Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ना-मुकम्मल तहरीर

सआदत हसन मंटो

ना-मुकम्मल तहरीर

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी शख़्स की कहानी है, जिसे एक पहाड़ी सैर के दौरान एक लड़की से मोहब्बत हो जाती है। लड़की का नाम वज़ीर है और वह एक गडरिये की बेटी होती है। वह कम-उम्र और ख़ूबसूरत लड़की है। जब वह अपनी बकरियों को बुलाती है तो उसकी आवाज़़ बहुत प्यारी लगती है। वह उसकी आवाज़़ को सुनता है और उसे बार-बार बकरियों को बुलाने के लिए कहता है। अचानक उसके मन में न जाने क्या आता है कि वह उसे अपनी बाँहों में भर लेता है और उसके होंठों को चूमना चाहता है, पर वज़ीर उसे एक झटके से अपने से अलग कर देती है। इससे उसके होंठों पर उभरी वह तहरीर ना-मुकम्मल ही रह जाती है।

    मैं जब कभी ज़ेल का वाक़िया याद करता हूँ, मेरे होंटों में सुईयां सी चुभने लगती हैं।

    सारी रात बारिश होती रही थी जिसके बाइ’स मौसम ख़ुनक हो गया था। जब मैं सुबह सवेरे ग़ुस्ल के लिए होटल से बाहर निकला तो धुली हुई पहाड़ियों और नहाए हुए हरे भरे चीड़ों की ताज़गी देख कर तबीयत पर वही कैफ़ियत पैदा हुई जो ख़ूबसूरत कुंवारियों के झुरमुट में बैठने से पैदा होती है।

    बारिश बंद थी, अलबत्ता नन्ही नन्ही फ़ुवार पड़ रही थी। पहाड़ियों के ऊंचे ऊंचे दरख़्तों पर आवारा बदलियां ऊँघ रही थीं, गोया रात भर बरसने के बाद थक कर चूर चूर हो गई हैं।

    मैं चश्मे की तरफ़ रवाना हुआ। कांधे पर तौलिया था। एक हाथ में साबुनदानी थी, दूसरे में नेकर। जब सड़क का मोड़ तय करने लगा तो आँखों के सामने धुंद ही धुंद नज़र आई। बादल का एक भूला भटका टुकड़ा था जो शायद आसमानी फ़िज़ा से उक्ता कर इधर निकला था। इस बादल ने सड़क के दूसरे हिस्से को आँखों से बिल्कुल ओझल कर दिया था। मैंने ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। वहां भी सपेदी ही सपेदी नज़र आई और ऐसा मालूम हुआ कि ऊपर से कोई धुनकी हुई रूई बिखेर रहा है।

    इतने में हवा के तेज़ झोंकों ने इस सपेदी में इर्तआ’श पैदा किया और इस धुंद में से दूर मिसाल बुख़ारात अ’लाहिदा होने लगे और मेरी नंगी बाहों से मस हुए। बर्फ़ से उठते हुए धुंए की सर्दी के एहसास से वही कैफ़ियत पैदा होती है जो उन बुख़ारात ने पैदा की।

    इस बादल में से गुज़रते वक़्त सांस के ज़रिये से ये सपैद सपैद बुख़ारात मेरे अंदर दाख़िल हो गए जिससे फेफड़ों को बड़ी राहत महसूस हुई। मैंने जी भर के उससे लुत्फ़ उठाया। जब बादल के इस टुकड़े को तय करके में बाहर आया तो आँखों को कुछ सुझाई दिया। मेरे चश्मे के शीशे काग़ज़ के मानिंद सफ़ेद हो गए थे। फिर एका एकी मुझे सर्दी महसूस होने लगी और जब मैंने अपने कपड़ों की तरफ़ देखा तो वो शबनम आलूद तकिए की तरह गीले हो रहे थे।

    मैं ग़ुस्लख़ाने के मुआ’मले में बेहद सुस्त हूँ और सर्दियों के मौसम में तो रोज़ाना ग़ुस्ल का मैं बिल्कुल क़ाइल नहीं। दरअसल नहाने धोने का फ़लसफ़ा मेरी समझ से हमेशा बालातर रहा है। ग़ुस्ल का मतलब ये है कि ग़लाज़त दूर की जाये और रोज़ नहाने का ये मतलब हुआ कि आदमी रात में ग़लीज़ और गंदा हो जाता है। हाथ-मुँह धो लिया जाये, पैर साफ़ कर लिये जाएं, सर के बाल धो लिये जाएं इसलिए कि ये सब चीज़ें जल्दी मैली हो सकती हैं। मगर हर रोज़ बदन क्यों साफ़ किया जाये जब कि ये बहुत देर के बाद मैला होता है।

