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गुलिस्तान

MORE BYसज्जाद हैदर यलदरम

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी औरत की कहानी है, जो अपनी बेटी को मर्द ज़ात से बचाने के लिए उसे हर ऐश-ओ-आराम मुहय्या कराती है। लड़की भी अपनी सहेलियों और आराम-तलब ज़िंदगी से खु़श होती है। एक रोज़ नदी पर टहलते हुए उसका जी इन सब चीज़ों से उकता जाता है और वह कुछ नया पाने के लिए तड़प उठती है।

    आज से दस पन्द्रह बरस का माजरा है, बह्र-ए-हिंद में एक जज़ीरा था जो अब नापैद है, चाँदनी रात थी, सत्ह-ए-आब पर सुकून-ए-मुतलक़ तारी था और उस सुकून पर चाँद अपनी शुआएँ डाल रहा था, फ़िज़ा में ख़ामोशी, बे-पायाँ समुंदर, डरावनी तन्हाई, वहशत-अंगेज़ सुकूत, कोई सदा नहीं, कोई असर-ए-हयात नहीं, एक ग़ैर-महदूद मगर रौशन तन्हाई, एक मह्शर-ए-सुकून।

    ये आलम है, चाँद ख़ामोशी के साथ गोया सोच रहा है, मौजें भी सोच रही हैं, चाँद की किरणों के सैलाब से बचा हुआ साया सोच रहा है, बादलों के मुंतशिर टुकड़े सोच रहे हैं, ऐसा मालूम होता है कि हवा, उस ख़ामोशी का भेद चुपके-चुपके समुंदर के कान में कहना चाहती है और नहीं कह सकती, समुंदर का सीना साँस लेने की कोशिश करना चाहता है। तमाम मौजूदात में गोया एक करवट लेने की ख़्वाहिश मालूम होती है, ऐसा मालूम होता है कि इस बे-पायाँ सुस्ती और सुकूत में अगर कहीं से ज़रा सी सदा भी जाए तो दुनिया हँस पड़ेगी, उछल पड़ेगी।

    नसरीं नोश जज़ीरे के दामन में, समुंदर की रेत पर एक सर्द ज़र्रीं की तरह जो ज़मीन पर गिर पड़ा हो, लेटी हुई थी कि मौजों में कुछ हरकत पैदा हुई, और वो नसरीन नोश के उरयाँ जिस्म, चाँद जैसे उरयाँ जिस्म पर, गर्दन पर, बालों में गुज़रने लगीं, इधर सलसबील क़मर उसके बदन पर पड़ रही थी, उधर छोटी-छोटी मौजें एक दूसरे को हटाती आती थीं और उस सीमीं तन के कभी बालों में से गुज़रती थीं, कभी उसके गोरे बाज़ुओं से लिपटती थीं, और उसके बोसे ले लेकर आगे चली जाती थीं और फिर लौट कर आती थीं और बहर से मोती ला-ला कर उसके पाँव पर निसार करके निहायत ताज़ीम और एहतिराम के साथ वापस जाती थीं।

    नसरीं नोश एक पुर लुत्फ़ थकन से, एक बेहोश नशा से आहिस्ता-आहिस्ता बेदार हुई, उसके चारों तरफ़ जो परियाँ हाला बनाए खड़ी थीं, उनपर नज़र डाली और अपने लाल लबों से बर्क़-ए-तबस्सुम गिरा के कहा,मेरी पीठ मलो। इसपर चंद ख़ुदामा तामील-ए-हुक्म में मसरूफ़ हुईं, और उसके बाद चंद और परियाँ जो रेशमी तौलिया, चादर वग़ैरा लिए खड़ी थीं, उन्होंने उसके बाज़ुओं, सीना और पाँव को पोछना और बालों को सुखाना शुरू किया, नसरीं नोश उस शाहराह ज़र्रीं को जो चाँद ने उस तक बना रखी थी, देखने और मौजों की अर्गन को सुनने लगी।

