जैसे उन्होंने बिच्छू के डंक पर हाथ डाल दिया हो या अंगारा पकड़ लिया हो।

    “सॉरी... आई एम वेरी सॉरी...” वो हकला रहे थे। हम सब दौड़ कर गए। देखा तो मुंडेर के उस तरफ़ एक दुबली पतली नागिन सी लड़की सफ़ेद ड्रेन पाइप और नीबू के रंग का स्लीव-लेस ब्लाउज़ पहने अपने मेरलिन मुनरो की तरह कटे हुए बालों में पतली पतली उंगलियां फेर कर खिसियानी हंसी हंस रही थी और फिर हम सब हँसने लगे।

    भाभी पापड़ों की प्लेट लिए अंदर से निकली और बग़ैर पूछे गछे ये समझ कर हँसने लगी कि ज़रूर कोई हँसने की बात हुई होगी। उसका ढीला ढाला पेट हँसने में फुदकने लगा और जब उसे मा’लूम हुआ कि भइया ने शबनम को लौंडा समझ कर उस के बाल पकड़ लिए तो वो और भी ज़ोर-ज़ोर से क़ह-क़हे लगाने लगी कि कई पापड़ के टुकड़े घास पर बिखर गए। शबनम ने बताया कि वो उसी दिन अपने चचा ख़ालिद जमील के हाँ आई है। अकेले जी घबराया तो फूटबाल ही लुढ़काने लगी जो क़िस्मत से भइया जी की प्याली पर आन कूदी।

    शबनम भइया को अपनी तीखी मस्कारा लगी आँखों से घूर रही थी। भइया मस्हूर सन्नाटे में उसे तक रहे थे। एक करंट उन दोनों के दरम्यान दौड़ रहा था। भाभी इस करंट से कटी हुई जैसे कोसों दूर खड़ी थी। उसका फुदकता हुआ पेट सहम कर रुक गया। हंसी ने उसके होंटों पर लड़खड़ा कर दम तोड़ दिया। उसके हाथ ढीले हो गए। प्लेट टेढ़ी हो कर पापड़ घास पर गिरने लगे। फिर एक दम वो दोनों जाग पड़े और ख़्वाबों की दुनिया से लौट आए। शबनम फ़ुदक कर मुंडेर पर चढ़ गई।

    “आईए चाय पी लीजीए”, मैंने ठहरी हुई फ़िज़ा को धक्का देकर आगे खिसकाया।

    एक लचक के साथ शबनम ने अपने पैर मुंडेर के उस पार से इस पार झुलाए। सफ़ेद छोटे छोटे मकासिन हरी घास पर फ़ाख़्ता के जोड़े की तरह थमकने लगे। शबनम का रंग पिघले हुए सोने की तरह लौ दे रहा था। उसके बाल स्याह भौंरा थे। मगर आँखें जैसे स्याह कटोरियों में किसी ने शहद भर दिया हो। नीबू के रंग के ब्लाउज़ का गला बहुत गहरा था। होंट तरबूज़ी रंग के और इसी रंग की नील पालिश लगाए वो बिलकुल किसी अमरीकी इश्तिहार की मॉडल मा’लूम हो रही थी। भाभी से कोई फ़ुट भर लाँबी लग रही थी हालाँकि मुश्किल से दो इंच ऊंची होगी। इस की हड्डी बड़ी नाज़ुक थी। इसलिए कमर तो ऐसी कि छल्ले में पिरो लो।

    भइया कुछ ग़ुम-सुम से बैठे थे। भाभी उन्हें ऐसे ताक रही थी। जैसे बिल्ली पर तौलते हुए परिंदे को घूरती है कि जैसे ही पर फड़फड़ाये बढ़ कर दबोच ले। उसका चेहरा तमतमा रहा था, होंट भिंचे हुए थे, नथुने फड़फड़ा रहे थे।

    इतने में मुन्ना आकर उस की पीठ पर धम्म से कूदा। वो हमेशा उस की पीठ पर ऐसे कूदा करता था जैसे वो गुदगुदा सा तकिया हो। भाभी हमेशा ही हंस दिया करती थी। मगर आज उसने चटाख़ चटाख़ दो-चार चाँटे जड़ दिए।