    गर्मियों में तो ख़ैर मैं नहाने का मतलब समझ सकता हूँ मगर सर्दियों में इसका कोई मसरफ़ मुझे नज़र नहीं आता। आख़िर क्या मुसीबत पड़ी है कि हर रोज़ सुबह सवेरे इंसान ग़ुस्लख़ाने में जाये। सर्दी के मारे पूरे दो घंटों तक दाँत बजते रहें, उंगलियां सुन्न हो जाएं, नाक बर्फ़ की डली बिन जाये... ग़ुस्ल हुआ, अच्छी ख़ासी मुसीबत हुई।

    ग़ुस्ल के बारे में अब भी मेरा यही ख़याल है, लेकिन जिस पहाड़ी गांव का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, वहां की फ़िज़ा ही कुछ इस क़िस्म की थी कि जो चीज़ें मुझे अब मुहमल नज़र आती हैं या इससे पहले नज़र आया करती थीं, वहां बामा’नी दिखाई देती थीं... इस ग़ुस्ल ही को लीजिए। उस पहाड़ी गांव में जितना अ’र्सा मैं रहा हर रोज़ मेरा पहला काम ये होता था कि नहाऊँ और देर तक नहाता रहूं।

    चश्मे पर पहुंच कर मैंने कपड़े उतारे। नेकर पहनी और जब पानी की उस गिरती हुई धार के पास गया जो पत्थरों पर गिर कर नन्हे नन्हे छींटे उड़ा रही थी तो पानी की एक सर्द बूँद मेरी पीठ पर पड़ी। मैं तड़प कर एक तरफ़ हट गया। जहां बूँद गिरी थी उस जगह गुदगुदी, परकार की नोक की तरह चुभी और सारे जिस्म पर फैल गई। मैं सिमटा, काँपा और सोचने लगा, मुझे वाक़ई नहाना चाहिए या कि नहीं। क़रीब था कि मैं बाग़ी हो जाऊं लेकिन आस पास निगाह दौड़ाई तो हर शय नहाई हुई नज़र आई, चुनांचे जो बाग़ियाना ख़याल मेरे दिमाग़ में उस शरीर बूँद ने पैदा किए थे ठंडे हो गए।

    सर्द पानी की गुदगुदियाँ शुरू शुरू में तो मुझे बहुत नागवार गुज़रीं, मगर जब मैं जी कड़ा कर के धार के नीचे बैठ गया तो वो लुत्फ़ आया कि बयान नहीं कर सकता। दोनों हाथों के साथ ज़ोर ज़ोर से पानी के छींटे उड़ाने से सर्दी की शिद्दत कम हो जाती थी, चुनांचे जब मैंने ये गुर मालूम कर लिया तो फिर इस लुत्फ़ में और भी इज़ाफ़ा हो गया।

    सर पर पानी की मोटी धार ने अ’जीब कैफ़ियत पैदा करदी। फिर जब पानी के दबाव से बाल पेशानी पर से नीचे लटक आए और उन्होंने आँखों और मुँह में घुसना शुरू कर दिया तो ज़ोर ज़ोर से फूंकें मार कर उनको हटाने की नाकाम सई ने मज़ा और भी दोबाला कर दिया। कभी कभी डूब कर उभरते हुए आदमी का एहसास भी मुझे हुआ और मैंने सोचा कि जो लोग डूब कर मर जाते हैं उनको ऐसी मौत में बेहद लुत्फ़ आता होगा। चश्मे का पानी आँसूओं की तरह शफ़्फ़ाफ़ था। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मेरे इर्द गिर्द बुलबुलों और पानी के छींटों का मुशायरा होरहा है।

    ग़ुस्ल से फ़ारिग़ होकर मैंने तौलिये से बदन पोंछा और सर्दी का एहसास कम करने के लिए धीमे धीमे सुरों में एक गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया। कभी कभी ये सुरीली गुनगुनाहट हवा के झोंकों से मुर्तइ’श हो जाती और मैं ये समझता कि मेरे बजाय कोई और आदमी बहुत दूर गा रहा है, इस पर मैं तौलिये को ज़्यादा ज़ोर के साथ बदन पर मलने लगता।