    इतने में एक क़िस्म की छोटी परियाँ, सदफ़ बहर की बनी हुई नफ़ीरियाँ और दफ़ और सारंगी और सितार ग़रज़ कि पूरा साज़ लिए हुए नसरीं नोश के गिर्द उड़ने और सितार बजाने लगी, नसरीं नोश उठ खड़ी हुई और माहताब की तरफ़ हाथ बढ़ा के उस रात के लिए उसे ख़ुदा हाफ़िज़ कहा और अपनी सहेलियों के कभी कंधों पर हाथ रख के, कभी हाथ में हाथ डाल के, फूलों से छुपे हुए रास्ते पर नसीम की तरह ख़िराम नाज़ से चलना शुरू किया। उस वक़्त फूल झुक-झुक के सलाम करते थे, और एक दूसरे से मिल कर गोया तालियाँ बजाते, बनफ़शा उसके पाँव चूमने और रौंदे जाने की तमन्ना से रास्ता में पड़ता था, नसरीं नोश पाँच मिनट तक चली होगी कि एक काशाना-ए-बिल्लौर में दाख़िल हुई।

    चाँद का अक्स उस महल की कुल दीवारों और सेहन के फ़व्वारे पर पड़ता था, और उस फ़व्वारा नूर से एक ज़मज़मा, रूह नवाज़ पैदा हो रहा था, हौज़ के किनारे लेमू, नारंगी, तुरंज के पौदे फूलों से लदे हुए दिमाग़ को फ़रहत दे रहे थे, ये सब एक दस्तर ख़्वान पर बैठ गईं, ज़बर जद के तबाक़ों में तरह-तरह के खाने और मेवे लाए गए, ख़ुरमे, अनार, अंगूर, सेब, शिकार के गोश्त, मछलियाँ लाई गईं, लाले के प्यालों में शराब, शरबत-ए-गुलाब पिए गए। हौज़ के दूसरी तरफ़, नाचने वालियों, गाने वालियों ने एक हलक़ा बांधा और रबाब, निर्मार, बरब्त, सितार पर नसरीं नोश की हुस्न और अदा की तारीफ़ में क़सीदे, ग़ज़लें, ठुमरियाँ, गानी शुरू कीं।

    गाना जो एक जुए रवाँ की तरह मुसलसल था। उधर सहेलियों ने छेड़ख़ानी शुरू की, रफ़्ता-रफ़्ता लालों, और फूलों को फेंक के लड़ाई शुरू हुई, और थोड़ी देर में फूलों से ज़ख़्म खा-खा के परियाँ गिरने लगीं। लज़ीज़ शराब के नशे से, नसरीं नोश हँसती हुई एक सहेली की गोद में गिर पड़ी और अपने होंट चूस-चूस कर नज़र इस तरह दूर-दूर डालने लगी गोया आलम-ए-ख़्याल में है, सहेलियाँ अपनी मालिका के हाथ चूम-चूम के उसके बालों की ख़ुशबू से दिमाग़ मुअत्तर कर-करके शराब का एक-एक घूँट पीती थीं। नशे का ख़ुमार चढ़ना शुरू हुआ था कि नाचने वालियों को फिर हुक्म हुआ। साज़ पर परियों का एक ख़ास नाच, एक रक़ीक़, नाज़ुक, नूरानी नाच नाचा गया।

    वो गुलाबी, चंपई, धानी, रेशमी साड़ियाँ जो परियों के सुडौल जिस्मों से लिपटी हुई थीं, वो नाच के चक्करों में मिल कर तरह-तरह के नए रंग पैदा करती थीं, परियाँ तेज़ी हल्की परवाज़ की तरह इधर-उधर से इधर ठुमक-ठुमक के आती-जाती थीं, कभी वो एक दूसरे से मिलें कभी अलैहदा हो जाएँ, कभी दो के दरमियान में से तीसरी गुज़र जाए, कभी हलक़ा बंध जाए, कभी टूट जाए, इस मिलने, जुदा होने, चक्कर खाने से रंग और नूर का इन्हिलाल और इज्तिमा ऐसा मुख़्तलिफ़ होता जैसे हश्त पहलू शीशे में आफ़ताब की किरनें गुज़र रही हों, उन परियों का थिरक-थिरक कर मिलना, फिर तितर बितर हो जाना, शानों का मिलना, बालों का सह्र-ए-सुँबुल की तरह लहराना, नाज़ुक कमरों का लचके खाना, झुक-झुक के दोहरा हो जाना, ये सब बातें सलेस-ओ-बलीग़ गत्तों से (जो साज़ंदे परियाँ बजा रही थीं) मिल कर एक नशा आवर नज़र पेश करती थीं कि कान मूसीक़ी और रक़्स में तमीज़ नहीं कर सकते थे और आँख नहीं बता सकती थी कि आया मूसीक़ी रक़्स कर रही है, या रक़्स नग़मा साज़ है, क्या हो रहा है।