    शबनम परेशान हो गई।

    “अरे अरे... रोकिए ना...” उसने भइया का हाथ छूकर कहा, “बड़ी ग़ुस्सा वर हैं आपकी मम्मी।” उसने मेरी तरफ़ मुँह फेर कर कहा।

    इंट्रोडक्शन हमारी सोसाइटी में बहुत कम हुआ करता है और फिर भाभी का किसी से इंट्रोडक्शन कराना अजीब सा लगता था। वो तो सूरत से ही घर की बहू लगती थी। शबनम की बात पर हम सब क़हक़हा मार कर हंस पड़े। भाभी मुन्ने का हाथ पकड़ कर घसीटती हुई अंदर चल दी।

    “अरे ये तो हमारी भाभी है।” मैंने भाभी को धम धम जाते हुए देखकर कहा।

    “भाभी?” शबनम हैरत-ज़दा हो कर बोली।

    “उनकी भइया की बीवी।”

    “ओह...” उसने संजीदगी से अपनी नज़रें झुका लीं।

    “मैं मैं समझी!” उसने बात अधूरी छोड़ दी।

    “भाभी की उम्र तेईस साल है।” मैंने वज़ाहत की।

    “मगर डोंट बी सिल्ली...” शबनम हंसी, भइया भी उठकर चल दिए।

    “ख़ुदा की क़सम।”

    “ओह... जहालत...”

    “नहीं... भाभी ने मार्टीज़ से पंद्रह साल की उम्र में सीनियर कीमर्ज किया था।”

    “तुम्हारा मतलब है। ये मुझसे तीन साल छोटी हैं। मैं छब्बीस साल की हूँ।”

    “तब तो क़तई छोटी हैं।”

    उफ़ और मैं समझी वो तुम्हारी मम्मी हैं। दरअसल मेरी आँखें कमज़ोर हैं। मगर मुझे ऐनक से नफ़रत है। बुरा लगा होगा उन्हें।”

    “नहीं भाभी को कुछ बुरा नहीं लगता।”

    “च्च... बेचारी...”

    “कौन... कौन... भाई?” ना जाने मैंने क्यों कहा

    “भइया अपनी बीवी पर जान देते हैं।” सफ़िया ने बतौर वकील कहा।

    “बेचारे की बहुत बचपन में शादी कर दी गई होगी।”

    “पच्चीस छब्बीस साल के थे।”

    “मगर मुझे तो मा’लूम भी ना था कि बीसवीं सदी में बग़ैर देखे शादियां होती हैं”, शबनम ने हक़ारत से मुस्कराकर कहा।

    “तुम्हारा हर अंदाज़ा ग़लत निकल रहा है... भइया ने भाभी को देखकर बेहद पसंद कर लिया था, तब शादी हुई थी... मगर जब वो कंवल के फूल जैसी नाज़ुक और हुसैन थीं।”

    “फिर ये क्या हो गया शादी के बाद?”

    “होता क्या... भाभी अपने घर की मल्लिका हैं बच्चों की मल्लिका हैं। कोई फ़िल्म ऐक्ट्रेस तो हैं नहीं। दूसरे भइया को सूखी मारी लड़कीयों से घिन आती है।” मैंने जान कर शबनम पर चोट की। वो बेवक़ूफ़ ना थी।

    भई चाहे मुझसे कोई प्यार करे या ना करे। मैं तो किसी को ख़ुश करने के लिए हाथी का बच्चा कभी ना बनूं। “ओह! माफ़ करना तुम्हारी भाभी कभी बहुत ख़ूबसूरत होंगी मगर अब तो...”

    “उंह, आपका नुक्ता-ए-नज़र भइया से मुख़्तलिफ़ है।” मैंने बात टाल दी और जब वो बल खाती सीधी सुडौल टांगों को आगे पीछे झुलाती नन्हे नन्हे क़दम रखती मुंडेर की तरफ़ जा रही थी। भइया बरामदे में खड़े थे। उनका चेहरा सफ़ेद पड़ गया था। और बार-बार अपनी गुद्दी सहला रहे थे। जैसे किसी ने वहां जलती हुई आग रख दी हो। चिड़िया की तरह फुदक कर वो मुंडेर फलाँग गई। पल-भर को पलट कर उसने अपनी शरबती आँखों से भइया को तौला और छलावा की तरह कोठी में ग़ायब हो गई।

    भाभी लॉन पर झुकी हुई बालीं समेट रही थीं। मगर उसने एक नज़र ना आने वाला तार देख लिया। जो भइया जी और शबनम की निगाहों के दरमयान दौड़ रहा था।

    एक दिन मैंने खिड़की में से देखा। शबनम फूला हुआ स्कर्ट और सफ़ेद खुले गले का ब्लाउज़ पहने पप्पू के साथ सुंबा नाच रही थी उस का नन्हा सा पिकनीज़ कुत्ता टांगों में उलझ रहा था। वो ऊंचे ऊंचे क़हक़हे लगा रही थी। उसकी सुडौल साँवली टांगें हरी हरी घास पर थिरक रही थीं। स्याह रेशमी बाल हवा में छलक रहे थे। पाँच साल का पप्पू बंदर की तरह फुदक रहा था। मगर वो नशीली नागिन की तरह लहरा रही थी। उसने नाचते नाचते नाक पर अँगूठा रखकर मुझे चिढ़ाया। मैंने जवाब में घूँसा दिखा दिया। मगर फ़ौरन ही मुझे उस की निगाहों का पीछा करके मा’लूम हुआ ये इशारा वो मेरी तरफ़ नहीं कर रही थी। भइया बरामदे में अहमक़ों की तरह खड़े गुद्दी सहला रहे थे। और वो उन्हें मुँह चिढ़ा-कर जला रही थी। उसकी कमर पर बल पड़ रहे थे। कूल्हे मटक रहे थे। बाँहें थर-थरा रही थीं। होंट एक दूसरे से जुदा लरज़ रहे थे। उसने साँप की तरह लप से ज़बान निकाल कर अपने होंट को चाटा। भइया की आँखें चमक रही थीं और वो खड़े दाँत निकाल रहे थे। मेरा दिल धक से रह गया... भाभी गोदाम में अनाज तुलवा कर बावर्ची को दे रही थी।

    “शबनम की बच्ची...” मैंने दिल में सोचा... मगर ग़ुस्सा मुझे भइया पर भी आया। उन्हें दाँत निकालने की क्या ज़रूरत थी। उन्हें तो शबनम जैसी करनेटों से नफ़रत थी। उन्हें तो अंग्रेज़ी नाचों से घिन आती थी। फिर वो क्यों खड़े उसे तक रहे हैं और ऐसी भी किया बेसुधी कि उनका जिस्म संबा की ताल पर लरज़ रहा था और उन्हें ख़बर ना थी।

    इतने में ब्वॉय चाय की ट्रे लेकर लॉन पर गया… भइया ने हम सबको आवाज़ दी और ब्वॉय से कहा भाभी को भेज दे।

    रसमन शबनम को बुलावा देना पड़ा। मेरा तो जी चाह रहा था क़तई उस की तरफ़ से मुँह फेर कर बैठ जाऊं मगर जब वो मुन्ने को मुड्डों पर चढ़ाए मुंडेर फलाँग कर आई तो ना जाने क्यों मुझे वो क़तई मासूम लगी, मुन्ना स्कार्फ़ लगामों की तरह थामे हुए था और वो घोड़े की चाल उछलती हुई लॉन पर दौड़ रही थी। भइया ने मुन्ने को उस की पीठ से उतारना चाहा मगर वो चिमट गया।

    “अभी और घोड़ा चले आंटी।”

    “नहीं बाबा... आंटी में दम नहीं...” शबनम चिल्लाई। बड़ी मुश्किल से मुन्ने को भइया ने उतारा। मुँह पर एक चांटा लगाया एक दम तड़प कर शबनम ने उसे गोद में उठा लिया और भइया के हाथ पर-ज़ोर का थप्पड़ लगाया।

    “शर्म नहीं आती... इतने बड़े ऊंट के ऊंट ज़रा से बच्चे पर हाथ उठाते हैं।” भाभी को आता देखकर उसने मुन्ने को उनकी गोद में दे दिया। उसका चांटा खाकर भइया मुस्कुरा रहे थे।

    “देखिए तो कितनी ज़ोर से थप्पड़ मारा है। मेरे बच्चे को कोई मारता तो हाथ तोड़ कर रख देती,” उसने शर्बत की कटोरियों में ज़हर घोल कर भइया को देखा। “और फिर हंस रहे हैं बे-हया।”

    “हूँ... दम भी है... जो हाथ तोड़ोगी...” भइया ने उसकी कलाई मरोड़ी। वो बल खाकर इतनी ज़ोर से चीख़ी के भइया ने लरज़ कर उसे छोड़ दिया और वो हंसते हंसते ज़मीन पर लोट गई। चाय के दरमयान भी शबनम की शरारतें चलती रहीं वो बिलकुल कमसिन छोकरियों की तरह चुहलें कर रही थी। भाभी गुम-सुम बैठी थीं। आप समझे होंगे। शबनम के वजूद से डर कर उन्होंने कुछ अपनी तरफ़ तवज्जा देनी शुरू कर दी होगी। जी क़तई नहीं। वो तो पहले से भी ज़्यादा मैली रहने लगीं। पहले से भी ज़्यादा खातीं। हम सब तो हंस ज़्यादा रहे थे। मगर वो सर झुकाए निहायत इन्हिमाक से केक उड़ाने में मसरूफ़ थीं। चटनी लगा लगाकर भजिए निगल रही थीं। सिके हुए तोसों पर ढेर सामखन और जैम थोप कर खाए जा रही थीं, भइया और शबनम को देख देखकर हम सब ही परेशान थे और शायद भाभी फ़िक्रमंद होगी वो अपनी परेशानी को मुर्ग़न खानों में दफ़न कर रही थीं। उन्हें हर वक़्त खट्टी डकारें आया करतीं मगर वो चूरन खा-खा कर पुलाव क़ोरमा हज़म करतीं। वो सहमी-सहमी नज़रों से भइया जी और शबनम को हँसता बोलता देखतीं। भइया तो कुछ और भी लौंडे लगने लगे थे। शबनम के साथ वो सुबह-ओ-शाम समुंद्र में तैरते। भाभी अच्छा भला तैरना जानती थी, मगर भइया को स्विमिंग सूट पहनी औरतों से बहुत नफ़रत थी। एक दिन हम सब समुंद्र में नहा रहे थे। शबनम दो धज्जियाँ पहने नागिन की तरह पानी में बल खा रही थी। इतने में भाभी जो देर से मुन्ने को पुकार रही थीं, गईं। भइया शरारत के मूड में तो थे ही, दौड़ कर उन्हें पकड़ लिया और हम सब ने मिल कर उन्हें पानी में घसीट लिया।

    जब से शबनम आई थी। भइया बहुत शरीर हो गए थे। एक दम से वो दाँत कच-कचा कर भाभी को हम सब के सामने भींच लेते। उन्हें गोद में उठाने की कोशिश करते। मगर वो उन के हाथों में से बोंबल मछली की तरह फिसल जातीं। फिर वो खिसियाकर रह जाते, जैसे तख़य्युल में वो शबनम ही को उठा रहे थे और भाभी कटी गाय की तरह नादिम हो कर फ़ौरन पुडिंग या कोई और मज़ेदार डिश तैयार करने चली जातीं। इस वक़्त जो उन्हें पानी में धकेला गया तो वो गठड़ी की तरह लुढ़क गईं। उनके कपड़े जिस्म पर चिपक गए और उनके जिस्म का सारा भोंडा पन भइयानक तरीक़े पर उभर आया। कमर पर जैसे किसी ने तोशक लपेट दी थी। कपड़ों में वो इतनी भइयानक नहीं मा’लूम होती थीं।

    “ओह कितनी मोटी हो गई हो तुम”, भइया ने उनके कूल्हे का बूटा पकड़ कर कहा। “उफ़ तोंद तो देखो... बिल्कुल गामा पहलवान मा’लूम हो रही हो।”

    “हुंह... चार बच्चे होने के बाद कमर...”

    “मेरे भी तो चार बच्चे हैं... मेरी कमर तो डंल्लो पल्लो का गुद्दा नहीं बनी”, उन्होंने अपने सुडौल जिस्म को ठोक बजाकर कहा और भाभी मुँह थोथाए भीगी मुर्ग़ी की तरह पैर मारती झर झुरियाँ लेती रेत में गहरे-गहरे गड्ढे बनाती मुन्ने को घसीटती चली गईं। भइया बिलकुल बे-तवज्जो हो कर शबनम को पानी में डुबकियां देने लगे। मगर वो कहाँ हाथ आने वाली थी। ऐसा अड़ंगा लगाया कि गड़ाप से औंधे मुँह गिर पड़े।

    जब नहाकर आए तो भाभी सर झुकाए ख़ूबानियों के मुरब्बे पर क्रीम की तह जमा रही थीं, उनके होंट सफ़ेद हो रहे थे और आँखें सुर्ख़ थीं। गिटार-च की गुड़िया जैसे मोटे-मोटे गाल और सूजे हुए मा’लूम हो रहे थे।

    लंच पर भाभी बे-इंतिहा ग़मगीन थीं। लिहाज़ा बड़ी तेज़ी से ख़ूबानियों का मुरब्बा और क्रीम खाने पर जुटी हुई थीं। शबनम ने डिश की तरफ़ देखकर ऐसे फुरेरी ली जैसे ख़ूबानीयाँ ना हों साँप बिच्छू हों।

    “ज़हर है ज़हर!” उसने नफ़ासत से ककड़ी का टुकड़ा कुतरते हुए कहा। और भइया भाभी को घूरने लगे। मगर वो शपा-शप मुरब्बा उड़ाती रहीं।

    “हद है!” उन्होंने नथुने फड़का कर कहा।

    भाभी ने कोई ध्यान ना दिया और क़रीब-क़रीब पूरी डिश पेट में उंडेल ली। उन्हें मुरब्बा सपोड़ते देखकर ऐसा मा’लूम होता था जैसे वो रश्क-ओ-हसद के तूफ़ान को रोकने के लिए बंद बांध रही हों। ये क्रीम चोबी की चटानों की सूरत में उनके जिस्म के क़िले को नाक़ाबिल-ए-तसख़ीर बना देगी। फिर शायद दिल में यूं टीसें ना उट्ठेंगी। भइया जी और शबनम की मुस्कुराती हुई आँखों के टकराओ से भड़कने वाले शोले उन पथरीली दीवारों को ना पिघला सकेंगे।

    “ख़ुदा के लिए बस करो... डाक्टर भी मना कर चुका है ऐसा भी क्या चटोर-पन”, भइया ने कह ही दिया, मोम की दीवार की तरह भाभी पिघल गईं। भइया का नश्तर चर्बी की दीवारों को चीरता हुआ ठीक दिल में उतर गया। मोटे मोटे आँसू भाभी के फूले हुए गालों पर फिसलने लगे। सिसकियों ने जिस्म के ढेर में ज़लज़ला पैदा कर दिया। दुबली पतली और नाज़ुक लड़कियां किस लतीफ़ और सुहाने अंदाज़ में रोती हैं। मगर भाभी को रोते देखकर बजाय दुख के हंसी आती थी जैसे कोई रूई के भीगे हुए ढेर को डंडों से पीट रहा हो।

    वो नाक पोंछती हुई उठने लगीं मगर हम लोगों ने रोक लिया और भइया को डाँटा, ख़ुशामद करके वापिस उन्हें बिठा लिया। बेचारी नाक सुड़काती बैठ गईं। मगर जब उन्होंने काफ़ी में तीन चम्मच शकर डाल कर क्रीम की तरफ़ हाथ बढ़ाया तो एक दम ठिठक गईं। सहमी हुई नज़रों से शबनम और भइया की तरफ़ देखा। शबनम ब-मुश्किल अपनी हंसी रोके हुए थी, भइया मारे ग़ुस्सा के रुहांसे हो रहे थे। वो एक दम भन्नाकर उठे और जाकर बरामदे में बैठ गए। उसके बाद हालात और बिगड़े। भाभी ने खुल्लम खुल्ला ऐलान जंग कर दिया। किसी ज़माने में भाभी का पठानी ख़ून बहुत गर्म था। ज़रा सी बात पर हाथा पाई पर उतर आया करती थीं और बारहा भइया से ग़ुस्सा हो कर बजाय मुँह फैलाने के वो ख़ूँख़ार बिल्ली की तरह उन पर टूट पड़तीं, उनका मुँह खसोट डालतीं। दाँतों से गिरेबान की धज्जियाँ उड़ा देतीं। फिर भइया उन्हें अपनी बाँहों में जकड़ कर बेबस कर देते और वो उनके सीने से लग कर प्यासी डरी हुई चिड़िया की तरह फूट फूटकर रोने लगतीं फिर मिलाप हो जाता और झेंपी खिसियानी वो भइया के मुँह पर लगे हुए खरोंचों पर प्यार से टिंक्चर लगा देतीं। उनके गिरेबान को रफ़ू कर देतीं। और मीठी मीठी शुक्रगुज़ार आँखों से उन्हें तकती रहतीं।

    ये तब की बात है जब भाभी हल्की फुल्की तीतरी की तरह तर्रार थीं, लड़ती हुई छोटी सी पश्मी बिल्ली मा’लूम होती थीं। भइया को उन पर ग़ुस्सा आने के बजाय और शिद्दत से प्यार आता। मगर जब उन पर गोश्त ने जिहाद बोल दिया था, वो बहुत ठंडी पड़ गई थीं। उन्हें अव्वल तो ग़ुस्सा ही ना आता और अगर आता भी तो फ़ौरन इधर उधर काम में लग कर भूल जातीं।

    उस दिन उन्होंने अपने भारी भरकम डील को भूल कर भइया पर हमला कर दिया। भइया सिर्फ उनके बोझ से धक्का खाकर दीवार से जा चुपके। रोई के गठड़े को यूं लुढ़कते देखकर उन्हें सख़्त घिन आई। ना ग़ुस्सा हुए, ना बिगड़े, शर्मिंदा उदास सर झुकाए कमरे से निकल भागे। भाभी वहीं पसर कर रोने लगीं।

    बात और बढ़ी और एक दिन भइया के साले आकर भाभी को ले गए। तुफ़ैल, भाभी के चचाज़ाद भाई थे। उन्हें देखकर वो बच्चों की तरह उनसे लिपट कर रोने लगीं। उन्होंने भाभी को पाँच साल बाद देखा था। वो गोल गेंद को देखकर थोड़ी देर के लिए सट पटाए फिर उन्होंने भाभी को नन्ही बच्ची की तरह सीने से लगा लिया। भइया उस वक़्त शबनम के साथ क्रिकेट का मैच देखने गए हुए थे। तुफ़ैल ने शाम तक उन का इंतिज़ार किया। वो ना आए तो मजबूरन भाभी और बच्चों का सामान तैयार किया गया। जाने से पहले भइया घड़ी-भर को खड़े खड़े आए।

    “दिल्ली के मकान मैंने उनके महर में दिए हैं”, उन्होंने रुखाई से तुफ़ैल से कहा।

    “महर?” भाभी थर-थर काँपने लगी।”

    “हाँ... तलाक़ के काग़ज़ात वकील के ज़रीये पहुंच जाऐंगे।”

    “मगर तलाक़... तलाक़ का क्या ज़िक्र है?”

    “इसी में बेहतरी है।”

    “मगर... बच्चे...?”

    “ये चाहें तो उन्हें ले जाएं... वर्ना मैंने बोर्डिंग में इंतेज़ाम कर लिया है।”

    एक चीख़ मार कर भाभी भइया पर झपटीं... मगर उन्हें खसोटने की हिम्मत ना पड़ी सहम कर ठिठक गईं।

    और फिर भाभी ने अपनी निस्वानियत की पूरी तरह बे आबरूई कर डाली। वो भइया के पैरों पर लोट गईं नाक रगड़ डाली।

    “तुम उससे शादी कर लो... मैं कुछ ना कहूँगी। मगर ख़ुदा के लिए मुझे तलाक़ ना दो। मैं यूँ ही ज़िंदगी गुज़ार दूंगी। मुझे कोई शिकायत ना होगी।”

    मगर भइया ने नफ़रत से भाभी के थुल-थुल करते हुए जिस्म को देखा और मुँह मोड़ लिया।

    “मैं तलाक़ दे चुका, अब क्या हो सकता है।”

    मगर भाभी को कौन समझाता। वो बिल-बिलाए चली गईं।

    “बेवक़ूफ़...” तुफ़ैल ने एक ही झटके में भाभी को ज़मीन से उठा लिया, “गधी कहीं की, चल उठ...” और वो उसे घसीटते हुए ले गए।

    क्या दर्दनाक समां था। बच्चे फूट फूटकर रोने में भाभी का साथ दे रहे थे। अम्माँ ख़ामोश एक-एक का मँह तक रही थीं। अब्बा की मौत के बाद उनकी घर में कोई हैसियत नहीं रह गई थी। भइया ख़ुद-मुख़्तार थे बल्कि हम सब के सर-परस्त थे। अम्माँ उन्हें बहुत समझाकर हार चुकी थीं उन्हें उस दिन की अच्छी तरह ख़बर थी। मगर क्या कर सकती थीं।

    भाभी चली गईं... फ़िज़ा ऐसी ख़राब हो गई थी कि भइया और शबनम भी शादी के बाद हिल स्टेशन पर चले गए।

    सात आठ साल गुज़र गए कुछ कम-ओ-बेश ठीक अंदाज़ा नहीं, हम सब अपने अपने घरों की हुईं। अम्माँ का इंतिक़ाल हो गया। अब्बा की मौत के बाद वो बिलकुल गुम-सुम हो कर रह गई थीं। उन्होंने भाभी की तलाक़ पर बहुत रोना पीटना मचाया। मगर भइया के मिज़ाज से वो वाक़िफ़ थीं। वो कभी अब्बा की भी नहीं सुनते थे। कमाऊ पोत अपना मालिक होता है।

    आशियाना उजड़ गया। भरा हुआ घर सुनसान हो गया। सब इधर-उधर उड़ गए सात आठ साल आँख झपकते ना जाने कहाँ गुम हो गए कभी साल दो साल में भइया की कोई ख़ैर-ख़बर मिल जाती। वो ज़्यादा-तर हिन्दोस्तान से बाहर मुल्कों की चक फेरियों में उलझे रहे मगर जब उनका ख़त आया कि वो बंबई रहे हैं तो भूला बिसरा बचपन फिर से जाग उठा। भइया जी ट्रेन से उतरे तो हम दोनों बच्चों की तरह लिपट गए। शबनम मुझे कहीं नज़र ना आई। उनका सामान उतर रहा था। जैसे ही भइया से उसकी ख़ैरीयत पूछने को मुड़ी, धप से एक वज़नी हाथ मेरी पीठ पर पड़ा और कई मन का गर्म गर्म गोश्त का पहाड़ मुझसे लिपट गया।

    “भाभी!” मैंने प्लेटफार्म से नीचे गिरने से बचने के लिए खिड़की में झोल कर कहा। ज़िंदगी में, मैंने शबनम को कभी भाभी ना कहा था। वो लगती भी तो शबनम ही थी मगर आज मेरे मुँह से बे-इख़्तियार भाभी निकल गया। शबनम की फव्वार... इन चंद सालों में गोश्त और पोस्त का थोदा कैसे बन गई? मैंने भइया की तरफ़ देखा वो वैसे ही दराज़क़द और छरहरे थे। एक तौला गोश्त ना इधर ना उधर वही कमसिन लड़कों जैसे घने बाल। बस दो-चार सफ़ेद चांदी के तार कनपटियों पर झाँकने लगे थे जिनसे वो और भी हसीन और ब-वक़ार मा’लूम होने लगे थे। वैसे के वैसे चट्टान की तरह जमे हुए थे। लहरें तड़प-तड़प कर चट्टान की और लपकती हैं। अपना सर उस के क़दमों में दे मारती हैं... पाश-पाश हो कर बिखर जाती हैं, मा’दूम हो जाती हैं। हार थक कर वापिस लौट जाती हैं। कुछ वहीं उस के क़दमों में दम तोड़ देती हैं और नई लहरें फिर सरफ़रोशी के इरादे समेटे चट्टान की तरफ़ खिंची चली आती हैं।

    और चट्टान? इन सज्दों से दूर... तंज़ से मुस्कुराता रहता है। अटल, लापरवाह और बेरहम। जब भइया ने शबनम से शादी की तो सब ही ने कहा था... शबनम आज़ाद लड़की है, पक्की उम्र की है... भाभी... तो ये मैंने शहनाज़ को हमेशा भाभी ही कहा। हाँ तो शहनाज़ भोली और कमसिन थी... भइया के क़ाबू में गई। ये नागिन उन्हें डस कर बे-सुध कर देगी। उन्हें मज़ा चखाएगी।

    मगर मज़ा तो लहरों को सिर्फ चट्टान ही चखा सकती है।

    “बच्चे... बोर्डिंग में छुट्टी नहीं थी।” उनकी शबनम ने खट्टी डकारों भरी सांस मेरी गर्दन पर छोड़कर कहा।

    और मैं हैरत से इस गोश्त के ढेर में उस शबनम की फुवार को ढूंढ रही थी जिसने शहनाज़ के प्यार की आग को बुझाकर भइया के कलेजे में नई आग भड़का दी थी। मगर ये क्या? बजाय इस आग में भस्म हो जाने के भइया तो और भी सोने की तरह तप कर निखर आए थे। आग ख़ुद अपनी तपिश में भस्म हो कर राख का ढेर बन गई थी। भाभी तो मक्खन का ढेर थी... मगर शबनम तो झुलसी हुई मटियाली राख थी... फ़र्श पर फैल गई।

    हाल तालियों से गूंज रहा था... शबनम की आँखें भइया जी को ढूंढ रही थीं। बैरा तर-ओ-ताज़ा रस-भरी और क्रीम का जग ले आया। बे-ख़याली में शबनम ने प्याला रस भरयों से भर लिया। उसके हाथ लरज़ रहे थे। आँखें चोट खाई हुई हिरनियों की तरह परेशान चौकड़ियां भर रही थीं।

    भीड़भाड़ से दूर... नीम-तारीक बालकनी में भइया खड़े मिस्री रक़्क़ासा का सिगरेट सुलगा रहे थे। उनकी पुर शौक निगाहें रक़्क़ासा की नशीली आँखों से उलझ रही थीं। शबनम का रंग उड़ा हुआ था और वो एक बेहंगम पहाड़ की तरह ग़म-सुम बैठी थी। शबनम को अपनी तरफ़ तकता देखकर भइया रक़ासा का बाज़ू थामे अपनी मेज़ की तरफ़ लौट आए और हमारा तअ’र्रुफ़ कराया।

    “मेरी बहन”, उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा किया। रक़्क़ासा ने लचक कर मेरे वजूद को मान लिया।

    “मेरी बेगम”, उन्होंने ड्रामाई अंदाज़ में कहा... जैसे कोई मैदान-ए-जंग में खाया हुआ ज़ख़्म किसी को दिखा रहा हो। रक़्क़ासा दम-ब-ख़ुद रह गई। जैसे उसने उस की रफीक़ा हयात को नहीं ख़ुद उनकी लाश को ख़ून में गलता देख लिया हो, वो हैबतज़दा हो कर शबनम को घूरने लगी। फिर उसने अपने कलेजे की सारी ममता अपनी आँखों में समो कर भइया की तरफ़ देखा,।उस की एक नज़र में लाखों फ़साने पोशीदा थे। “उफ़ ये हिन्दोस्तान जहां जहालत से कैसी-कैसी प्यारी हस्तियाँ रस्म-ओ-रिवाज पर क़ुर्बान की जाती हैं। क़ाबिल-ए-परस्तिश हैं वो लोग और क़ाबिल-ए-रहम भी जो ऐसी ऐसी सज़ाएं भुगतते हैं।”

    शबनम भाभी ने रक़ासा की निगाहों में ये सब कुछ पढ़ लिया। उसके हाथ लरज़ने लगे। परेशानी छिपाने के लिए उसने क्रीम का जग उठाकर रस भरियों पर उंडेल दिया और जुट गई।

    बेचारे भइया जी हैंडसम और मज़लूम... सूरज देवता की तरह हसीन और रू मश्क शहद भरी आँखों वाले भइया जी चट्टान की तरह अटल... एक अमर शहीद का रूप सजाये बैठे मुस्कुरा रहे थे।

    एक लहर चूर चूर उनके क़दमों में पड़ी दम तोड़ रही थी।

    दूसरी नई-नवेली लचकती हुई लहर उनकी पथरीली बाहों में समाने के लिए बेचैन और बेक़रार थी।

    स्रोत:

    Chidi Ki Dukki (Pg. 70)

    • लेखक: इस्मत चुग़ताई
      • प्रकाशक: रोहतास बुक्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1992

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