    बदन ख़ुश्क हो गया तो मैंने कपड़े पहने। इस अस्ना में बूंदा बांदी शुरू हो गई। मैंने आसमान की तरफ़ देखा। मेरे ऐ’न ऊपर बादल का एक इस्फ़ंज नुमा टुकड़ा छतरी की तरह फैला हुआ था। मैंने जल्दी जल्दी पहाड़ी पर से नीचे उतरना शुरू किया और फ़ौरन ही कूदता फाँदता सड़क में उतर आया।

    मुतवक़्क़े बारिश से बचने के लिए मैंने क़दम तेज़ कर दिए, लेकिन अभी सड़क पर बमुश्किल एक जरीब का फ़ासला तय करने पाया था कि “ए बकरी बकरी” की आवाज़ बलंद हुई, फिर इसके साथ ही दूर पहाड़ियों ने इस आवाज़ को दबोच कर दुबारा हवा में उछाल दिया। मेरे जी में आई कि मैं भी इस आवाज़ को गेंद की तरह दबोच लूं और हमेशा के लिए अपनी जेब में डाल लूं।

    मैं ठहर गया। वही मानूस दिल नवाज़ सदा थी जो इससे क़ब्ल मैं कई मर्तबा सुन चुका था। बज़ाहिर “ए बकरी बकरी” तीन मा’मूली लफ़्ज़ हैं और काग़ज़ पर ये कोई ऐसा तसव्वुर पेश नहीं करते जो अनोखा और हसीन हो मगर वाक़िया है कि मेरे लिए इनमें वो सब कुछ था जो रूह को मसरूर कर सकता है। जूंही ये आवाज़ मेरी समाअ’त से मस होती मुझे ये मालूम होता कि पहाड़ की छाती में से सदियों की रुकी हुई आवाज़ निकली है और सीधी आसमान तक पहुंच गई है।

    “ए” बिल्कुल धीमी आवाज़ में और “बकरी बकरी” बलंद और फ़लक रस सुरों में। एक लम्हे के लिए ये नारा-ए-शबाब पहाड़ियों की संगीन दीवारों में गूंजता डूबता, उभरता, थरथराता और रबाब के तारों की आख़िरी लरज़िश की तरह काँपता फ़िज़ा में घुल मिल जाता।

    काली काली बदलियां छा रही थीं। फ़िज़ा नम-आलूद थी। हवा के झोंकों में इस नमी ने ग़नूदगी की सी कैफ़ियत पैदा कर दी थी। मैंने ऊपर पहाड़ी पर उगी हुई हरी हरी झाड़ियों की तरफ़ देखा और उन के अ’क़ब में मुझे दो तीन सफ़ेद बकरियां नज़र आईं... मैंने ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया। एक मुँह ज़ोर बकरी वज़ीर को घसीटे लिये जा रही थी और वो उसको डांट बताने के लिए, “ए बकरी बकरी” पुकार रही थी।

    उसका मुँह ग़ुस्सा और ज़ोर लगाने के बाइ’स पिघले हुए तांबे की रंगत इख़्तियार कर गया था। बकरी के गले में बंधी हुई रस्सी को पूरी ताक़त से खींचने में उसका सीना ग़ैर मा’मूली तौर पर उरियां हो गया था। सर पीछे झुका था, दोनों हाथ आगे बढ़े हुए थे, सर पर से दुपट्टा उतर कर बाहों में चला आया था। पेशानी पर स्याह बालों की लटें बल खाती हुई संपोलियां मालूम हो रही थीं।

    एक सब्ज़ झाड़ी के पास पहुंच कर बकरी दफ़अ’तन ठहर गई और उसके नर्म नर्म पत्तों को अपनी थूथनी से सूँघना शुरू कर दिया। ये देख कर वज़ीर ने इतमिनान का सांस लिया और अपना उतरा हुआ दुपट्टा एक बड़े से पत्थर पर रख कर उसने पास वाले दरख़्त के तने से बकरी के गले में बंधी हुई रस्सी बांधी और दूसरे पेड़ की झुकी हुई टहनी पकड़ कर झूला झूलने लगी।