    नसरीं नोश उन तमाम तमोव्वुजात-ए-रक़्सओ-आहंग को एक सहेली सुबह-ए-ख़ंदाँ के ज़ानू पर सर रखे हुए एक बे परवा, ला उबालियाना निगाह से देख रही थी, और ऐसा नज़र आता था कि वो उन चीज़ों की तरफ़ ज़्यादा मुल्तफ़ित नहीं, क्योंकि उसकी निगाह किसी दूर नुक़्ते पर गड़ी हुई थी, ये टीप टॉप, ये नाच-गाना, वो रात-दिन देखती थी, इसलिए उसकी रूह ख़ुफ़ता को जगाने या उसके दिल में हरकत पैदा करने के लिए ये काफ़ी था।

    उस रात महल में दाख़िल होने को उसका दिल चाहा! उसकी तबियत में चाँद को देख-देखकर ये उमंग पैदा हुई थी कि उसके उरयाँ जिस्म से जा कर लिपट जाए। वो उसे टकटकी बांधे देख रही थी, सहेलियों ने उसकी तबियत के बहलाने के लिए लतीफ़े, कहावतें, बूझ, पहेलियाँ कहनी शुरू कीं कि चाँद और सूरज में कैसी दोस्ती है, शहद की मख्खियाँ, फूलों से क्या कहा करती हैं, भौंरा चम्बेली के कान में क्या भुनभुनाया करता है, यहाँ तक कि आहिस्ता-आहिस्ता उन नूरानी आँखों में नींद आनी शुरू हुई। उसके नर्म जिस्म को सहला-सहला के, उसके दिमाग़ को थपका-थपका कर, हल्के बादलों के नीचे भागते हुए चाँद को पेश-ए-नज़र कर के, ग़रज़ कि अजब-अजब धोके दे-दे के, नींद उसकी आँखों में चुपके से आगई और उन घनी पलकों को मिला दिया।

    नसरीं नोश का नींद में जाना था कि नाच बंद कर दिया गया, लतीफ़े, पहेलियाँ ख़त्म हो गईं, सिर्फ़ ये बल्कि फ़व्वारे बंद हो गए, वो अंदलीब जो पिंजरे में बैठी गा रही थी, चुप हो गई, हवा की सनसनाहट बंद हो गई ताकि नसरीं नोश आराम से सोए, तमाम रात रामिश गर परियाँ, सहेलियाँ दबे पाँव अलैहदा हो गईं, घुंगरू आहिस्ता-आहिस्ता उतार डाले गए, इतने में सफ़ेद बाज़ुओं वाली छोटी-छोटी परियाँ हल्क़े बांध के आईं और नसरीं नोश के गिर्द उड़ने लगीं। उनके परों से कोई आवाज़ निकलती थी, ये परियाँ नसरीं नोश की निगहबान थीं।

    दो तीन मिनट के बाद एक बुढ़िया दरख़्तों से निकल के जरीब पटकती हुई आहिस्ता-आहिस्ता नसरीं नोश के पास आई और नसरीं नोश के बदन पर जो चादर डाल दी गई थी, उसे चेहरे पर से हटा कर ग़ौर से देखने लगी, उसके सूखे चेहरे पर आसार-ए-इतमीनान ज़ाहिर हुए, और अल-हम्दो लिल्लाह कह के जैसी आई थी वैसी ही ग़ायब हो गई। ये नसरीं नोश की माँ थी, अपनी लड़की को निहायत एहतियात, और बद-गुमानी से रखती थी, और इस तरह हर शाम को आकर तहक़ीक़ात करती थी।

    ये मुअम्मर औरत सोचा करती थी कि मेरे बालों को सफ़ेद करने वाले, मेरे दाँतों को गिराने वाले, मेरे चेहरे को ख़राब करने वाले, ये मर्द ही तो हैं, इनके ज़ुल्म ही तो हैं, अपनी औलाद को इन मुसीबतों से बचाऊँगी, इसीलिए मैं इस लड़की को इस जज़ीरे में लाई हूँ, उसे खेल तमाशा दिल बहलावे, हँसी दिल-लगी, आराइश-ओ-नुमाइश सब कुछ दूँगी, लेकिन मर्द क्या शय है, ये जानने दूँगी। वो फ़लाकत जिसका नाम मर्द है उसके क़रीब जाने दूँगी। लेकिन अगर डर है तो इतना कि मुझे इत्तिला हुए बग़ैर इस जज़ीरे में कोई मर्द जाए, बहर हाल इस वक़्त तो मेरी कुल तदबीरें मुकम्मल हैं और मेरे दिल को इत्मीनान है।

    माहताब, धीमा हो होके ग़ायब हो गया, मगर नसरीं नोश के जिस्म नाज़ुक को तुलूअ आफ़ताब के सुपुर्द करता गया, सफ़ेद बाज़ुओं वाली निगहबान परियाँ हट गईं और उनके बजाय सहेलियाँ और गाने वालियाँ गईं जिन्होंने नर्म-ओ-नाज़ुक आवाज़ से उसे जगाने के लिए प्यारी रागिनियाँ गाना शुरू कीं, थोड़ी देर में नसरीं नोश ने अपनी मख़मूर आँखें खोल दीं, और अंगड़ाइयाँ लेती हुई और अपने परेशान बालों को सँवारती हुई उठ बैठी, फिर एक साफ़-शफ़्फ़ाफ़ नहर के किनारे नीलोफ़र के फूलों की एक चौकी पर जाकर बैठ गई। परियाँ भी आकर उसके गिर्द जमा हो गईं। मश्शाता परियों ने नसरीं नोश का सिंगार किया, नसरीं नोश नहर के साफ़ पानी में अपने अक्स जमाल को देख रही थी, तितरियाँ एक दूसरे का पीछा करती हुई उड़ रही थीं, नहर की रवानी से नर्म सदा पैदा हो रही थी, सहेलियों ने फिर हँसी की बातें शुरू कीं, जिनको सुन-सुन कर वो प्यारे बारीक होंट तबस्सुम में खिल-खिल जाते थे।

    सहेलियों और ख़ादिमा परियों के नाम गुल चकाँ, ज़ुहरा जबीं, नाज़ आफ़रीं, मौज नूर, बा'ज़ों के नाम फूलों पर मसलन नीलोफ़र, सुसन वग़ैरा, बा'ज़ों के परिंदों के ऊपर, मसलन ताऊस ख़िराम, कुबुक अदा वग़ैरा थे। और उन सबके नाम और उनवान के मुनासिब उनका लिबास था।

    सिंगार के बाद, उस सुबह के लिए एक ख़ास रंग का लिबास पहन कर नसरीं नोश नीलोफ़र के पत्तों की किश्ती में बैठ कर सहेलियों के साथ थोड़ी दूर तक नहर में गई, फिर ये सब किनारें पर पहुंचीं, जहाँ बिल्लौर और फूलों की एक बग्घी तैयार खड़ी थी, उस बग्घी में दो मादा सीमुर्ग़ जुती हुई थीं और इस इंतज़ार में कि उनकी मालिका बग्घी पर सवार होगी आमादा रवानगी खड़ी थीं। जुए रवाँ के कंधे पर हाथ रख कर नसरीं नोश गाड़ी में सवार हुई, और बूए रवाँ को अपने पास बिठा कर दयार-ए-गुल को चलने का हुक्म दिया। इस हुक्म के सुनते ही चंद छोटी-छोटी परियों ने जो छोटे-छोटे बिगुल लिए खड़ी थीं, कोच का बिगुल बजाया। और इस तुज़्क-ओ-एहतिशाम के साथ सवारी रवाना हुई। सामने ताऊस, कबूतर, क़ुमरियाँ, तूती नाचते, हवा में उड़ान भरते, गाते चहचहाते और तरह-तरह के तमाशा करते जाते थे। सड़क पर फूल की पत्तियाँ, गुलाल और चाँदी के ज़र्रे बिखरे हुए थे जो पहियों के चलने से उड़-उड़ कर गाड़ी के बिल्लौरी पहियों में परिंदों के परों में जम जाते थे, और उस क़ाफ़िले पर क़ौस-ए-क़ज़ह का रंग पैदा हो जाता था।

    आफ़ताब उफ़ुक़ से अपने नूरानी बालों को सँवारता हुआ, कुछ ऊँचा हुआ था, कि ये क़ाफ़िला इस बलदा शे'र-ओ-ख़्याल में जिसे नसरीं नोश ने दयार-ए-गुल कहा था, पहुँचा। यहाँ की वादी हक़ीक़तन वादी-ए-गुल थी, नसरीं नोश की तशरीफ़ आवरी की ख़ुशी में तमाम ग़ुंचे एक दम खिल गए और उनकी ख़ुशबू निकल-निकल के उसके जिस्म को, कंधों को, चेहरे को अहाता करके चूमने लगी। नसरीं नोश गाड़ी पर से उतरी। इतने में सहेलियाँ, नौकरानियाँ, और साज़िंदे वग़ैरा भी पहुँच गए। अब नसरीं नोश ने उस ज़मान-ओ-मकान लताफ़त में आहिस्ता-आहिस्ता चलना शुरू लिया, सहेलियाँ ताज़ीम और एहतराम के अंदाज़ से उसके साथ-साथ चल रही थीं, ऊँचे दरख़्त भी उस मल्लिका मलाहत के सामने झुक-झुक कर उसकी ख़िदमत में फूल पेश करते थे, और नसरीं नोश उन फूलों को अपने उन प्यारे हाथों से (जिनमें और फूलों में सिर्फ़ इस क़दर फ़र्क़ था कि ये फूलों से ज़्यादा ख़ूबसूरत थे) छू-छू कर सहेलियों को एक अज़मत आमेज़ नीम ग़मज़ा से हुक्म करती थी कि इन्हें तोड़ो। ज़ुहरा जबीं, गुल चकाँ की गोद उन फूलों से भर गई, उन फूलों का एक ताज बनाया गया, जिसे नसरीं नोश ने पहना।

    ग़रज़ कि इस तरह, नसीम-ए-सुबह के साथ और नसीम-ए-सुबह की मानिंद सब आहिस्ता-आहिस्ता चल के एक ऊँचे मौक़े पर पहुंचीं जो मतला आफ़ताब के मुक़ाबिल था। नसरीं नोश खड़ी होकर आफ़ताब की तरफ़ झुकी और सीधी हो गई। ज़ाँ बाद अपने हाथ को चूम कर गोया एक बोसा भेजा, ये एक आईन आफ़ताब परस्ती था। बोसे के भेजते ही सहेलियाँ हंस-हंस के, दौड़-दौड़ कर, एक दूसरे से लिपट-लिपट के, बालों में फूल लगा के, हाथों में फूलों के पंखे हिला-हिला के, नाज़ुक कमरों में बल दे-दे कर, आँखों को शरारत से फिर फिरा के, नसरीं नोश के गिर्द चक्कर लगाने लगीं। फिर खड़ी होकर आफ़ताब की शान में गाने गाने लगीं, फिर उन सबने हाथों में हाथ डाल कर कभी हवा में उड़ कर, कभी ज़मीन पर पाँव मार के आफ़ताब के लिए एक मस्ताना नाच नाचा, और एक दिलरुबा गाना गाया, इस गुल-बाँग रक़्स-ओ-आहंग की लताफ़त में दरख़्त भी झूम-झूम के, नसीम आहिस्ता-आहिस्ता चल के शरीक हुई, फूल, दरख़्त, हवा, सब हालत-ए-वज्द में गए।

    नसरीं नोश उस नशा-ए-शे'र की कैफ़ियत से लज़्ज़त-याब मालूम होती थी, और उस आईन आफ़ताब परस्ती में दिल से शरीक थी, आख़िर में उसको ख़त्म किया, लेकिन ऐसा मालूम होता था कि उसके ख़त्म करने पर परियाँ दिल से राज़ी नहीं थीं क्योंकि आईन ख़त्म होते ही दरख़्तों की शाख़ों में फूलों में बने हुए झूले डाले, और उड़-उड़ के एक झूले से दूसरे झूले पर जाना, झूलना, हँसना और कूदना उछलना शुरू किया। एक मुद्दत तक इस तरीक़े से वक़्त गुज़रा। आख़िरकार नसरीं नोश फिर गाड़ी पर सवार हुई और उसी इंतज़ाम के साथ वापस हो कर काशाना-ए-बिल्लौर में जो दस्तरख़्वान खानों से हाज़िर था, उसपर मअ सहेलियों के बैठी।

    ग़रज़ कि दिन इस तरह गुज़रते थे। अक्सर नसरीं नोश सुबह के खाने के बाद क़ैलूला करती थी, और तीसरे पहर को शिकार के लिए निकलती थी, नाज़ुक प्यारे हाथों में तीर कमान लेकर कभी-कभी मश्क़ तीर अंदाज़ी करती थी, कभी ग़ुरूब-ए-आफ़ताब के क़रीब साहिल बहर पर ग़ुस्ल के लिए जाती थी और तीर अंदाज़ी के बाद थकन उतारने के लिए गुलाब या बनफ़शा का उबटन मल के समुंदर में नहाती थी, रात को सहेलियों को बुलाके गाना, पहेलियाँ, कहानी वग़ैरा से दिल बहलाती थी, कभी कोई बहस शुरू हो जाती और ये ज़मज़मा मुकालमा कभी पुर हिद्दत हो जाता, गोया साज़ ज़ोर से बजा, कभी आहिस्ता-आहिस्ता बातें होते-होते ख़ामोशी तारी हो जाती, गोया बाद-ए-नसीम फूलों में हल्के-हल्के चल के रुक गई, चाँदनी रात होती तो एक-दो सहेलियाँ साथ लेकर सैर को निकल जाती, उस वक़्त नसरीं नोश का चलना, उस लहर के पानी की मानिंद होता था, जो बिल्लौर की ज़मीन पर बह रही हो और जिसके पानी मुअत्तर नसीम जुंबिश दे रही हो, जिसके किनारे फूल खिले हों, और बुलबुलें उड़ रही हों।

    नसरीं नोश पाँच बरस की थी जब इस जज़ीरे में पहले पहल आई, तेरह बरस से इस तरह, ख़ुशबुओं में, आराम में, नाज़ नअम में, बे फ़िक्रियों में लाड़ प्यार में, ज़िंदगी बसर कर रही है, और मजहूल ग़ैर तबस्सुम ख़्यालात में मुस्तग़रिक़ रह कर, दिन हँसी के साथ, और रात मुतबस्सम ख़्वाब में गुज़ारती है। लेकिन एक सुबह ख़िलाफ़-ए-मामूल उसके दिल में एक जलन महसूस हुई, उठी, काशाना-ए-बिल्लौर के क़रीब जो नहर बहती थी उस तक गई, और नहर के अंदर जा कर लेट गई और देर तक उसमें बे हरकत पड़ी रही, फिर निकल के और बदन को सुखा के सफ़ेद रेशमी बिस्तर पर जा लेटी।

    नसरीं नोश पर एक सख़्त नींद ग़ालिब हुई और वो शाम तक सोती रही, यहाँ तक कि सूरज ढला, सूरज की शुआएँ उसपर आकर पड़ीं और वो जागी, उस वक़्त उसकी तबियत एक ऐसी शय चाहती थी, एक ऐसे मुब्हम वजूद की आरज़ू कर रही थी जो उसके बाज़ुओं को पकड़े, कमर को संभाले, उसके जिस्म को उठा ले, एक ग़ैर मानी तमन्ना उसके दिल में पैदा हो रही थी, और उसका दिल चाहता था कि एक ज़ात, एक वजूद आए, जो उसपर क़ादिर हो, जो उसपर हावी हो।

    उसने देखा कि उसके पास एक सफ़ेद बुर्राक़ हँस फिर रहा है, उसे ही उसने गोद में ले लिया, और उसके सफ़ेद सीने को अपने धड़कते हुए सीने से लगा लिया, और उसकी गर्दन को अपनी गर्दन से मिला दिया, और अपनी तमाम क़ुव्वत से उसे भींचना शुरू किया, और इस तरह परिंदे के नर्म परों में अपनी आँखों को कुछ खोले, कुछ बंद किए बदन को झुकाए देर तक बे हरकत पड़ी रही।

    नसरीं नोश उन ख़ुशबुओं से, उन रंगों से, उन फूलों से, उन खेल तमाशों से उकता गई थी, और उनसे छुटकारा चाहती थी, अब फूलों का उसपर निसार होना, उसकी रूह को मशग़ूल करता था। नाचने वालियों के नाच और उश्वे और ग़मज़े उसके दिल को बहलाते थे, सहेलियों का उसके बदन को मलना, उसे आराम देता था, वो एक शय तलाश करती थी, उसे वो नहीं जानती थी कि वो क्या होगी और क्या होगी। एक मुब्हम चीज़ चाहती थी जो उसे दुख दे, उसके दिल में दर्द पैदा करे, एहसास पैदा करे, उसे मसल डाले, एक ऐसी पुर क़ुव्वत, पुर जुरअत शय के बावजूद उसके हुस्न-ओ-जमाल के, बावजूद इसके कि वो जज़ीरे की मल्लिका थी, उससे दबे, उसके रोब में आए, बल्कि उसे पकड़े, उसे मारे, टुकड़े कर डाले।

    स्रोत:

    Dilchasp Kahaniyan (Pg. 25)

      • प्रकाशक: हिन्दुस्तान बुक डिपो, लखनऊ

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