    मैं झाड़ियों के पीछे खड़ा था। बाज़ू ऊपर उठाने के बाइ’स उसकी खुली आस्तीन नीचे ढलक आई। कपड़े के ये छिलके से जब उतरे तो उसके बाज़ू कंधों तक उरियां हो गए। बड़ी ख़ूबसूरत बाहें थीं। यूं मालूम होता था कि हाथी के दो बड़े दाँत ऊपर को उठे हुए हैं। बेदाग़, हमवार और ज़िंदगी से भरपूर।

    वो झूला झूल रही थी और उसके दोनों बाज़ू कुछ इस अंदाज़ से ऊपर की जानिब उठे हुए थे कि मुझे ये अंदेशा लाहक़ हुआ कि वो आसमान की तरफ़ परवाज़ कर जाएगी। झाड़ियों के अ’क़ब से निकल कर मैं उसके सामने गया। दफ़अ’तन उसने मेरी तरफ़ निगाहें उठाई। सिटपिटाई, टहनी को अपने हाथों की गिरफ़्त से आज़ाद कर दिया। गिरी, सँभली और हलक़ में से एक मद्धम चीख़ निकालती दौड़ कर दुपट्टा लेने के लिए पत्थर की तरफ़ बढ़ी... मगर दुपट्टा मेरी बग़ल में था।

    उसने दुपट्टे की तलाश में ये जानते बूझते कि वो मेरी बग़ल में है, इधर उधर देखा और मुस्कुरा दी। उसकी आँखों में हया के गुलाबी डोरे उभर आए। गाल और सुर्ख़ हो गए और वो सिमटने की कोशिश करने लगी। दोनों बाज़ूओं की मदद से उसने अपने सीने की शोख़ियों को छुपा लिया और उन्हें और ज़्यादा छुपाने की कोशिश करती वो पत्थर पर बैठ गई। इस पर भी जब उसे इतमिनान हुआ तो उसने घुटने ऊपर कर लिये और बिगड़ कर मुझेसे कहने लगी, “ये आप क्या कर रहे हैं। मेरा दुपट्टा लाईए।”

    मैं बढ़ा और बग़ल में से दुपट्टा निकाल कर उसके घुटने पर रख दिया। मुझे उसके बैठने का अंदाज़ बहुत पसंद आया। चुनांचे मैं भी उसी तरह उसके पास बैठ गया। उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि वज़ीर, जवान आवाज़ों का एक बहुत बड़ा अंबार है और मैं... और मैं ख़ुदा मालूम क्या हूँ। उसको हाथ लगाऊंगा तो वो बाजे की तरह बजना शुरू हो जाएगी। ऐसे सुर उसमें से निकलेंगे जो मुझे ऊपर बहुत ऊपर ले जाऐंगे और ज़मीन और आसमान के दरमियान किसी ऐसी जगह मुअ’ल्लक़ कर देंगे जहां मैं कोई आवाज़ सुन सकूँगा।

    वज़ीर ने मुझे जंगली बिल्ली की तरह घूर कर देखा गोया कहना चाहती है, अब जाओ, यहां धरना दे कर क्यों बैठ गए हो। मैंने उसके इस ख़ामोश हुक्म की कोई परवा की और कहा,“चश्मे से वापस रहा था कि तुम्हारी आवाज़ सुनी, बे-इख़्तियार खिंचा चला आया। वज़ीर, तुम्हारी ये आवाज़ मुझे यक़ीनन पागल बना देगी... जानती हो पागल आदमी बड़े ख़तरनाक होते हैं।”

    मेरी ये बात सुन कर उसको हैरत हुई, “ये क्या पागलपन है... मेरी आवाज़ किसी को क्यों पागल बनाने लगी।”

    मैंने कहा, “जैसे कुछ जानती ही नहीं हो... दुनिया में ये राग-रागनियां कहाँ से आई हैं, लेकिन छोड़ो इस क़िस्से को। ये बताओ, मेरी एक बात मानोगी?”

    “मान लूंगी, पर आप ये तो कहिए बात क्या है?”

    “एक दफ़ा मेरी ख़ातिर,’ए, बकरी बकरी’, का नारा बलंद कर दो।”

    मुझे हाथ से धक्का दे कर उसने तेज़ लहजे में कहा, “ये क्या पागलपन है। बनाने के लिए सिर्फ़ एक मैं ही रह गई हूँ।”

    “वज़ीर, बख़ुदा मैं तुम्हें बना नहीं रहा। मुझे तुम्हारी ये आवाज़ पसंद है। झूट कहूं तो... ले अब मान भी जाओ, बस एक बार!”

    “जी नहीं।”

    “मैं तुम से इल्तिजा करता हूँ।”

    “मैंने ये आवाज़ कभी निकाली है और अब निकालूंगी।”

    “मैं एक बार फिर दरख़्वास्त करता हूँ।”

    “या अल्लाह... ये क्या मुसीबत है।” वज़ीर ने अपना बदन सुकेड़ लिया, “और अगर मैं मानूं तो... या’नी ये भी क्या ज़रूरी है कि मैं इसी वक़्त आपके कहने पर बेकार चिल्लाना शुरू कर दूँ। आप तो ख़्वाह-मख़्वाह छेड़ख़ानी कर रहे हैं और मैं निगोड़ी जाने क्या समझ रही हूँ... भई होगा, हमें ये मज़ाक़ अच्छा नहीं लगता।”

    “वज़ीर!” मैंने बड़ी संजीदगी के साथ कहा, “मेरी तरफ़ देखो, मेरे चेहरे से तुम इस बात का इतमिनान कर सकती हो कि मैं हंसी मज़ाक़ नहीं कर रहा।”

    उसने मेरे चेहरे की तरफ़ मस्नूई ग़ौर से देखा और मेरी नाक पर उंगली रख कर कहा, “आपकी नाक पर ये नन्हा सा तल कितना भला दिखाई देता है।”

    उस वक़्त मेरे जी में आई कि उस पत्थर पर जिस पर वो बैठी हुई है मैं नाक घिसना शुरू कर दूँ ताकि वो नन्हा सा तिल हमेशा के लिए मिट जाये। वज़ीर ने मेरी तरफ़ देखा तो वो ये समझी कि मैं रूठने का इरादा कर रहा हूँ, चुनांचे उसने फ़ौरन अपनी बकरियों की तरफ़ देखा और मुझ से कहा, “बाबा, आप ख़फ़ा हो जिए...”

    क़रीब था कि वो अपनी मख़्सूस आवाज़ बुलंद करे कि एका एकी झिजक उस पर ग़ालिब आगई। बहुत ज़्यादा शर्मा कर उसने अपनी गर्दन झुका ली, “पर मैं पूछती हूँ, इसमें ख़ास बात ही क्या है।”

    मैंने बिगड़ कर कहा, “वज़ीर, तुम अब बातें बनाओ।”

    दूसरी तरफ़ मुँह कर के उसने एका की बलंद आवाज़ में “ए, बकरी बकरी” पुकारा। इसके बाद शर्मीली हंसी का एक फ़व्वारा सा उसके मुँह से छूट पड़ा। मैं बलंदियों में परवाज़ कर गया... कितनी साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ आवाज़ थी। धुली फ़िज़ा में उसकी गूंज देर तक, दूर नज़र से ओझल हो जाने वाले परिन्दों के परों की तरह चमकती रही, फिर जज़्ब हो गई।

    वज़ीर की तरफ़ मैंने देखा, अब वो ख़ामोश थी। उसका चेहरा ग़ैरमा’मूली तौर पर साफ़ था। आँखें नहाती हुई चिड़ियों की तरह बेक़रार थीं। हँसने के बाइ’स उनमें आँसू भर आए थे। होंट इस अंदाज़ से खुले हुए थे कि मेरे होंटों में सरसराहट पैदा हो गई। ख़ुदा मालूम क्या हुआ... मैंने वज़ीर को अपने बाज़ूओं में ले लिया। उसका सर मेरी गोदी में ढलक आया... लेकिन एका एकी ज़ोर से वो अपना बाज़ू मेरे झुके हुए सर और अपने मुतहैयर चेहरे के दरमियान ले आई और धड़कते हुए लहजे में कहने लगी, “हटाईए, हटाईए इन होंटों को!”

    मेरी गोद से निकल कर वो भाग गई और मेरे होंटों की तहरीर नामुकम्मल रह गई।

    इस वाक़िए को एक ज़माना गुज़र चुका है, मगर जब कभी मैं उसको याद करता हूँ मेरे होंटों में सूईयां सी चुभने लगती हैं... ये नामुकम्मल बोसा हमेशा मेरे होंटों पर अटका रहेगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : دھواں

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए