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पहला पत्थर

बलवंत सिंह

पहला पत्थर

बलवंत सिंह

MORE BYबलवंत सिंह

    स्टोरीलाइन

    बुनियादी तौर पर यह कहानी औरत के यौन शोषण की कहानी है, लेकिन लेखक ने इसमें तक़सीम के वक़्त की सूरत-ए-हाल और सांप्रदायिकता का नक़्शा भी खींचा है। सरदार वधावा सिंह की बड़ी सी हवेली में ही फ़र्नीचर मार्ट और प्रिंटिंग प्रेस है, जिसके कारीगर, सरदार की दोनों पत्नियाँ, शरणार्थी देवी दास की तीनों बेटियाँ, सरदार के दोनों बेटे आपस में इस तरह बे-तकल्लुफ़ हैं कि उनके बीच हर तरह का मज़ाक़ जारी है। सरदार की दोनों पत्नियाँ कारख़ाने के कारीगरों में दिलचस्पी लेती हैं तो कारीगर देवी दास की बेटी घिक्की और निक्की को हवस का निशाना बनाते हैं। चमन घिक्की से शादी का वादा कर के जाता है तो पलट कर नहीं देखता। जल कुक्कड़ निक्की को गर्भवती कर देता है और फिर वो कुँवें में छलाँग लगा कर ख़ुदकुशी कर लेती है। साँवली अंधी है, उसको एक शरणार्थी कुलदीप गर्भवती कर देता है। साँवली की हालत देखकर सारे कारीगरों के अंदर हमदर्दी का जज़्बा पैदा हो जाता है और कारख़ाने का सबसे शोख़ कारीगर बाज सिंह भी ममता के जज़्बे से शराबोर हो कर साँवली को बेटी कह देता है।

    तब शास्त्री और फ़रीसी एक ‘औरत को लाए जो बदकारी में पकड़ी गई थी और इस को बीच में खड़ा कर के कहा

    उस्ताद ये ‘औरत बदकारी करती हुई पकड़ी गई है।

    मूसा के क़ानून के मुताबिक़ ऐसी ‘औरत को संग-सार करना जायज़ है। सो तू इस ‘औरत के बारे में क्या कहता है?

    जब वो इससे पूछते रहे तो उसने सीधे हो कर उनसे कहा, “तुम में से जिसने कोई गुनाह किया हो। वो पहले इसको पत्थर मारे।

    (यूहना रसूल, आयत 403, 775)

    (1)

    रंदा हाथ से रखकर बाज सिंह ने चौकन्ने तीतर की तरह गर्दन दरवाज़े से बाहर निकाली और एक नज़र शाही अस्तबल पर डाली... कोई ख़ास चीज़ दिखाई नहीं दी। हालाँकि उसे शुबह यही हुआ था कि घुक्की बड़े दरवाज़े में खड़ी किसी को आवाज़ दे रही थी। वो इस ख़याल से उठा था कि अँधेरे में घुक्की की एक-आध चुम्मी ले लेना मुश्किल होगा।

    “शाही अस्तबल” दर-अस्ल अस्तबल नहीं था बल्कि ये सरदार विधावा सिंह की शानदार हवेली थी जिसे बाज सिंह ‘उर्फ़ बाज और उसके चेले-चाँटे शाही अस्तबल के नाम से पुकारते थे। हवेली की सबसे बड़ी ख़ूबी थी उसकी कुशादगी। ये हवेली एक बहुत बड़े संदूक़ के मानिंद थी। छत का तूल-ओ-‘अर्ज़ इतना कि पूरी बारात के लिए चारपाइयाँ बिछाई जा सकती थीं। बड़े-बड़े हाल कमरे, दरवाज़े आठ-आठ फुट ऊँचे। इन हाल कमरों में ‘अज़ीमुल-जुस्सा सरदार विधावा सिंह फ़ील-पा के बा’इस ज़ख़्मी शेर की तरह ऐंढ-ऐंढ कर चला करते थे। हवेली का एक हिस्सा लेबल प्रिंटिंग प्रैस के लिए वक़्फ़ था। इसके ‘इलावा हवेली के अंदर की जानिब बड़े दालान के गोशे में नानक फ़र्नीचर मार्ट के मालिक भी सरदार-जी ही थे। फ़र्नीचर का कारख़ाना यहाँ था और शोरूम हवेली की दूसरी तरफ़ या’नी ‘ऐन बर-लब-ए-सड़क।

    बाज हैड मिस्त्री था। हाथ की सफ़ाई और हरमज़दगी की “चुस्ती” के बा’इस सब कारिंदों का, ख़्वाह वो कारख़ाने के हों या प्रैस के, वो उस्ताद समझा जाता था। हवेली के बग़ल में सड़क की जानिब चंद दुकानें थीं मा’ मकानात के। ये सब सरदार-जी की मिल्कियत थीं। आख़िर उनके आबा-ओ-अज्दाद जालंधर शहर ही में रहते आए थे। इसलिए इतनी सी जायदाद का बन जाना ग़ैर-मा’मूली बात नहीं थी।

    जब 1947 के आग़ाज़ में मग़रिबी पंजाब के मुसलमान भाईयों ने अपने कराड़ और सिख भाईयों का नाका बंद कर दिया तो रिफ़्यूजियों की एक बड़ी ता’दाद मशरिक़ी पंजाब में गई। उनमें घुक्की का बाप देवीदास भी था। पेशे के ए’तिबार से वो बनिया था। चुनाँचे सरदार-जी ने हवेली के बिल्कुल बग़ल वाला दुकान और मकान अज़-राह-ए-करम उसे किराया पर दे डाला और वो वहाँ पंसारी की दुकान करने लगा। उसकी बीवी को मुसलमान भाईयों ने हलाक कर दिया था। लेकिन उसका अपनी तीन जवान लड़कियों समेत सही सलामत निकल आना मो’जिज़े से कम नहीं था। उनमें से सबसे बड़ी का नाम घुक्की, उससे छोटी का नाम निक्की और सबसे छोटी का साँवली था। साँवली अंधी थी।

    घुक्की ख़ूबसूरत और बाँकी लड़की थी। मौक़ा’ पाकर सबसे पहले बाज सिंह ने उसकी चुम्मी ली थी। बोसा लेने के सिलसिले में खुल जा सिम-सिम तो बाज ने की, लेकिन इसके बा’द बाक़ी लोगों का रास्ता भी साफ़ हो गया। इसमें अमीर-ओ-ग़रीब की तख़्सीस नहीं थी। सरदार साहिब के बेटे, उन बेटों के दोस्त और कारिंदे वग़ैरह सब एक-आध चुम्मी की ताक में रहते। ये बात नहीं थी कि उनमें से हर एक का दाव चल ही जाता हो। बा’ज़ तो दूर ही से चटख़ारे लेने वालों में से थे। क्योंकि घुक्की ब-क़ौल लेबल काटने वाले चरण के ‘बड़ी चलती पुर्ज़ी’ थी। पट्ठे पर हाथ नहीं रखने देती थी किसी को और तो और ख़ुद बाज सिंह जो बड़ा दीदा-दिलेर और घसड़म-घसाड़ क़िस्म का आदमी था, चुम्मी से आगे बढ़ पाता था, तो भला दूसरों को वो क़रीब कहाँ फटकने देती थी।

    मायूस हो कर बाज सिंह होंटों पर ज़बान फेरते हुए कारख़ाने के दरवाज़े ही में खड़ा रह गया। उसके बाज़ू कोहनियों तक लकड़ी के बुरादे से सने हुए थे। पैंतालीस बहारें देखने के बा’द भी उसका बदन इकहरा और मज़बूत था। सूरत घिनावनी होने से बाल-बाल बची थी। मूँछो के बाल झड़ बीड़ी के काँटों की तरह हो गए थे। होंट मोटे। एक आँख में फोला। ऊँट के कोहान की तरह नाक के नथुनों में से बाल बाहर निकल आया करते थे, जिन्हें वो चिमटी से खींच डालता। आज से दस बरस पहले उसकी बीवी मर गई। बीवी के छः महीने बा’द उसकी इकलौती बच्ची भी चल बसी।

    वहाँ खड़े-खड़े बाज ने देखा कि जिस हलचल का उसे एहसास हुआ था, वो बिल्कुल बे-मा’नी नहीं थी। क्योंकि हवेली के यके-बा’द-दीगरे चार दरवाज़ों से परे बाहर वाले बरामदे में बर्क़ी रोशनी हो रही थी। लकड़ी के छोटे से फाटक में से कुछ सामान अंदर लाया जा रहा था। जिससे ज़ाहिर होता था कि ज़रूर कोई नया मेहमान आया है। जब से मग़रिबी पंजाब में गड़बड़ शुरू’ हुई थी, सरदार जी के यहाँ काफ़ी मेहमान रहे थे। कुछ ‘अर्सा पहले उनके एक हिंदू दोस्त अपने बाल बच्चों समेत गए, उनका एक नौजवान लड़का था। चमन...

    उसकी गर्दन मोर की सी थी और आँखें सुर्मीली। वो भी घुक्की को दिलचस्पी की नज़रों से देखता था। बाज के चेले-चाँटों का ख़याल था कि घुक्की भी उस पर मरती थी। बाज के दिल में हसद पैदा नहीं हुआ। वो इन चीज़ों से बाला-तर था, कहता, “अरे हमारा क्या है। हमने आते ही घुक्की की चुम्मियाँ लेकर उसे कानी कर डाला। अब चाहे टुंडा लाट भी उसकी चुम्मी लिया करे हमारे... से।”

    ये कह कर वो अपनी एक साबित और दूसरी फोला मारी आँख से सब के चेहरों का जायज़ा लेता। जब चमन के घर वाले अलग मकान लेकर रहने लगे तो फिर भी सरदार-जी के यहाँ चमन की आमद-ओ-रफ़्त जारी रही। इधर बाज ने घुक्की से ज़ियादा उसकी छोटी बहन निक्की को अपनी तवज्जोह का मर्कज़ बनाया।

    दरवाज़े में खड़े-खड़े पहले तो बाज के दिल में आई कि जाकर नए मेहमानों को देखे। शायद कोई “लुंडिया” भी उनमें शामिल हो लेकिन आज-कल काम बहुत आया हुआ था, जिसे जल्द-अज़-जल्द ख़त्म करना ज़रूरी था। “हटाओ”, उसने दिल ही दिल में कहा, “सुब्ह सब कुछ सामने जाएगा।”

    (2)

    दूसरे रोज़ आँख खुली तो बाज ने जलता-फुंकता सूरज अपनी पेशानी पर चमकता हुआ पाया। इधर ये हड़बड़ा कर उठा, उधर बड़ी सरदारनी हस्ब-ए-मा’मूल भूरी भैंस की तरह कद्दू-कद्दू भर छातियाँ थुलथुलाती, सीना-ज़ोरियाँ दिखलाती आग जलाने के लिए बुरादा लेने के वास्ते छाज हाथ में पकड़े उसकी जानिब बढ़ी। बड़ी सरदारनी के जिस्म का हर ‘उज़्व अपने नुक़्ता-ए-‘उरूज तक पहुँच चुका था। या’नी जो चीज़ जितनी मोटी, जितनी भद्दी, जितनी कुशादा हो सकती थी, हो चुकी थी, चलती तो यूँ मा’लूम पड़ता जैसे तनूर ढाँपने वाले चापड़ को पाँव लग गए हों।

    ऐसी डबल-डोज़ सरदारनी भी सरदार जी के लिए ना-काफ़ी साबित हुई। चुनाँचे उन्हें एक छोटी सरदारनी भी कहीं से उड़ा कर लानी पड़ी। लेकिन जब से उनके फ़ोतों में पानी भर आया था, तब से उन्होंने सरदारनियों से तवज्जोह हटा कर हर-रोज़ कई-कई घंटे मुसलसल गुरु-बानी के पाठ पर मर्कूज़ कर दी थी। मौक़ा’ मिलने पर बड़ी सरदारनी ज़रूरत से ज़ियादा देर तक बाज के पास खड़ी रहती। क्योंकि बाज निहायत मिस्कीन बन कर कई बार कह चुका था, “प्रोढी सरदारनी! आप बयालिस बरस की तो नहीं दिखाई देतीं जी... जी आप तो मुश्किल से तीस बरस की दिखाई देती हैं।”

    इस पर बड़ी सरदारनी दिल ही दिल में चहक उठतीं और गैन (ग) की तरह मुँह बनाकर फ़रमातीं, “हट वे पराँ। कौन कहता है मैं बयालिस बरस की हूँ।”

    इसके बा’द वो दरवाज़े से कंधा भिड़ाए जमी खड़ी रहतीं। एक टाँग सीधी रखतीं और दूसरी टाँग को धीरे-धीरे हरकत देती रहतीं। ढके हुए पपोटों तले दबी हुई पुतलियाँ बाज के चेहरे पर जमाए रखतीं। बाज दिल ही दिल में सोचता कि घुक्की की कमर तो बड़ी सरदारनी की पिंडली से भी पतली होगी।

    बिल-आख़िर जब सरदारनी टूटे हुए झाज में बुरादा भर कर लौटीं तो उनके पिछवाड़े का नज़ारा देखकर बाज के मुँह से बे-इख़्तियार निकल गया, “बल्ले-बल्ले।”

    फिर अपने एक नौजवान साथी बौंगे से मुख़ातिब हो कर बोला, “क्यों बौंगेया! अगर सरदार जी फैल बे-जंजीर हैं तो सरदारनी भी वो चट्टान है जो जितनी जमीन से बाहर है, उससे चार गुना जमीन के अंदर धँसी हुई है।”

    ये कह कर उसने फ़लाह की दातुन मुँह में डाली तो उसकी चरमराहट से उसका बदसूरत चेहरा और ज़ियादा भद्दा हो गया। बौंगे ने जवाब दिया, “अबे तू सरदार जी को क्या समझता है। अगर सरदारनी चार गुना ज़मीन के अंदर है तो सरदार जी दस गुना जमीन में दफ़्न हैं।”

    बाज ने बैठे-बैठे मरियल बौंगे को लात रसीद करते हुए कहा, “वे चल वे मुओं दिया मुतराड़ा।”

    जो बात याद आई तो फिर बोला, “पर बौंगिया घुक्की की कमर तो सरदारनी की पिंडली से भी कम मोटी होगी...”

    “तो फिर?”

    “ना-ना... सोचो भला इतनी पतली कमर... बहुत पतली कमर है जार! इतना नाजुक लक।”

    “ओ बई!”, बौंगे ने मुश्फ़िक़ाना अंदाज़ में कहना शुरू’ किया, “औरत की कमर में बड़ी ताक़त होती है। मर्द की सारी ताक़त छाती में और ‘औरत की कमर में होती है।”

    “हच्छा!”, घाग बाज ने गाल के अंदर ज़बान घुमाई। इसी अस्ना में चमन भी उधर निकला। वो हर वक़्त चमकता रहता था। बाछों में से हँसी यूँ फूटी पड़ती थी जैसे वो रेवड़ियाँ खा रहा हो। चलता तो लहरा के। बात करता तो बल खा के। बौंगे ने कहा, “ले भई घनैय्या जी तो गए।”

    “गोपी भी आती ही होगी।”, बाज ने छिदरे दाँतों की नुमाइश की और मुँह से टपकती हुई राल को ब-मुश्किल रोका। बौंगे ने पहले तो चमन को दिल-फेंक अंदाज़ से देखा और फिर एक आँख बंद करके दूसरी आँख बाज की बग़ैर फोले वाली आँख से मिलाई और घी में डूबी हुई आवाज़ में बोला, “जार! जे लौंडिया भी गोपी से कम नमकीन नहीं है।”

    बाज ने एक और लात रसीद की, “बड़ा ठर्की है बे तू।”

    बौंगे ने भाव बना कर गाना शुरू’ किया, “वे भगत लुबूब कबीर भी तो फ़र्मा गए हैं कि वे कच्चा मंडारन दुर्गा...”

    ‘ऐन उस वक़्त छोटी सरदारनी भी कूल्हे मटकाती धम-धम करती दरवाज़े से निकल कर सेहन में आन पहुँचीं। कहने को तो वो छोटी सरदारनी थीं लेकिन डील-डौल के लिहाज़ से अगर बड़ी बीस थीं तो वो उन्नीस। यूँ मा’लूम होता था जैसे धुनिए ने मनों रूई धनक कर हवा में उड़ा दी हो। अलबत्ता नुक़ूश तीखे थे। रंग निखरा हुआ था। चेहरा चिकना-चुपड़ा। अगले दो दाँतों में सोने की मेख़ें।

    मशहूर था कि वो सरदार जी की ब्याहता नहीं थीं। ब-क़ौल बाज कुछ जेर-जबर मु’आमला था। बावुजूद मोटापे के छोटी सरदारनी की बोटी-बोटी थिरकती थी। बड़ी सरदारनी को हालात ने ज़रा फ़लसफ़ी बना दिया था और हालात ही ने छोटी सरदारनी को “चल-चल चम्बेली बाग़ में मेवा... अलख़” बना दिया था। यही वज्ह थी कि बड़ी सरदारनी के सामने लौंडे लौंडियाँ आपस में हँसी-ठिठोल करने से कतराती थीं। लेकिन छोटी सरदारनी के सामने खुले बंदों छेड़-छाड़ का बाज़ार गर्म रहता। गर्मा-गर्मी में छोटी सरदारनी की कमर में भी एक-आध चुटकी भर ली जाती, जिस पर वो नौ-ख़ेज़ लड़की के मानिंद कुलबुलाती बल खाती और खिलखिलाती थीं।

    वो रंगीन महफ़िलों की जान थीं। उनकी ‘उम्र अगरचे पैंतीस से तजावुज़ कर चुकी थी, ताहम सरदार जी अब भी उनकी निगरानी करते थे। क्योंकि छोटी सरदारनी चलती तो झमकड़े के साथ, बैठती तो झमकड़े के साथ। उसकी बे-तकल्लुफ़ाना महफ़िलों में आँखें लड़ाने, चुटकियाँ लेने और हाय-वाय करने के मवाक़े’ बड़ी आसानी से फ़राहम हो जाते थे। शाज़-ओ-नादिर वो एक-आध बद-तमीज़ी पर चीं-बर-जबीं भी हो जातीं तो सब लड़के और लड़कियाँ उन्हें मनाने लगते। उनके बदन को सहलाया जाता। उनसे लिपट-लिपट कर ख़ुशामदें की जातीं। आख़िर-कार वो मन जातीं।

    चुनाँचे अब जो वो सेहन में दाख़िल हुईं तो गोया नसीम-ए-सहरी की तरह आईं और अपने हम-रकाब सिर्फ़ बू-ए-चमन लाईं बल्कि अपने ओट में नर्गिस, नसरीन और गुलाब वग़ैरह भी लाईं या’नी घुक्की, निक्की और साँवली और दीगर लड़कियाँ भी उनके पीछे छिपी-छिपी रही थीं। मक़सूद इससे हाज़िरीन को त’अज्जुब-अंगेज़ मसर्रत बहम पहुँचाना था। वही बात हुई कि दफ़’अतन “वे” के शोर से फ़िज़ा गूँज उठी और कच्चे कुँवारे क़हक़हों की मुसलसल मौसीक़ी से सारा सेहन रसमसा गया। इन सबसे दूर, सड़क वाले कमरे में किसी जटाजूट सन्यासी की तरह पाठ करते हुए सरदार-जी के कान भी इन आवाज़ों से थरथराए, पेशानी के ख़ुतूत गहरे हो गए। उन्होंने जल्दी से अपने बड़े बड़े-दाँतों पर होंट फुसला कर बेचैनी से पहलू बदला वार ग़ुर्रा कर कहा, “बाहेगुरू नाम जहाज़ है, जो चढ़े सो उतरे पार।”

    (3)

    दातुन की आख़िरी मंज़िल पर पहुँच कर बाज ने बड़ा कनस्तर उठाया और सेहन के पर्ले गोशे में दस्ती नलके के क़रीब पहुँचा। अब फ़िज़ा निस्बतन पुर-सुकून थी। कुछ लोग तो छोटी सरदारनी को घेरे थे, बाक़ी अपने-अपने मशाग़िल में महव थे। कनस्तर नलके के नीचे रखकर बाज ने दस्ती के दो-चार हाथ ही चलाए होंगे कि सामने से निक्की जल्द-जल्द क़दम उठाती हुई उसकी जानिब आई और आते ही बोली, “कनस्तर उठाओ तो...”

    बाज की ख़ुशी का भला क्या ठिकाना था। दातुन चबाते-चबाते उसका मुँह रुक गया। आँखों के गोशे शरारत और हरमज़दगी के बा’इस सिमट गए।

    “नी गुड़िए की गल ए।”

    “ए देख गल-वल कुछ नहीं। कनस्तर हटा झटपट।”

    बाज ने दाँत पीस कर हाथ फेंका। लेकिन मा’लूम होता है कि निक्की पहले ही से तैयार थी। झप से पीछे हट कर बदन चरा गई और नीम-मा’शूक़ाना अंदाज़ से चिल्ला कर बोली, “हम क्या कह रहे हैं कनस्तर हटाना।”

    “अरी कनस्तर से क्या बैर है... हमारी हर चीज़ से बिदकती हो।”

    “पानी पिएँगे।”

    बाज ने कनस्तर हटा दिया, “लो जानी पियो और जियो। जियो और पियो।”

    निक्की ने नल के नीचे हाथ रख दिया और क़द्रे इंतिज़ार के बा’द इंजन की सीटी की सी आवाज़ में चिल्लाई, “ए हे... दस्ती हिलाओ।”

    बाज ने सूफ़ियाना रम्ज़ के साथ जवाब दिया, “तुम ही हिलाओ दस्ती...”

    “देखो तंग मत करो।”

    “अरी नाम निक्की है तो इसका ये मतबल तो नहीं कि तू सच-मुच निक्की (छोटी) है।”

    “छोटी नहीं तो क्या बड़ी हूँ।”, निक्की ने निचला होंट ढीला छोड़कर शिकायत-आमेज़ निगाह उस पर डाली। अब बाज ने बड़ी फ़राख़-दिलाना हँसी हँसकर दस्ती हिलाना शुरू’ की। पानी पी कर निक्की भागने लगी तो बाज ने फ़ौरन उसकी कलाई दबोच कर हल्का सा मरोड़ा दे दिया।

    “उई।”

    “क्या है?”

    “मेरी कलाई टूट जाएगी

    “यहाँ दिल जो टूटा पड़ा है।”

    “छोड़ ना! कोई देख लेगा।”

    “अरी कभी हमसे भी दो बात कर लिया कर।”

    “कहा ना, कोई देख लेगा।”

    “तू फिर आएगी हमारे पास।”

    “मैं नहीं जानती।”

    एक और मरोड़ा। निक्की को वाक़’ई सख़्त तकलीफ़ हो रही थी। जान छुड़ाने के लिए बोली, “अच्छा जाऊँगी।”

    “पक्का वा’दा।”

    “हाँ।”

    “मार हाथ पर हाथ।”

    हाथ पर हाथ मारा गया।

    “अच्छा देख अब कलाई छोड़े देता हूँ, पर एक शर्त है... तू भागेगी नहीं।”

    “अच्छा नहीं भागूँगी। छोड़ अब। कोई देख लेगा।”

    “बस दो मिलट बात कर ले हमसे। जाद रखियो जो हमें धोका दिया तो बाँस पर लटका दूँगा।”

    हाथ छूटने पर निक्की नन्ही सी ख़ुश-वज़’ नाक चढ़ाए और अब्रू पर बल डाले नीम रज़ा-मंदी से रुकी रही और जब कि बाज इस नज़्ज़ारे से लुत्फ़-अंदोज़ हो रहा था, वो ठुमक कर बोली, “कह अब।”

    “बात करती हो कि ढेले मारती हो।”

    “अब जो तुम समझो। जल्दी से बात कह डालो। इत्ता बख़्त (वक़्त) नहीं है।”

    “बख़्त (वक़्त) नहीं है। क्या किसी जारे से मिलने जाना है।”

    “धत। कोई सुन लेगा। तुम बड़े...”

    “बड़े किया?”

    “बदमास हो।”

    “हाय सरीप-जादी... कभी-कभार बदमास से भी एक-आध बात कर लिया कर... अच्छा निक्की ये बता कि तेरी ‘उम्र कित्ती है।”

    “सोलह बरस।”

    “कैसी मीठी ‘उम्र है।”

    “होगी। बस जाएँ अब।”

    “घुक्की की भला क्या ‘उम्र होगी?”

    “मुझसे डेढ़ साल बड़ी होगी।”

    “और साँवली...”

    “चौदह की होगी।”

    “लेकिन निक्की तू तो चौदह की भी नहीं दीखती।”

    “दिखती कैसे नहीं।”

    “जरा नजीक (नज़दीक) आना देखूँ।”

    “हट।”

    “आजकल मस्ती झाड़ रही हो। पहले तो घुक्की ही थी। अब तुमने भी पर निकाल लिए हैं... तुम क्या अब तो साँवली भी रंग दिखला रही है।”

    “अरे देख साँवली को कुछ मत कहियो। वो बेचारी अंधी है। उससे बुरी-भली बात मत करना।”

    “अरी निक्की जवानी बिन बोले बात करती है। उसको अंधी कहती हो। खुद मजा उड़ाती हो... लो वो रही साँवली। चुप-चाप दरवज्जे में बैठी है।”

    सेहन के दूसरे कोने में दरवाज़े की दहलीज़ पर अंधी साँवली अलग-थलग चुप-चाप बैठी थी। निक्की ने उधर देखा तो बाज ने पूछा, “साँवली जनम से अंधी है क्या?”

    “नहीं।”

    “तो कैसे हुए अंधी।”

    “देखो बेकार-बेकार बातें करते हो। हम जाते हैं।”

    “ठहरना जरा। बता तो दे।” बाज ने इसरार किया। वो क़ुर्ब-ए-यार को तूल देने के लिए बे-मा’नी बातें किए जा रहा था।

    “भई हम कुछ नहीं जानते। लाला (बाप) कहता है कि वो बचपन में अंधी हो गई थी। अब मैं क्या जानूँ। लो हम चले।”

    “अरे हैं दरवज्जे में साँवली के पास कौन खड़ा है?”

    निक्की चलते-चलते रुक गई, “हम नहीं जानते।”

    बाज बाछों को ख़ूब खींच कर हँसा।

    “तुझे मा’लूम नहीं... सभी तो तेरे जार हैं।”

    “देख हमसे बकवास मत कर... हम उसे क्या जानें। रात ही तो आया है।”

    “अरे रात वाला... अच्छा-अच्छा याद आया। मैंने उस वक़्त अंदर से सर निकाला। सच निक्की मैं समझा तुम हो... लेकिन निक्की तुम...”

    निक्की ने झुँझला कर क़दम बढ़ाते हुए कहा, “लो हम चले।”

    इस पर बाज ने ज़ोर से नाक साफ़ की और दस्ती हिलाने लगा।

    (4)

    लड्डू सरपट भागता हुआ आया और कारख़ाने के दरवाज़े के दोनों पट इस क़दर धमाके के साथ खोले कि अंदर काम करते हुए बाज और उसके साथियों के हाथ रुक गए। वो क़द्रे हैरान हो कर उसका मुँह तकने लगे कि लड्डू लेबलों की गड्डियाँ बाँधनी छोड़कर बे-वक़्त यहाँ कैसे आन टपका। अंदर पहुँच कर लड्डू को इस बात का एहसास हुआ कि इस क़दर धमाके से अपनी आमद के जवाज़ के लिए जो मवाद उसके पास है वो काफ़ी और मुनासिब है भी या नहीं। बहर-हाल उसने हाँपते हुए गर्दन घुमा कर सबकी तरफ़ देखा और बोला, “जारो आज बड़ी मजे की बात देखने में आई।”

    मज़े की बात! इस वक़्त ग्यारह बजने को थे। कारीगर मुसलसल काम कर रहे थे। इसलिए वो मज़े की बात सुनने के मूड में थे। उधर बाज सिंह ने सुब्ह बासी मट्ठे से सर धोया था। उसके बालों से अभी सड़ी लस्सी की बिसांद दूर नहीं हुई थी। उसने भी मौक़ा’ ग़नीमत जाना कि मज़े की बात सुनने के साथ-साथ वो बालों में कंघा कर लेगा। इस तरह जब उसके बालों के अंदर तक हवा पहुँचेगी तो बाल सूखने के साथ बिसांद भी दूर हो जाएगी। चुनाँचे उसने अपना फावड़ा सा कंघा उठाया और उसे दाढ़ी में उड़स कर बोला, “अबे लड्डू माओं के मितराड़, जब से तू पैदा हुआ है, आज तक तूने कोई मजेदार बात नहीं सुनाई लेकिन आज तो मैंडकी को भी ज़ुकाम वाली मिसाल तुझ पर लागू होती है... अच्छा बोल बेटे। बिजोरे।”

    हालात मुवाफ़िक़ पाकर बाक़ी कारीगर भी पिंडे खुजाते हुए लड्डू के क़रीब गए। उनमें मूनों (मुंडे हुए सर) वालों ने बीड़ियाँ जला कर दाँतों में दाब लीं। इस ग़ैर मुतवक़्क़े’ ख़ुश-आमदीद से लड्डू की जान में जान आई। उसने खिखिया कर एक बेड़ी तलब की... जो क़द्रे नाक-भौं चढ़ाने के बा’द दे दी गई। अब लड्डू ने बड़े एहतिमाम के साथ बीड़ी को जलाया।

    ये तवक़्क़ुफ़ हाज़िरीन के लिए नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त होता जा रहा था। बाज ने दौलती रसीद करने के अंदाज़ से पाँव ऊपर उठाते हुए कहा, “वे भैन के बैगन जल्दी से उगल डाल। साले हम तेरे बेबे के नौकर तो नहीं हैं कि बैठे मुँह तकते रहें तेरा...”

    “जार आज बड़े मजे की बात हुई।”, लड्डू ने इस तरह बात शुरू’ की जैसे उबलते हुए पानी की केतली का ढकना भक से उड़ जाए।

    “आज सुब्ह जब बाज निक्की से... बाज निक्की से...”, बाज ने ख़ूँख़ार तेवर बनाकर कहा, “वे तेरी बहन को चोर ले जाएँ... हमारी ही बात मिली सुनाने को...”

    “नईं-नईं जी।”, लड्डू ने ख़ालिस पंजाबी लहजे में हल्क़ से घिसा कर आवाज़ निकाली, “पादशाहो आपकी बात नहीं है। वो तो घुक्की की बात है।”

    एक कारीगर ने इशारा कर के साथियों से कहा, “ये चोंगा भी ठर्की है और घुक्की पर ठरक झाड़ने वालों में शामिल है, हाँ तो बरखु़र्दार क्या बात है घुक्की की...”

    “ओ जी जब छोटी सरदार अखबार में लगी हुई मास्टर तारा सिंह की तस्वीर सबको दिखा रही थीं तो घुक्की और चमन की नजरें मिलीं... मैं देख रहा था चुपके से।”

    “तू तो देखा ही करता है घुक्की को, पर साले चमन ने जितनी चुम्मियाँ ली हैं तूने उत्ती ठोकरें खाई होंगी घुक्की की।”

    इस पर लड्डू ने रूठने के अंदाज़ से मुँह बिसोरा तो किसी ने हम-दर्दी जताई, “भई ऐसा मत कहो बिचारे को। घुक्की की ठोकरों में क्या कम मजा है। कइयों ने तो ठोकर भी खाई होगी उसकी... हाल तो बोल बेटा बोल... बोल बिजूरे बोल।”

    “बस फिर क्या था। आँखों ही आँखों में इशारे हुए, अब्रू हिले और फिर घुक्की बड़ी मसूमी के साथ उठकर ठुमक-ठुमक चल दी।”

    “कहाँ छत को।”

    “अबे नहीं... उस बक्त तो वो अपने घर को गई। थोड़ी देर बा’द चमन ने कहा कि जरा पखाने जाऊँगा। सरदारे (सरदार-जी) का बड़ा लड़का ने खाँस कर कहा। बई जल्दी आना। जाने पखाने में बंद क्या करते हो। इस पर चमन बड़ी मीठी हँसी हँसता हुआ पिछले कमरे में चला गया जहाँ से कि छत को सीढ़ियाँ जाती हैं।”

    एक दो ने जमाही लेकर कहा, “अबे लड्डू के घुसे। ये सब पुरानी बातें हैं, रोज का क़िस्सा है...”

    “अबे सुन तो।”, लड्डू ने सरज़निश की, “सबकी नजर बचा कर मैं भी गया पीछे और बई जब ऊपर पहुँचा तो देखा कि सीढ़ियों का दरवज्जा बंद है। बस बई ये देखकर मेरी फूंक निकल गई।”

    बाज हिंसा, “साले तेरी फूंक तो अच्छी तरह निकलनी चाहिए फूल के गुब्बारा हो रहा है।” लड्डू ने सुनी इन-सुनी करते हुए सिलसिला कलाम जारी रखा, “पहले तो मैं समझा कि दरवज्जे के पास ही खड़े होंगे, मगर कोई आवाज सुनाई नईं दी। दराड़ में से झाँका तो छत पर भी कोई सूरत नहीं दिखाई दी। फिर मैंने सोचा कि जरूर बरसाती के अंदर बैठे होंगे

    “बड़ी जसूसी दिखाई तूने।”

    लड्डू ने बीड़ी का कश लिया, “मैंने नीचे ऊपर से हाथ डाल कर चटकनी सरका दी। ये देखो मेरी बाना पर ख़ून जम गया है...”

    “आगे बोल।”

    “छत पर से होता हुआ मैं बरसाती की तरफ़ बढ़ा। ईंटों की जाली में से देखा कि वो दोनों अंदर चारपाई पर कुछ बैठे और कुछ लेटे हैं।”

    एक कारीगर बोला, “लेकिन घुक्की वहाँ कैसे पहुँची।”, लड्डू को उसकी हिमाक़त पर बड़ा रहम आया, “जार तुम भी बस... छत से छत मिली हुई जो है।”

    “बई तो बड़ा अक्लबंद (‘अक़्लमंद) है। अब आगे चल।”

    “बस आगे क्या पूछते हो, बड़े मजे में थे दोनों। घुक्की का मुँह तो लाल-भबुका हो रहा था। इत्ती प्यारी लग रही थी कि जी चाहा कि बस जा कर लिपट ही जाऊँ।”

    “वाह-रे बिजूरे।”, बाज बोला, “अब तो एह बात पक्की हो गई कि मु’आमला चुम्मी-चाटी तक ही नहीं है... अच्छा फिर क्या हुआ?”

    “बड़े प्रेम की बातें हो रही थीं। चमन ने घुक्की के मुँह के आगे से बाल हटा कर खूब भींच-भींच कर...”

    “अरे ये सब तो हुआ ही होगा। जेह तो बता कि बातें भी हो रही थीं कुछ? जेह तो मा’लूम हो क्या इरादे हैं उनके।”

    “फिर घुक्की ने बड़े प्यार से उसके गले में बाँहें डाल कर पूछा, चमन तुम सच-मुच मुझी से प्यार करते हो... चमन ने मोर की तरह गर्दन हिलाई और बोला, सच-मुच।

    “मुझे अकीन नहीं आता।”

    “जालिम। जालिम। अरी हम तो जान फ़िदा करते हैं।”

    घुक्की ने ये सुनकर सर नीचा कर लिया और गहरी सोच में डूब गई। इस पर चमन ने फिर उसे समेट कर अपनी गोद में ले लिया और कहने लगा, “कहो तो आसमान से तारे तोड़ लाऊँ, कहो तो अपनी छाती चीर कर... घुक्की ने उसके होंटों पर उँगली रख दी और फिर ऐसे बोली जैसे सुफ़ने में बोल रही हो, “तुम तारे मत तोड़ो। अपनी छाती मत चीरो... मुझे... मुझे अपनी दासी बना लो।”

    “दासी! दासी? अरे तुम रानी हो रानी। दास तो हम हैं तुम्हारे।”

    “घुक्की कुछ देर चुप रही। फिर बोली, तुम मेरा मतबल नहीं समझे। मुझसे सादी कर लो ना।”

    “जेह सुनकर चमन बिदक गया। जैसे घुक्की खूबसूरत लड़की नहीं, नागिन हो और वो उसे बड़ी ‘अजीब नजरों से देखने लगा। उस बख़्त घुक्की का सर झुका हुआ था। साली अपने ख़याल में मगन बोली, मैं गरीब की लड़की हूँ। हर कोई मुझे भूकी नजरों से देखता है। हर कोई मुझे खाना चाहता है... घर से बाहर पाँव रखना मुस्किल हो गया है। फिर भी मैंने इज्जत बचा कर रखी है। मगर तुम्हारे आगे मेरा कोई बस नहीं चला। सोचो अगर मुझे कुछ हो गया तो?”

    “जेह कह कर उसकी आँखों से आँसू टप-टप गिरने लगे। इस पर चमन ने उसका हाथ थाम लिया... अरी वाह रोती काहे को है। बे-फ़िक्र रहो, तुम्हें कुछ नईं होगा। प्रेम में ऐसी बातें दिन-रात होती रहती हैं। तुम बड़ी वहमन हो।”

    “मगर मैं तुम्हारी हो चुकी हूँ। सदा के लिए तुम्हारी। जेह कह कर उसने अपने पीले रंग के कुर्ते से आँखें पोंछीं लेकिन आँसू नहीं थमते थे। हिचकियाँ भरती हुई बोली, चमन मैं ‘उम्र-भर तुम्हारे पाँव धो-धो कर पियूँगी। तुम्हारी नौकर रहूँगी। तुम्हारे इशारे पर नाचूँगी। लाला को मेरी बड़ी फ़िक्र लगी है। माँ है नहीं। मैं ही सब में बड़ी हूँ। मुझे छोटी बहनों का भी ख़याल करना है। मैं तुम्हारी मिन्नत करती हूँ। मुझे छोड़ना नहीं।”

    “एहे हे, तुम्हें कौन छोड़ता है। पगली हुई हो क्या?”

    “इस पर घुक्की ने भीगी आँखों से चमन की तरफ़ देखा और बोली, नईं तुम वा’दा करो कि मुझसे सादी कर लोगे... मैं बड़ी मुँहफट हूँ। बे-सरमी मु’आफ़ करो। मुझे अपनी बना लो। मैं ख़ूब पढ़ लिख लूँगी और जैसा तुम कहोगे वैसा ही करूँगी।”

    “जेह कहते-कहते घुक्की का सर झुक गया और उसने मद्धम आवाज में पूछा, “कहो मुझी से सादी करोगे और जब उसने फिर चमन की तरफ़ देखने को सर उठाया तो चमन ने झट से उसका सर दबा कर छाती से लगा लिया, “हाँ हाँ भई। तुझी से सादी रचाऊँगा। अरी तुम में कमी किस बात की है। तुम सुंदर हो। हजारों में एक हो... लो अब चलें तुम भी घर को जाओ। नहीं तो नीचे वाले सक करेंगे।”

    “जेहा सुनकर मैं बगटुट भागा वहाँ से।”

    (5)

    दोपहर के वक़्त गर्मी की वो शिद्दत होती थी कि क्या कारख़ाने और क्या प्रैस के कारीगर सभी काम छोड़कर अलग बैठ जाते। दिन का ये हिस्सा सबसे ज़ियादा दिलचस्प होता था। फ़ुर्सत का समाँ होता था। हवेली जी भर कर कुशादा थी। छोटे बड़े मुत’अद्दिद कमरे, उनमें ऊँची-ऊँची अलमारियाँ, कुर्सियाँ, मेज़ें, पलंग, संदूक़... ग़रज़ आँख-मिचौली खेलने का पूरा सामान मयस्सर था। बाज सिंह तनूर से रोटी खा कर तो सीधा हवेली के अंदर दाख़िल हो गया। बड़े सरदार जी के सिवा हस्ब-ए-मा’मूल सभी लोग मौजूद थे लेकिन बड़ी सरदारनी सबसे अलग-थलग पहले बड़े कमरे में बिराजमान थीं। दूसरे कमरे में हँसी-ढिढोल और ख़ुश-गप्पियों की आवाज़ें रही थीं।

    आज तनूर पर रोटी खाने का बाज को कुछ मज़ा नहीं आया था। दाल में कंकर, राशन के आटे में रेत। तनूर वालों की ऐसी-तैसी कर के पेट भरे बग़ैर ही वो लौट आया था। जब वो हवेली में दाख़िल हुआ तो क़ुदरती तौर पर सबसे पहले उसकी निगाह सरदारनी पर पड़ी। त’अज्जुब आज वो पान चबा रही थी। छोटी सरदारनी तो ख़ैर हर खाने के बा’द एक ‘अदद पान कल्ले में दबा लेतीं। जाने कहाँ से लत लगी थी उन्हें। बड़ी सरदारनी को पान चबाते हुए उसने पहली बार देखा था। उनकी बाछों और होंटों पर गहरे सुर्ख़-रंग की तह जमी हुई थी। नज़रें चार होते ही बड़ी सरदारनी इस क़दर बे-दरेग़ अंदाज़ में मुसकुराईं कि एक-बार तो बाज बिदक गया लेकिन फिर सँभल कर वहीं ईंटों के फ़र्श पर बैठ गया और अपने टख़नों और पिंडलियों पर से लकड़ी का बुरादा झाड़ने लगा।

    बड़ी सरदारनी ने उसकी जानिब चौकी धकेलते हुए कहा, “हाव हाय जमीन पर काहे बैठते हो, चौकी पर बैठो।”

    “नहीं बड़ी सरदारनी ईंटें ठंडी लग रही हैं, मजा रहा है। अच्छा करें हैं आप जो दोपहर को फर्श पर पानी फिकरादे हैं। सच बड़ी सरदारनी दूर की सूझे है आपको... सच।”

    ये सुनकर सरदारनी ने चाहा कि मारे ख़ुशी के फूली समाए लेकिन अब और फूलने की गुंजाइश ही कहाँ थी। चुनाँचे उसने पहले तो कमाल-ए-इन्किसार से सर झुका दिया। फिर क़द्रे भोंडे मस्ताना-पन से नज़रें उठाईं। बाज को कोई बात सूझ नहीं रही थी। इसलिए उसने पगड़ी के अंदर दो उँगलियाँ दाख़िल कर के सर खुजाना शुरू’ कर दिया। सरदारनी मुहक़्क़िक़ाना अंदाज़ में बोली, “रोटी खा कर रहे हो?”

    “जहर मार कर के रहे हैं।”

    बाज को बरहम पा कर सरदारनी बड़े मुबालग़े के साथ परेशान हुईं, “आखिर माजरा क्या है?”

    बाज ने माजरा सुनाया और नतीजा ये बरामद किया कि “रोटी हाय रोटी तो बड़ी सरदारनी आपकी होती है। मक्खन ससुरा रोटी की नस-नस में रच जाता है। निवाला मुँह में रुकता ही नहीं। बताशे की तरह घुला और चल अंदर।”

    बड़ी सरदारनी को ता’रीफ़-ओ-तौसीफ़ के ये फ़िक़रे हज़्म करने में ख़ासा प्राणायाम DEEP BREATHING करना पड़ा। जब दम में दम आया तो एक खास सुर-ताल में बोलीं, “कभी हमारे यहाँ खाते भी हो।”

    “कभी खिलाती भी हैं आप।”, चालाक बाज ने उसी सुर-ताल में बरजस्ता जवाब दिया।

    इस पर जलाल में आकर जो बड़ी सरदारनी उठीं तो बाज को यूँ महसूस हुआ जैसे ज़मीन से आसमान तक ऊदी घटा छा गई हो। रोटी खाते-खाते बाज ने पूछा, “क्यों जी आज बड़े सरदार जी बैठक में किस से बातचीत कर रहे हैं?”

    सरदारनी ने झालरदार पंखा झलते हुए जवाब दिया, “मा’लूम नहीं।”

    घर में एक ही टेबल-फ़ैन था बिजली का और वो जिधर बड़े सरदार जी जाते, उनका पीछा करता। बाज ने नमक हलाल कर डालने के ख़याल से कहा, “क्यों मजाख़ करती हो सरदारनी भला ये कभी हो सकता है कि उधर बातचीत हो रही हो और आपको खबर हो।”

    सरदारनी ने बड़े-बड़े की तरह मुँह खोला, लेकिन दफ़’अतन उसका दहाना तंग कर के बोलीं, “जसूस छोड़ रखे हैं, अभी मा’लूम हो जाएगा सब।”

    इसी अस्ना में छोटी सरदारनी बग़ल वाले कमरे से निकल कर उनके कमरे में दाख़िल हुईं। बत्तीसी निकली पड़ती थी। सुनहरी कीलें चमक रही थीं। हस्ब-ए-मा’मूल लड़कियाँ उनके साथ थीं। जब लड़कियाँ साथ थीं तो क़ुदरती तौर पर लड़के भी साथ थे... बड़ी सरदारनी को छोटी सरदारनी के ये लच्छन पसंद नहीं थे और फिर इस मौक़े’ पर? चुनाँचे उसने चुपके से नाक-भौं चढ़ा कर हाथ को ज़रा SLOW MOTION से घुमा कर ना-पसंदीदगी का इज़हार किया। उसे यक़ीन था कि बाज भी इस मु’आमले में उससे मुत्तफ़िक़ है। लेकिन बाज ने बड़ी दीदा-दिलेरी से अपने बेडौल दाँतों की नुमाइश की और तर माल अपने सामने पा कर उसने दिल ही दिल में नारा लगाया, “जो बोले सो निहाल।”

    छोटी सरदारनी मा’ कमसिन परियों के और जिन्नात के धूम-धड़ाक से आगे बढ़ीं। उनके पहलू-ब-पहलू उनका हाथ झुलाती घुक्की चहकी, फुदकती चली रही थी। घुक्की महज़ बाँकी नहीं थी बल्कि उसे अपने बाँकपन का एहसास भी था। हर निगाह जो उसके चेहरे या जिस्म पर पड़ती थी, उसका रद्द-ए-‘अमल उसकी अबरुओं की लर्ज़िश, होंटों की फड़कन या जिस्म की किसी किसी हरकत से ज़ाहिर हो जाता। इसके बा’द निक्की... घुक्की नोक पलक और चेहरे के ख़द-ओ-ख़ाल के लिहाज़ से ग़ज़ब थी तो निक्की बदन के आ’ज़ा की मुतनासिब बनावट, तनाव और तड़प के ए’तिबार से क़यामत थी। उसकी नज़रें बड़ी बहन की तरह दूर तक नहीं पहुँचती थीं। वो उस इंसान के मानिंद दिखाई देती थी जो वीराने में भटकता-भटकता दफ़’अतन मेले में निकले...

    निक्की की चुंदरी का दामन अंधी साँवली के हाथ में था। उसका चेहरा ऊपर को उठा रहता। वो बड़ी दोनों बहनों से कम गोरी थी। ख़द-ओ-ख़ाल गोरा लेकिन चेहरा ब-हैसियत-ए-मजमू’ई पुर-कशिश था। उसे इस बात का मुतलिक़न एहसास नहीं था कि मुरली वाला उसके बदन में ‘उम्र के साथ-साथ क्या-क्या तब्दीलियाँ कर रहा है। क्योंकि इस मु’अम्मे का एहसास तो लड़की को आँखें चार होने पर ही हो सकता है। वहाँ एक भी देखने वाली आँख नहीं थी। इसलिए आँखें चार होने का विचार ही पैदा नहीं होता था...

    “बल्ले-बल्ले।”

    बाज को अपने कान में आवाज़ सुनाई दी। देखा कि बुंगा भी उसे कारख़ाने में पा कर वहाँ आन पहुँचा था और फिर राल टपकाते हुए बोला, “जार घुक्की की कमर तो देखो। कैसी पतली। कैसी लचकदार है। आँख नहीं टिकती उस पर...”

    “वे में जट्टी पंजाब दी

    मेरा रेशम बर्गा लक...”

    म’अन बाज ने बौंगे को कुहनी का ठोका देते हुए कहा, “देख वे जल-कुक्कड़!”

    जल-कुक्कड़ प्रैस में लेबल प्रिंट किया करता था। उसकी ‘उम्र चौंतीस बरस के लगभग होगी। दो बच्चे भी थे। त’अज्जुब वो भी सींग कटा कर बछड़ों में शामिल हो गया था। ये राज़ बाज की समझ में अब तक आया था। लेकिन आज उसने देखा कि कैसे जल-कुक्कड़ ने दीदा-दानिस्ता निक्की को धक्का दिया और कैसे निक्की ने मा’शूक़ाना अदा के साथ उसकी इस हरकत को बर्दाश्त किया लेकिन आख़िर जल-कुक्कड़ में रखा ही क्या था। उसकी मज़हका-ख़ेज़ सूरत की वज्ह से ही तो यारों ने उसका नाम जल-कुक्कड़ तजवीज़ किया था... मगर ‘औरत के दिल को कौन पा सकता है... बौंगे ने कहा, “जार ये तो दूर-मार तोप निकला। कैसा मिशकीन बनता था।”

    आजकल जल-कुक्कड़ ज़ियादा-तर रंगीन बुशर्ट पहने रहता था। जिसके कपड़े पर चीनी तर्ज़ के अज़दहा नाचते दिखाई देते थे।

    सरदार जी के लड़के भी “चल कबड्डी तारा। सुलतान बेग मारा।” कहते हुए साथ-साथ चले रहे थे और उनके पीछे वो नौजवान था। जो वहाँ कोई इम्तिहान देने के लिए नया-नया आया था। उसे देखते ही बाज ने पूछा, “ओए माँ देया मितराड़ा एह कौन है।”

    “वे जेह भी अपना मुंडा है। नवाँ दाखिल होया ए। इसक दे मदरसे दे बिच।”

    “हच्छा हछाच्... एह ताँ परसों ही आया है।”

    “आहो जी लौंडों की बातें छोड़ो। अब नारियों की बातें करो।”

    परियों के इस क़ाफ़िले ने ज़मीन पर डेरे डाल दिए और इसकी ख़ुश-नवाइयों में बड़ी सरदारनी अपने आपको तन्हा महसूस करने लगी।

    “वे पर जी चमन कहा है?”

    एक छोटा लड़का (ग़ालिबन बड़ी सरदारनी का जासूस) जो बैठक से उसी वक़्त वहाँ आया था बोला, “चमन उधर बैठक में बैठा है।”

    बाज को हैरत हो रही थी। ये क्या? गुल इधर और बुलबुल उधर? फिर उसी जज़्बे के तहत उसने घुक्की की जानिब देखा। वो नज़रों ही नज़रों में सब कुछ समझ गई। उसके अब्रू लरज़े, पलकें झपकीं, कमर लचकी और फिर वो साकित हो गई। बाज ने दिल फेंक तेवर बना कर आँखों ही आँखों में समझाया कि लो हम तफ़तीश करते हैं और हुस्न के चोर को हुस्न के हुज़ूर में हाज़िर करते हैं। चुनाँचे उसने बुलंद आवाज़ में पूछा, “लेकिन बई वो वहाँ क्या कर रहा है?”

    “उधर एक जरनैल साहिब बैठे हैं।”

    बाज ने सोचा कोई फ़ौजी अफ़्सर होगा। ये लौंडे हर ऐसे अफ़्सर को एक दम जरनैल बना देते हैं। फिर बोला, “पर बाई चमन का वहाँ क्या काम?”

    “चमन के बाबू जी भी बैठे हैं।”

    इससे मुराद ये कि चमन को बाप की वज्ह से मजबूरन वहाँ बैठना पड़ रहा है।

    “अच्छा तो बच्चू चमन को उन्होंने वहाँ किस लिए फाँस रखा है।”, बाज ने जिरह की।

    “वो फ़ौज में भर्ती हो रहा है।”, लड़के ने टैं से जवाब दिया। अब बाज ने एक नज़र बड़ी सरदारनी पर डालना ज़रूरी समझा और फिर मुँह टेढ़ा कर के उसके एक कोने में से साँप की फुंकार की सी आवाज़ निकालते हुए बोला, “ए जी आपका जसूस तो बड़ा हुसियार निकला।”

    दाद पाकर सरदारनी हाथी की तरह झूमने लगीं और ‘अर्से तक झूमती रहीं। जब जसूस लौंडे को महसूस हुआ कि वो ऐसी बातें कह रहा है जिनसे सबको बड़ी दिलचस्पी महसूस हो रही है तो उसने मज़ीद मा’लूमात बहम पहुँचाने के लिए कहा, “चमन माहाऊ जा रहा है।”

    “वे माहाऊ कौन जगह का नाम है। वहाँ तेरी माओं (माँ) रहती है क्या?”, बौंगे ने दबी ज़बान में कहा ताकि सिर्फ़ बाज सुन सके।

    सरदार ने कहा, “वे माहाऊ नहीं महू कहो महू।”

    “क्या चमन महू जा रहा है?”, सरदार जी के छोटे लड़के ने सवाल किया और साथ ही पहले तो मस्नू’ई त’अज्जुब के मारे दोनों टांगें ख़ूब फैला कर और पाँव फ़र्श पर जमा कर बिल्कुल बे-हिस-ओ-हरकत खड़ा रहा और फिर सिमट कर जो कूदा तो कमरे से बाहर और बैठक के अंदर।

    “वे चमन हमको छोड़कर महू जा रहा है और हमको ख़बर तक नहीं दी।”

    लफ़्ज़ “हम” से उसका इशारा घुक्की की तरफ़ था। ये अल्फ़ाज़ उसने खड़े हो कर कहे। उस वक़्त उसकी मैली कच्छ का और भी ज़ियादा मैला इज़ार-बंद उसके दोनों घुटनों के बीच में झूल रहा था और उसने पुर-मा’नी अंदाज़ में कनखियों से घुक्की की जानिब देखा। भला घुक्की को उसकी बात का मतलब पा लेने में क्या मुश्किल पेश सकती थी। उसके दिल में ऐसी गुदगुदी पैदा हुई कि वो उठकर रक़्साँ-ओ-शादाँ छोटी सरदारनी के एक बाज़ू से उठकर उसके दूसरे पहलू में जा बैठी और बेहद सुरीली आवाज़ में बोली, “हमें पहले ही से मा’लूम था।”

    घुक्की ने ये बात ज़ियादा ज़ोर से नहीं कही लेकिन ये इतनी बुलंद ज़रूर थी कि बाज उसे आसानी से सुन सके। इस पर बाज ठंडा हो कर ठंडे फ़र्श पर इस तरह बैठ गया जैसे गुब्बारे में से दफ़’अतन सारी हवा निकल जाए और फिर उसने अब्रू हिला कर और मूँछें फड़का कर बौंगे के कान में कहा, “जार सच-मुच ये लौंडिया बड़ी चलती पुर्जी है।”

    (6)

    इतवार! आज सरदार जी के दोनों लड़के दस बजे का अंग्रेज़ी शो देखने जा रहे थे। बड़े ज़ोर-शोर के साथ तैयारियाँ हो रही थीं। जाने कब की पुरानी नेक-टाईयाँ बरामद की गईं। एक मसहरी लगाने के बाँस के सिरे पर बँधी थी और दूसरी बड़े ट्रंक के पीछे से गेंद की तरह गोल-मोल की हुई निकली।

    चूँकि उस वक़्त छोटी सरदारनी ग़ुस्ल कर रही थीं इसलिए उनकी चेलियाँ बे-जान सी हो कर इधर-उधर लटक रही थीं। निक्की बड़ी सरदारनी के साथ बावर्ची-ख़ाने के अंदर बैठी थी। साँवली परे नल के पास बैठी एड़ियों को रगड़-रगड़ कर धो रही थी। दस्ती हिलाने वाला नया नौजवान था। घुक्की हवेली के बड़े दरवाज़े के आगे बनी हुई चंद पुख़्ता सीढ़ियों के बीच वाले हिस्से पर बैठी थी। उसकी दोनों कुहनियाँ उसके घुटनों पर टिकी थीं और दोनों हथेलियों के बीच में इसका चेहरा फँसा हुआ था। उसकी आँखें उदास थीं। चमन को गए पच्चीस दिन गुज़र गए थे। लेकिन घुक्की को उसका एक ख़त तक आया था। हालाँकि दूसरों को उसकी चिट्ठियां चुकी थीं...

    इतवार की वज्ह से छुट्टी थी। इसलिए कारीगरों की गहमा-गहमी नहीं थी। अलबत्ता बाज और बुंगा मौजूद थे। क्योंकि वो मुस्तक़िल तौर से वहीं पर मुक़ीम थे। दीवारों की सफ़ेदी करने के काम में आने वाले पाँच फुट ऊँचे स्टूल पर पाँव के बल बैठा बाज दातुन चबा रहा था। स्टूल के साथ सट कर ज़मीन पर बैठा हुआ बुंगा आईने में देख देखकर चिमटी से नाक के बाल नोच-नोच कर फेंक रहा था। दूर बैठक की तरफ़ से एक बड़े संख की सी आवाज़ में सरदार जी पाठ कर रहे थे। सरदार जी का पाठ और बाज की दातुन दोनों मशहूर चीज़ें थीं। उधर सरदार जी मुसलसल कई-कई घंटे पाठ करने में जुटे रहते। इधर इतवार को फ़ुर्सत पा कर बाज ‘अलल-सुब्ह ही मुँह में ये लंबी दातुन उड़स कर बैठ जाता। पहले उसे चबाता फिर दाँतों पर घिसाता। फिर चबाता और दाँतों पर घिसाता। यहाँ तक कि दातुन ख़त्म हो जाती।

    बौंगे ने अपने काम से फ़ुर्सत पाकर इत्मीनान से टाँगें ज़मीन पर फैला दीं। बुलंद-नशीन बाज ने अपने तेज़ी हिलते हुए मुँह को लम्हा भर के लिए रोका और बौंगे से मुख़ातिब हो कर दबी ज़बान में फुंकार कर बोला, “बौंगेया आज घुक्की कुछ उदास है। शायद छोटी सरदारनी का इंतजार हो रहा है।”

    इस तरह बोलने से बाज की मूँछों में फँसे हुए थूक के क़तरे उड़कर बौंगे के चेचक मारे चेहरे पर पड़े और उसने भड़क कर स्टूल को ज़रा सा हिला दिया और छोटी-छोटी आँखें लाल चिंगारी बना कर कहा, “वे अभी हिला दूँ तो राज-सिंघासन से सर के बल नीचे गिर पड़े। हम पर थूकता है?”

    स्टूल के क़द्रे हिल जाने पर बाज ने गिध के मानिंद बाज़ू फड़फड़ाए और उसकी तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर बोला, “क्यों यही बात है ना! मलकाँ (छोटी सरदारनी) का इंतजार हो रहा है।”

    “वे नईं।”, बौंगे ने नथुने फला कर ‘आलिमाना अंदाज़ में जवाब दिया, “हीर को राँझे का। सस्सी को पुन्नू का। गोपी को कन्हैया का इंतजार है, समझे?”

    “समझा।”, बाज से भला क्या बात छिपी थी। उसने बौंगे को महज़ गरमाने और फिर उसकी किसी हरकत-बाज़ी का लुत्फ़ उठाने के लिए अंजान-पन का सुबूत पेश किया था। अब बौंगे ने एहतियातन इधर-उधर देखा और किसी को क़रीब पाकर हल्का सा ना’रा बुलंद किया।

    “हाय।”

    रू-ए-सुख़न घुक्की की जानिब।

    “क्या है?”, बाज ने पूछा और समझ गया कि बौंगे को ख़रमस्ती सूझ रही है।

    “दर्द।”, बौंगे ने जवाब दिया।

    “कहाँ?”

    “जेह तो मैं मर जावाँ ताँ भी दस्साँ।”

    बौंगे ने ख़ास ज़नाना आवाज़ में जवाब दिया और फिर क़द्रे सुकूत के बा’द गाने लगा।

    “छोड़ गए बालम”

    “अकेली मुझ नूँ छोड़ गए।”

    फ़िज़ा बौंगे की टरटराती आवाज़ से गूँज उठी।

    अब दोनों छोटे सरदार तैयार हो कर अंदर से निकले तो इस शान से कि पहले तो बड़े भाई ने अंदर से छलांग लगाई तो घुक्की के ऊपर से कूद कर सेहन में। वो समझने भी पाई थी कि दूसरा भाई साफ़ कूद गया ऊपर से। घुक्की हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई। उसका चेहरा लाल भभूका हो गया। चमक कर बोली, “हमें नहीं अच्छा लगता ऐसा मजाख़, अगर हमारी गर्दन टूट जाती तो?”

    इस पर छोटे भाई ने पंजाब के मशहूर लोक नाच भंगड़ा के अंदाज़ में चंद चक-फेरियाँ लीं और गले की गहराइयों में से निहायत घिगियाई हुई आवाज़ निकाल कर गीत का बोल दुहराया, “छोड़ गए बालम!”

    इधर बुंगा भी बस तैयार ही बैठा था। फ़िल-फ़ौर छाती पर दो-हत्तड़ मार कर बैन-सुर में गा उठा, “अकेली मुझको छोड़ गए।”

    इस पर बाज ने जो क़हक़हे लगाए तो वो सीधे आसमान के उस पार पहुँचे। बड़ी सरदारनी मानकी के बावर्ची-ख़ाने के दरवाज़े में आन खड़ी हुईं। छोटी सरदारनी भी ग़ुस्ल से फ़ारिग़ हो कर निकल आईं। साँवली समझी ज़रूर कोई मज़ेदार बात हो रही है। चुनाँचे वो नल के पास बैठी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। चलते-चलते छोटा सरदार वही बोल दोहराता गया और बुंगा भी गर्मी खा कर सीने पर दो-हत्तड़ मार-मार जवाब देता गया। सेहन में क़यामत का शोर सुनकर बड़े सरदार जी अंदर से ही कड़के... तो छोटे सरदार जी बगटुट भागे। बाज स्टूल से कूदा और बौंगे समेत कारख़ाने में जा घुसा। बड़ी सरदारनी और निक्की ने अंदर से बावर्चीख़ाने का दरवाज़ा भेड़ दिया। घुक्की उछली और छोटी सरदारनी ने उसे बग़ल में दाबा और एक-बार फिर ग़ुस्ल-ख़ाने के अंदर...

    (7)

    देवीदास के मकान और दुकान के आगे सड़क के आर-पार काग़ज़ की रंग-बिरंगी झंडिया लहरा रही थीं। बाजे बज रहे थे। घर के अंदर किसी तारीक गोशे में चंद ‘औरतें बतखों की कैं-कैं की सी आवाज़ में टूटे फूटे गीत गा रही थीं।

    घुक्की की शादी हो रही थी।

    चमन के साथ? नहीं।

    बारात आने वाली थी। मुहल्ले के लौंडे दौड़-दौड़ कर दूल्हे की पेशवाई को जाते लेकिन बड़े-बूढ़ों की ज़बानें ये सुनकर कि अभी बारात नहीं आई तो मायूस हो जाते और चुप-चाप चढ़वी रेवड़ियाँ चबाने लगते। बैठक में बड़े सरदार जी और उनके चंद मु’अज़्ज़िज़ और बुज़ुर्ग साथी काठ के उल्लुओं की तरह साकित बैठे थे। कभी एक-आध बात हो जाती तो सब इस्बात में सर हिला-हिला कर इज़हार इत्मीनान करते। प्रैस के कारीगर सड़क की जानिब बरामदे में खड़े तमाशा देख रहे थे। उधर कारख़ाने के कारीगर बिग़ुलें बजाते छत पर चढ़ गए। वहाँ से देवीदास की नीची छत साफ़ दिखाई देती थी। उसकी छत पर दस पंद्रह चारपाइयाँ बिछी थीं क्योंकि ज़ियादा बरातियों के आने की उम्मीद नहीं थी। चंद बच्चे और ‘औरतें बे-जान रंगों के कपड़े पहने सुस्त क़दमों से इधर-उधर के काम करती फिरती थीं। क़रीब वाले पीपल के पेड़ का तारीक साया छत पर फैल रहा था... और बाजे अलग कराह रहे थे।

    छत वाले कारीगरों में से एक सर हिला कर बोला, “तत्-तत् ‘औरत की बेवफ़ाई के बारे में सुना था, लेकिन आज अपनी आँखों से देख ली।”

    बौंगे ने नथुने फुला कर उसकी तरफ़ देखा और फिर कुछ कहने के लिए मुँह फुलाया... और फिर नथुने और मुँह दोनों सिकोड़कर रुख़ दूसरी जानिब फेर लिया। कारीगर को त’अज्जुब हुआ। उसने बाज को कंधा मार कर कहा, “कहो उस्ताद आज बौंगे को क्या हो गया है।”

    बाज ने पहले फूले मारी आँख दिखा कर बे-रुख़ी बरती। लेकिन फिर चश्म-ए-बीना से शरारे बरसा कर कहा, “‘औरत की बेवफाई नहीं, मर्द की बेवफाई कहो।”

    “या’नी?”

    “जानी जेह कि चमन को यहाँ से गए तीन महीने गुज़र चुके हैं उसने एक सत्र तक नहीं लिखी घुक्की को...”

    “और घुक्की ने?”

    “उसने अपने हाथ से टूटी फूटी हिन्दी में उसे कई चिट्ठियाँ लिखीं लेकिन एक का भी जवाब नहीं आया।”

    अब बौंगे ने भी बोलना शुरू’ कर दिया, “चमन ने अपने चार दोस्तों को लिखा कि किसी किसी तरह घुक्की को चिट्ठी लिखने से रोका जाए। हर छुट्टी उसकी इस बात से कि, अगर मेरे पर होते तो मैं उड़ कर आपके पास जाती... तंग गया हूँ।”

    “उधर कहीं चमन के पिता जी वहाँ जा निकले।”, बाज ने बात आगे बढ़ाई, “उनकी मौजूदगी में कहीं कोई ख़त आया तो उन्होंने पढ़ लिया। पहले बेटे के कान मरोड़े और फिर यहाँ आकर बड़े सरदार जी को बताया। सरदार-जी ने देवीदास को बुलाया और कहा, “वे लौंडिया की सादी कर दे झटपट, पंद्रह दिन के अंदर। नहीं तो दुकान खाली कर दे और उठा लो बोरिया बिस्तर मकान से भी।”

    ऐसे मुसकिल समैं में भला देवीदास कहाँ जाता। हाथ जोड़ कर कहने लगा। पर जी गरीब की लड़की की सादी भुला इत्ती जल्दी कहाँ हो सकती है? चमन के बाप ने कहा, “आखिर तुम्हारी लौंडिया को ऐसे ख़त लिखने की हिम्मत कैसे हुई। जमीन की ख़ाक सर को चढ़े, बड़े सरदार जी ने डाँट पिलाई। अब मैंने कह दिया। ज्यादा रि’याअत नईं हो सकती। पंद्रह दिन के अंदर-अंदर सादी कर डाल कहीं, नईं तो मकान और दुकान दोनों से खारिज।”

    गुफ़्तगू इसी मंज़िल पर पहुँची थी कि बड़ी सरदारनी जी भी ऊपर निकलीं और हस्ब-ए-‘आदत बाज के क़रीब खड़ी हो गईं। अपनी आमद पर सबको चुप देखकर बोलीं, “बारात जाने कब आएगी।”

    उनकी बात ख़त्म भी नहीं होने पाई थी कि लोग-बाग चिल्ला उठे, “बारात गई। बारात गई!” शहनाइयाँ और ज़ोर से काएँ-काएँ करने लगीं। थोड़ी देर बा’द सरदार जी का छोटा लड़का दौड़ा-दौड़ा आया, “वे लुटिया डूब गई। धत तेरी की।”

    “क्यों ख़ैरियत? दूल्हा देखा? कैसा है?”, सबने एक ज़बान हो कर पूछा।

    लड़के ने बड़े वाहियात अंदाज़ से बाज़ू इधर-उधर फेंक कर जवाब दिया, “धत तेरी की... चिड़ीमार... बिल्कुल चिड़ीमार दिखाई देता है।”

    (8)

    अगस्त 47 के फ़सादाद ज़ोर-शोर से शुरू’ हुए तो हवेली के मकीनों और कारीगरों के वक़्त का कुछ हिस्सा क़त्ल-ओ-ग़ारत, हिंदुओं और सिखों पर ढाए गए मज़ालिम और उनकी ख़वातीन की आबरू-रेज़ी जैसे मौज़ू’आत पर सर्फ़ होने लगा। लेकिन वहाँ की रोज़मर्रा की ज़िंदगी और चहल-पहल में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया था। सिवाए इसके कि घुक्की की शादी को तीन साढ़े तीन माह गुज़र चुके थे। इन तीन महीनों के दौरान में चमन दो-चार दिन के लिए जालंधर आया। उन्होंने अलग मकान का इंतिज़ाम कर लिया था। फिर भी चमन सरदार जी के घर चोरी छिपे आता रहा। वो घुक्की से बच कर रहता था। ख़ुद घुक्की ने भी ब-तौर-ए-ख़ास इस अम्र की एहतियात बरती कि उसकी चमन से मुड़भेड़ हो।

    चमन ने सरदार जी के लड़कों को बताया कि महू में उसकी ज़िंदगी बड़े मज़े और चैन में कट रही थी। इर्द-गिर्द मा’शूक़ों की भी कुछ कमी नहीं थी। उसने एक नया आर्ट सीखा था। जिसका मुज़ाहिरा उसने सिगरेट के धुएँ के मर्ग़ूले बना-बना कर किया। अगर घुक्की की कोई बात चलती तो कहता, “हिन्दुस्तानी लड़कियाँ भी बस ‘अजीब होती हैं। ज़रा हँसकर बात कर लो तो गले का हार हो जाती हैं। फ़ूलिश FOOLISH चाइलडिश CHILDISH!”

    बिल-आख़िर वो घुक्की से एक बात किए बग़ैर ही वापिस चला गया। ब-ज़ाहिर घुक्की पर इसका कोई ख़ास रद्द-ए-‘अमल दिखाई नहीं देता था। वो अब भी छोटी सरदारनी के साथ उठती बैठती, हँसती बोलती, लेकिन उसके दिल को घुन लग चुका था। उसका जिस्म नर्म और कमज़ोर तो पहले ही था। लेकिन अब तो बिल्कुल ही हड्डियों का ढाँचा सा होता जा रहा था। वो निहायत नाज़ुक और शगुफ़्ता फूल के मानिंद थी। उसे अगर मुनासिब हालात मयस्सर जाते तो यक़ीनन उसकी महक दूर-दूर तक फैलती। लेकिन अब वो दर्द दबा कर ख़ामोश हो गई थी। उसके चेहरे से ऐसा संजीदा वक़ार टपकता था कि अब किसी को उससे चुहल-बाज़ी करने की जुरअत तक नहीं होती थी। उसे खांसी आने लगी थी। जब खाँसती छूटती तो वो अपने कमज़ोर सीने को छोटे-छोटे हाथों से थाम कर खाँसते-खाँसते बेहाल हो जाती। उसका चेहरा सुर्ख़ हो जाता। बा’ज़ देखने वालों को उसकी हालत पर तरस आने लगता। लेकिन वो मुसकुराती हुई अपने ख़ुश-वज़’ सर को पीछे की जानिब फेंक कर उसे दाएँ-बाएँ दो-चार झटके देती और फिर बातचीत में मसरूफ़ हो जाती।

    निक्की, अलबत्ता अब उड़न-कली थी। उसे बात बे बात पर इस क़दर हँसी छूटती थी कि बस लोट-पोट हो जाती। पहले घुक्की इन महफ़िलों की जान थी तो अब निक्की घुक्की का रवैया पहले भी पुर-वक़ार था। अब सीने पर ज़ख़्म खा कर वो और संजीदा हो गई थी। मगर निक्की शुरू’ ही से शोख़ थी और अब मैदान साफ़ पाकर वो तड़पती हुई बिजली बन गई थी। छेड़-छाड़ की उसमें बहुत बर्दाश्त थी। इसलिए वो घुक्की से ज़ियादा मक़बूल थी। ख़फ़ा होना तो उसे आता ही नहीं था। सिमटना, बनना, बचना, झूटों ही अब्रू पे बल डालना, पट्ठे पर हाथ रखने देना, ये सब दुरुस्त, फिर भी वो ख़फ़ा नहीं होती थी। ख़्वाह कुछ भी हो जाए। उसकी चहक और महक में फ़र्क़ नहीं आता था। अब नुक्ता-संजों को ये भी कोई राज़ की बात रही थी कि निक्की का ख़ास मंज़ूर-ए-नज़र प्रैस का वही आदमी था जिसे सब जल-कुक्कड़ कहते थे लेकिन समझ में आने वाली बात ये थी कि आख़िर उसके पास कौन सी ऐसी गीदड़-संगी थी जिसकी वज्ह से निक्की सबको छोड़-छाड़ कर उसकी बग़ल गर्म करती थी।

    एक रोज़ शाम के वक़्त एक बहुत बड़े ज़मीन-दोज़ चूल्हे पर लोहे की कड़ाही जमाई गई, जिसे देखकर सब के मुँह में पानी भर आया। क्योंकि चंद महीनों के वक़्फ़े के बा’द ये वो शाम होती थी, जब बड़ी सरदारनी कड़ाही में रेत गर्म कर के उसमें मकई, चना और चावल भूनतीं गड़ मिला कर उनके मुरूंडे तैयार करतीं और सबको जी भर कर खिलातीं। चुनाँचे जब कारख़ाने के अंदर तेशा चलाते हुए बाज सिंह को बौंगे ने ख़बर सुनाई कि आज सुब्ह में कड़ाही जमा ली गई है और बड़ी सरदारनी के क्या तेवर हैं तो उससे रहा गया। वो तेशा-वेशा फेंक फ़ौरन बाहर निकला और देखा कि बौंगे ने जो ज़ियादा-तर झूट बोला करता था, अब के झूट नहीं कहा था।

    बड़ी सरदारनी ने जब बाज को देखा तो इस अंदाज़ से मुस्कुराई कि जैसे उसे पहले ही से यक़ीन था कि बाज सब काम छोड़-छाड़ कर फ़ौरन बाहर आएगा। आज सरदारनी ने जामुनी रंग का दुपट्टा ओढ़ रखा था। यूँ तो उसे कोई भी रंग नहीं फबता था लेकिन जामुनी रंग तो बहुत ही भोंडा लग रहा था। इस रंग के तले उसके पिलपिले होंटों पर मुस्कुराहट फैलती जा रही थी। बाज से आँखें चार होते ही वो बा-मा’नी अंदाज़ से ठुमक कर बावर्ची-ख़ाने में दाख़िल हो गई। रफ़्ता-रफ़्ता सब क़िस्म के दाने भुन चुके तो फिर निक्की की मदद से बड़ी सरदारनी ने सोंधी-सोंधी बू वाले दानों को गुड़ में मिला कर अलग-अलग क़िस्म के मुरूंडे तैयार किए।

    चरन मिनट-मिनट की ख़बर प्रैस में पहुँचा रहा था। कारख़ाने के कारीगर चूँकि बावर्चीख़ाने के ज़ियादा नज़ीक थे, इसलिए वो काम में मन लगा ही नहीं सके। वो इस बात के मुंतज़िर थे कब सरदारनी अपनी लोचदार आवाज़ में उन्हें खाने की दा’वत दे और कब वो पिल पड़ें मीठे मुरूंडों पर। सबसे पहले सरदारनी ने घुक्की को आवाज़ दी। अब उसे घुक्की पर प्यार सा आने लगा था। घुक्की दोनों कुहनियाँ घुटनों पर टिकाए और मुँह बाज़ुओं में छुपाए खाँस रही थी। खाँस चुकी तो हस्ब-ए-‘आदत उसने सर को पीछे की जानिब फेंक कर दाएँ-बाएँ दो-चार झटके दिए और फिर हँसने लगी... उसकी हँसी ख़ूब फ़राख़ होती थी। लेकिन इसके बावुजूद उसके चेहरे पर ‘अजीब कैफ़ियत तारी रहती थी। अब उस पर पहले वाले लतीफ़ रद्द-ए-‘अमल नहीं होते थे, यूँ मा’लूम होता था जैसे वो ख़ुद अपने लिए हँस रही है... इसी तरह खिल-खिला कर हँसती हुई वो आगे बढ़ी और उसने दोनों हाथ ऐसे फैलाए जैसे उसे मंदिर या गुरूद्वारे से प्रशाद मिल रहा हो।

    बड़ी सरदारनी ने सबको नाम ले-ले कर बुलाया, “वे बैंगेया, वे चरण, नी सानोलिए, नी प्रेमो...”

    बाज अपने महबूब स्टूल पर टंगा हुआ था। उसे नहीं बुलाया गया... नहीं, उसे नाम लेकर नहीं बुलाया गया। बल्कि सबकी नज़रें बचाकर सरदारनी जी उसे अब्रूओं, आँखों और सर के इशारों से बुलाती रहीं। गोया उसके लिए मख़्सूस पैग़ामात भेजे जा रहे थे। बाज भी एक काईयाँ था। जी में हैरान भी था कि कहीं ऐसा हो कि किसी रोज़ सरदारनी बग़ल-गीर हो जाए। कुछ देर सरदारनी की हरकात से महज़ूज़ होने के बा’द वो कुलाँच भर कर स्टूल से उतरा और दूसरी कुलाँच में वो सरदारनी के क़रीब पहुँचा। मुरूंडे लेते वक़्त उसने सरदारनी की पसलियों में कुहनी का एक टहोका भी दिया। क्योंकि... अब इतना हक़ तो ज़रूर था सरदारनी का उस पर।

    बुंगा आज बहुत लाड में आया हुआ था। बाज के पास बैठने के बजाए वो छोटी सरदारनी के क़रीब जा बैठा और बंदर की तरह बड़े मुबालग़े के साथ मुँह आगे को बढ़ा कर और चप-चपा-चप की आवाज़ें निकालता हुआ मुरूंडे चबाने लगा। उसी वक़्त निक्की को क़रीब से ख़ास अंदाज़ में उठते और ज़रा ग़ैर क़ुदरती अंदाज़ में चलते देखकर बौंगे ने छोटी सरदारनी से मुख़ातिब होते हुए बड़ी बेबाकी से कहा, “ओ जी निक्की का पाँव तो भारी दिखाई देता है।”

    बाज ने भी ये बात सुन ली। उसने ग़ौर से देखा तो उसे भी यक़ीन सा होने लगा। उसने सोचा, आख़िर बात किया है। आज बुंगा सच ही बोले जा रहा है

    (9)

    रफ़्ता-रफ़्ता निक्की का पाँव और ज़ियादा भारी हो गया तो हवेली में कुछ चे-मी-गोइयाँ होने लगीं और फिर दफ़’अतन निक्की ग़ायब हो गई। पहले तो ये अफ़्वाह उड़ी कि वो जल-कुक्कड़े के साथ ग़ायब हुई लेकिन जल-कुक्कड़ हस्ब-ए-मा’मूल काम पर आता रहा। सबसे अहम बात ये थी कि जिस रोज़ निक्की ग़ायब हुई तो उसके घर वालों ने परेशानी का इज़हार बिल्कुल नहीं किया। तीसरे दिन घुक्की ने दबी ज़बान से ए’तिराफ़ किया कि मौसी गाँव से आई थी, वो उसी के साथ चली गई थी। मौसी कब आई थी? बस वो आई और चली गई। लेकिन निक्की ने कभी कहीं जाने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया था... इन सब सवालों का टाल-मटोल के सिवा कोई जवाब नहीं था... अगर कोई और ज़ियादा कुरेद कर पूछता तो घुक्की को खाँसी चढ़ जाती। वो खाँसते-खाँसते बेहाल हो जाती। यहाँ तक कि बात आई गई हो जाती।

    माह-ए-अक्तूबर ख़त्म होने को था लेकिन अगस्त से जो फ़सादाद शुरू’ हुए थे, ख़त्म होने ही में आते थे। हवेली के तवील-ओ-‘अरीज़ सेहन के इर्दगिर्द मुत’अद्दिद कोठरियाँ बनी हुई थीं। बहुत से कारीगर शहर के ख़तरनाक हिस्सों से निकल कर मा’-बाल बच्चों के ‘आरिज़ी तौर पर वहाँ मुक़ीम थे। चुनाँचे रात को कारख़ाने में काफ़ी रौनक़ हो जाती। खाने से फ़ारिग़ हो कर कारीगर गई रात तक आपस में गपशप हाँकते और मग़रिबी पंजाब में जो मज़ालिम हिंदूओं और सिखों पर ढाए जा रहे थे, उनकी दिल खोल कर मज़म्मत करते।

    ऐसी ही एक रात थी। खाना खाने के बा’द कारीगरों का एक गिरोह कारख़ाने में घिसा गपशप में मसरूफ़ था। ठंडी हवा चलने लगी थी। इसीलिए अंदर से कुंडी चढ़ा दी गई थी बल्कि बुंगा तो सुलगते हुए उपलों की मिट्टी की अँगीठी रानों में दबाए बैठा था। किसी ने आवाज़ा कसा, “अबे बौंगे अच्छी जवानी है साले, अँगीठी रानों में दाबे है।”

    “जार जिन अंगीठियों की गर्मी थी, उनमें से एक की सादी हो गई और दूसरी ग़ाइब...”

    “हाँ भई डेढ़ महीना हो गया निक्की को ग़ैब हुए।”

    एक बोला, “जार अच्छी बात जाद दिलाई मुझे, आज एक आदमी मिला था जो निक्की की मौसी के गाँव के क़रीब वाले गाँव में रहता है।”

    “क्या निक्की की कोई खबर मिली?” एक-दो ने दिलचस्पी ली।

    “हाँ।”

    “क्या?”

    “उसने कुँए में छलांग लगा दी थी।”

    “हरे राम!”

    “उसने जेह भी बताया कि उसके बच्चा होने वाला था।”

    “हो... ओ... फिर?”

    “उसने बताया ज्यादा खबर नहीं। सुना था कि लड़की बच जाएगी।”

    बाज ने राय दी, “मेरे ख़याल में तो देवीदास ने उसकी हालत देखकर गाँव भेज दिया होगा ताकि वहीं कहीं बच्चे से जान छुड़ा कर लौट आएगी तो जल्दी से सादी कर दी जाएगी उसकी।”

    इस अफ़सोस-नाक वाक़ि’ए का सब के दिलों पर असर हुआ और हँसती-बोलती महफ़िल पर ख़ामोशी तारी हो गई... इतने में दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ आई।

    “कौन?”, बाज ने दरियाफ़्त किया। लेकिन जवाब में फिर मुसलसल दस्तक की हल्की-हल्की आवाज़ें आती रहीं... सबको ये बात ‘अजीब सी मा’लूम हुई। बाज अपनी जगह से उठा लेकिन इसके दिल में खदबद-खदबद हो रही थी कि कहीं बड़ी सरदारनी हो। मौक़ा’ पा कर उसने चढ़ाई कर दी हो शायद। बाज ने कुंडी खोल दी। बाहर से दरवाज़े को बहुत आहिस्ता-आहिस्ता धकेला गया। चिराग़ की थरथराती हुई लौ की मद्धम रोशनी में एक लड़की अंदर दाख़िल हुई।

    साँवली।

    बाज दो क़दम पीछे हट गया। हाज़िरीन में से सबकी आँखें दरवाज़े पर लगी हुई थीं। साँवली को देखकर क़रीब था कि उनके मुँह से बे-इख़्तियार मुख़्तलिफ़ आवाज़ें निकल जाएँ। लेकिन बाज के इशारे पर वो उसी तरह चुप-चाप बैठे रहे। साँवली और आगे बढ़ी। उसका गोल चेहरा, नौ-ख़ेज़ जवानी की हिद्दत से तमतमाए हुए चेहरे की जिल्द, क़द्रे मोटे और भरपूर होंट। चिकने गाल... इन सब चीज़ों के हुस्न को पहले कभी किसी ने क़ाबिल-ए-तवज्जोह नहीं समझा था। इन सब दिल-लेवा ख़ूबियों के साथ-साथ उसके चेहरे पर शीर-ख़्वार बच्चे का सा भोलापन हुवैदा था। लेकिन इतनी गई रात को वो वहाँ क्या करने आई थी।

    साँवली ने हाथ फैला कर उस ऊँची और भारी भरकम मेज़ का सहारा लिया, जिस पर बाज फ़र्नीचर बनाते वक़्त मुख़्तलिफ़ हिस्सों पर रंदा किया करता था। लड़की ने मुँह खोला और सरगोशी में बोली, “बाज, चाचा!”

    “हाँ।”, बाज ने दाढ़ी पर हाथ फेरा। साँवली ने गर्दन इधर उधर घुमा कर कोई और आवाज़ सुनने की नाकाम कोशिश की। उस वक़्त उसके नीम वा-मुँह के अंदर दाँतों की क़तार के पीछे उसकी जीभ छोटी सी मछली की तरह मुतहर्रिक थी। फिर उसने राज़दाराना लहजे में दरियाफ़्त किया, “तुम अकेले हो?” ये सुनकर सबने गर्दनें आगे को बढ़ाईं। उनकी आँखें फैल गईं। बाज ने आवाज़ का लहजा बदले बग़ैर जवाब दिया

    “हाँ साँवली मैं अकेला हूँ।”

    “कहाँ हो?”, ये कह कर वो बाज़ू फैला कर हाथ हिलाती हुई आगे बढ़ी। फिर उसने उसे छू लिया।

    “ये रहे तुम!”, वो उसे छू कर बहुत ख़ुश हुई।

    “साँवली तुम इस बख़्त यहाँ क्यों आई हो?”

    “क्यों इस वख़त क्या है?”

    “इस बख़्त रात है तुम... तुम जवान हो... करीब-करीब।”

    “मेरे लिए रात और दिन एक बराबर हैं।”

    “लेकिन इस बख़्त रात के ग्यारह बज चुके हैं... और फिर तुम अकेली हो।”

    ये सुनकर साँवली के साफ़-सुथरे चेहरे पर अज़ीयत के आसार पैदा हुए। वो हैरान हो कर बोली, “पर बाज चाचा भला तुम्हारे पास आने में क्या बुराई हो सकती है। तुम तो देवता हो...”

    बाज ठिठक कर पीछे हटा।

    “तुम नहीं जानते चाचा।”, साँवली ने फिर कहना शुरू’ किया, “तुम्हारी दुनिया और है और अंधियों की दुनिया और। चाचा तुम कितने अच्छे, कितने मेहरबान हो। जब मैं तुम्हारी आवाज सुनती हूँ तो घंटों उसकी मिठास और प्यार के बारे में सोचती रहती हूँ। जब कभी लाला (बाप) मुझे गुस्से होता है तो मैं सोचती हूँ कि कोई बात नहीं मेरा बाज चाचा जो है। वो मुझे लाला से कम प्यार तो नहीं करता... ठीक है ना।”

    इस दौरान में बाज मूँछ का एक सिरा दाँतों में हल्के-हल्के चबाता रहा। उसकी बात ख़त्म हो जाने पर उसने त’अम्मुल किया और फिर उसके बदनुमा चेहरे पर एक दिलकश मुस्कुराहट पैदा हुई और अपना खुरदरा हाथ उसके सिर पर रखकर बोला, “हाँ साँवली ये सच है... लेकिन... इस बख़्त तुम जाओ।”

    “नहीं, नहीं चाचा मैं तुमसे बातें करने आई हूँ।”

    “अच्छी लड़की बनो साँवली इस टैम जाओ। कल करेंगे बातें...”

    “ओ नहीं चाचा, कल तक सब्र हो सकता तो मैं बिस्तर से उठकर क्यों आती?”

    सब दम-ब-ख़ुद।

    कारख़ाने के कमरे में एक-बार फिर साँवली की आवाज़ घंटी की तरह गूंज उठी, “बाज चाचा तुम समझते नहीं। मैं तुमसे बातें करने आई हूँ। इस बख़्त यहाँ कोई नहीं। जभी तो मैं तुमसे बातें करना चाहती हूँ।”

    “क्या बातें करना चाहती हो?”

    “बाज चाचा!”, अब साँवली की आवाज़ बदल गई। उसने तवक़्क़ुफ़ किया और फिर बोली, “बाज चाचा कुलदीप बाबू बहुत अच्छे हैं... वो कहते थे कि मेरी आँखें ठीक हो सकती हैं मैं जन्म की अंधी नहीं हूँ इसलिए... और... वो... कहते थे कि तुमसे ब्याह... ब्याह करूँगा इस पर बाज ने अपनी दाढ़ी को मज़बूती से मुट्ठी में पकड़ लिया, “कौन कुलदीप?”

    “वो जो नए आए थे, वही नाँ!”

    “क्या कहता था वो...”

    “वो कहते थे साँवली तुम मुझे बड़ी प्यारी लगती हो। मैं कहती में अंधी हूँ, भला अंधी लड़कियाँ भी किसी को प्यारी लगती हैं। वो कहते बावली प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और फिर तुम जनम की अंधी नहीं हो। तुम्हारा ‘इलाज हो सकता है। तुम देखने लगोगी... पर चाचा उनको गए पंद्रह दिन हो चुके हैं। लौट के नहीं आए... और... और...”

    ये कहते-कहते साँवली ने अपनी बे-नूर आँखों को और फैलाया, जैसे कुछ देखने की कोशिश कर रही हो और फिर झेंप कर बोली, “... और मेरा पाँव भी भारी है...”

    बाज ने दफ़’अतन खुल जाने वाले अपने मुँह पर हाथ रख लिया।

    साँवली कुछ देर के लिए ख़ामोश हो गई और बग़ैर जोश-ओ-ख़रोश के ज़रा ग़म में डूबी हुई आवाज़ में उसने फिर सिलसिला-ए-कलाम जारी कर दिया, “आज बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं सोच रही थी कि अगर वो आए तो...? लाला बहुत दुखी है। वो कहता है घुक्की और निक्की दोनों खराब हैं। एक को ऐसा रोक लग गया है जिससे बचना मुहाल है। दूसरी का पाँव... सच बाज चाचा। लाला बेहद दुखी है। वो रात रात-भर रोता रहता है... वो मुझसे प्यार करता है। मुझे गले से लगा कर कहता है। ये मेरी रानी बेटा है। इसे पाप छू कर भी नहीं गया... लेकिन उसे नहीं मलूम कि मेरा पाँव भी... मैं सोचती हो कि अगर कुलदीप बाबू आए तो... लाला को मलूम हो जाएगा। वो मर जाएगा। एक दम मर जाएगा... ये सोचते-सोचते मुझे रोना गया। मुझे कुछ नहीं सूझा तो जी का बोझ हल्का करने के लिए तुम्हारे पास चली आई... लेकिन वो जरूर आएँगे... हैं ना! चाचा वो आएँगे ना?”

    सब लोग दम साधे बैठे रहे। बाज ने एक-बार फिर भारी भरकम हाथ उसके सर पर रखा और उसे तसल्ली देते हुए कहा, “हाँ साँवली कुलदीप आएगा... वो जरूर आएगा।”

    थरथराती हुई मद्धम रोशनी में बाज ने देखा कि साँवली की बे-नूर आँखों के गोशों में आँसू दमक रहे हैं...

    “और अब साँवली तुम्हें वापिस जाना चाहिए।”

    ये कह कर बाज ने दरवाज़ा आहिस्ता से खोला और साँवली की पीठ पर हाथ रखकर उसे आगे बढ़ाया। वो क़दम-ब-क़दम चलने लगी। बाज दरवाज़े पर ही रुक गया। वो साँवली को जाते हुए देखता रहा। हर-चहार जानिब ख़ामोशी की हुकूमत थी। तारों की मद्धम रोशनी में साँवली एक साए की मानिंद दिखाई दे रही थी। उसके लिए अँधेरा उजाला एक बराबर था। वो बिला किसी हिचकिचाहट के बढ़ती चली जा रही थी।

    बावर्ची-ख़ाने के कोने से गुज़र कर हवेली की पुर-शिकोह लेकिन सियाह दीवार के सियाह-तर साए तले से होती हुई जब वो बड़े फाटक पर बनी हुई इस ऊँची महराब के तले पहुँची जिसके नीचे से तीन हाथी ऊपर तले आसानी से गुज़र सकते थे तो बाज को मैले कुचैले कपड़े पहने वो इकहरे बदन की हल्की-फुल्की अंधी लड़की बहुत कमज़ोर, बे-हक़ीक़त और बे-दस्त-ओ-पा दिखाई दी, जैसे वो कोई रेंगता हुआ हक़ीर कीड़ा हो।

    बाज वहीं पर खड़ा रहा। उसने आसमान की वुस’अतों, हवेली की बुलंद-ओ-बाला दीवारों, बे-जान ‘इमारतों के सिलसिलों और फिर उस तवील-ओ-‘अरीज़ दालान पर निगाह दौड़ाई जिसकी फ़िज़ा में कई कच्चे कुँवारे क़हक़हे गूँजते-गूँजते दफ़’अतन दर्दनाक चीख़ों में तब्दील हो गए थे... रात, कोई रात इस क़दर काली उसके देखने में पहले कभी नहीं आई थी... और तारे ख़ून की छींटों के मानिंद दिखाई दे रहे थे।

    (10)

    जूँ-जूँ दिन गुज़रते जा रहे थे, तूँ-तूँ साँवली के राज़-दाँ कारीगरों, ख़ुसूसन बाज की परेशानी में इज़ाफ़ा होता जा रहा था। वो नहीं चाहते थे कि साँवली अपनी बहनों की तरह बर्बाद हो। नल के पास या दरवाज़े की सीढ़ियों पर, या ऊँची महराब तले बैठी हुई अंधी साँवली की हालत उन्हें बड़ी क़ाबिल-ए-रहम दिखाई देती थी। आते-जाते जब भी उनकी उससे मुड़भेड़ होती तो साँवली ने कभी उनसे या बाज से दुबारा उसके बारे में कुछ नहीं कहा।

    बीस दिन और बीत गए।

    पंजाब बर्बाद हो रहा था। वारिस शाह का पंजाब, गंदुम के सुनहरे ख़ोशों वाला पंजाब, शहद भरे गीतों वाला पंजाब, हीर का पंजाब, कूंजों और रहटों वाला पंजाब और उसकी एक बे-नूर आँखों वाली हक़ीर सी बेटी भी बर्बाद हो रही थी। एक रात जब कि सब कारीगर खाने-दाने से फ़ारिग़ हो कर हस्ब-ए-मा’मूल कारख़ाने में बैठे बातें कर रहे थे तो क़ुदरती तौर पर साँवली का ज़िक्र शुरू’ हो गया। उन सबकी दिली तमन्ना यही थी कि काश साँवली का अपनी बहनों का सा हाल हो। लेकिन वो इस बात को ब-ख़ूबी समझते थे कि ये ना-मुम्किन है और ये सोचना पर्ले दर्जे की हिमाक़त है। बाज खुले दरवाज़े में खड़ा काले आसमान की तरफ़ देख रहा था। बौंगे को सर्दी महसूस हुई तो उसने चिल्ला कर कहा, “वे माँ देया मितराड़ा दरवाजा बंद कर दे, साले तू तो सांड हो रहा है फूल कर, हम गरीबों का तो ख़याल कर।”

    और कोई मौक़ा’ होता तो बाज बौंगे की गाली के जवाब में कोई नई और भारी भरकम गाली की इख़्तिरा’ करता। लेकिन इस वक़्त उसने चुपके से दरवाज़ा भेड़ दिया और ख़ुद बड़ी मेज़ पर हाथ टेक कर खड़ा हो गया। सब उसे हँसने बोलने के लिए उक्साते रहे लेकिन जब उसका मूड ठीक नहीं हुआ तो उन्होंने बड़े इसरार से पूछा, “बई बाज आज क्या बात है।”

    “मैं सोच रह्यो हूँ।”

    बौंगे ने सर्दी लगने के बावुजूद उठकर झट से कबड्डी खेले वाले खिलाड़ी का सा पोज़ बनाया और क़रीब आकर बोला, “सच्चे पादशह हो क्या सोच रहे हो?”

    बाज ने उसकी जानिब फ़लसफ़ियाना अंदाज़ से देखा तो उसे हँसी गई। लेकिन बाज के तेवर वैसे के वैसे रहे। बौंगे को तमस्ख़ुराना अंदाज़ से अपनी जानिब देखते हुए बाज ने कल्ले के अंदर ज़बान घुमाई और फिर सर को हरकत देकर उसने बौंगे और दीगर साथियों पर छा जाने वाली नज़रों से देखा और कहा, “मैं एक बात सोच रहा हूँ।”

    “क्या?”, सबको उसका फ़लसफ़ियाना मूड देखकर हँसी रही थी जिसे वो ब-मुश्किल रोके हुए थे। बाज ने सर को यूँ झटका दिया जैसे वो बहुत भारी जहाँ-दीदा बुज़ुर्ग हो और फिर मेज़ को दोनों हाथों से मज़बूती से पकड़ कर बोला, “पंजाब में कित्ता जुलम हो रहा है। ऐसा खून-खराबा देखा सुना। ठीक?”

    “ठीक।”

    “और फिर हिंदू और सुख ‘औरतों को जो बिजती (बे-‘इज़्ज़ती) पच्छिमी पंजाब में मुसलमान कर रहे हैं। वो सब तुमको मा’लूम है। ठीक?”

    “ठीक।”, सबने ज़रा जोश में आकर जवाब दिया। अब कुछ देर त’अम्मुल करने के बा’द धीरे-धीरे सिपाहियाना अंदाज़ में सीधा खड़ा हो गया और एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देकर बोला, “पर... मैं सोचता हूँ कि मुसलमान गुस्से में आकर जो बयाकूफी (बेवक़ूफ़ी) कर रहे हैं, वही बयाकूफी हम चंगे भले अपनी बहनों और बहू-बेटियों के साथ कर रहे हैं। बताओ मुसलमानों को दोश देने से पहले हमें खुद को शर्म मसोस नहीं होनी चाहिए।”

    महफ़िल पर सन्नाटा छा गया। नन्हे से चराग़ की पतली सी थरथराती लौ की रोशनी में बाज ने अपनी मोटी और लंबी उँगली उठाते हुए सिलसिला-ए-कलाम जारी रखा, “ऐसे ही पाकिस्तान में घुक्की, निक्की और साँवली की हज़ारों लाखों बहनें होंगी, तो फिर सवाल ये पैदा होता है कि हम या वो किस इज्जत (‘इज़्ज़त) के लिए लड़ रहे हैं। क्यों एक दूसरे को जाँगली कहते हैं?”

    इतने में दरवाज़ा बड़े धमाके के साथ खुला। सब ने उधर निगाह डाली तो देखा कि साँवली दरवाज़े के बीचों-बीच खड़ी है। उसके रूखे-सूखे बाल रोई की तरह धुने हुए हैं। उसके बाज़ू फैले हुए हैं। उसके आ’ज़ा में लर्ज़िश है। बेशतर इसके कि कोई बोलता, वो ज़ोर से चिल्लाई, “बाज चाचा! बाज चाचा!”

    ज़िंदगी में पहली बार बाज का कलेजा धक से रह गया।

    “बाज चाचा! बाज चाचा!”, साँवली की आवाज़ फ़िज़ा में दुबारा गूँजी।

    “हाँ, हाँ साँवली बोल। घबराई हुई क्यों है तो, बोल...”

    “वो गए?”

    “कौन?”

    “कुलदीप बाबू गए।”

    “आ गया वो?”, सब ख़ुशी के मारे चिल्ला उठे।

    “और आते ही वो मुझे डाकदार के पास ले गए। डाकदार ने कहा आँखें ठीक हो जाएँगी। लेकिन ‘इलाज बहुत दिन करना पड़ेगा बाज ने बढ़कर साँवली के दोनों कमज़ोर कंधों को अपने हाथों में दबोच लिया और उसे हिला कर बोला, “सच, कब?”

    “हाँ सच। उनकी माता जी भी साथ आई हैं।”

    “अरी तो वो इतने दिन कहाँ ग़ैब रहा।”

    “उन्होंने मुझे बताया कि पहले उनकी बात कोई नहीं मानता था। उन्होंने भूक हड़ताल शुरू’ कर दी। बड़ी मुश्किलों से उन्होंने उनकी बात मान ली। वो कहते हैं कि ऐसा रगड़ा-झगड़ा हुआ कि मैं ख़त भी लिख सका। लिखता भी तो क्या लिखता...”

    “ओहो...हो...हो...।”, सब बे-इख़्तियार हँसे।

    साँवली ने झूम कर कहा, “वो मेरी मिन्नतें करने लगे, कहने लगे, साँवली मुझे मु’आफ़ कर दो... अगर तुम्हें कोई दुख पहुँचा हो। हम कोई अमीर नहीं हैं, लेकिन सब काम ठीक हो जाएँगे... हम तुम्हें दिल्ली ले जाएँगे।

    अब सब लोग साँवली की तरफ़ बढ़े और अपने-अपने अंदाज़ और लहजे में ख़ुशी का इज़हार करने लगे। आख़िर बाज ने दोनों हाथ उठा कर कहा, “भाइयो ठहरो। मेरे ख़याल में अब साँवली को आराम करना चाहिए। उसे रात के समय घर से बाहर नहीं रहना चाहिए... साँवली हम बोहत खुश हैं। अब कल बातें होंगी। चलो... अब तुम जल्दी से घर जाओ।”

    साँवली के साथ किसी का जाना मुनासिब नहीं था। क्योंकि वो घर वालों से चोरी छिपे आई थी। सब उसे इंतिहाई प्यार से कारख़ाने के दरवाज़े तक छोड़ने गए। आठ दस मिनट बा’द जब सारा टोला बाज़ार जाने का प्रोग्राम बनाकर बाहर निकला तो ऊँची महराब तले से गुज़रते वक़्त उन्हें दीवार के साथ एक मटियाला बुत सा नज़र आया। वो सब रुक गए। बाज ने आगे बढ़कर ग़ौर से देखा तो मा’लूम हुआ कि साँवली है।

    “साँवली तुम अभी घर नहीं गई?”

    साँवली ने ख़ला में घूरते हुए कहा, “बाज चाचा जाने मेरे दिल को क्या हो गया है। कुछ सूझता ही नहीं कि क्या करूँ। ज़रा दम लेने के लिए रुक गई... बाज चाचा सोचती हूँ। ऐसी खुशी की बात कैसे हो सकती है। लेकिन चाचा तुम्हें मेरी बात पर अकीन है ना?”

    बाज ने घूम कर अपने साथियों की जानिब सवालिया अंदाज़ से देखा। सब चुप थे। वो भी चुप रह गया। सबको ख़ामोश पाकर साँवली ने अपना सवाल दुहराया, “आप सबको अकीन नहीं आता?”

    बाज की आँखों के गोशे पुर-आब हो गए। उसने हाथ बढ़ाकर साँवली के सिर पर रख दिया और फिर धीमी आवाज़ में बोला, “हमें अकीन है... और देखो तुम्हें बे-बख़्त घर से बाहर नहीं रुकना चाहिए और फिर सर्दी पड़ने लगी है। कहीं तुम बीमार हो जाओ।”

    साँवली ने उसकी मज़बूत कलाई को अपनी कमज़ोर उँगलियों से छू कर पूछा, “पर बाज चाचा आप सब लोग बे-वख़त कहाँ जा रहे हैं?”

    “हम।”, बाज ने पिदराना प्यार से लरज़ते हुए उसके गाल को छूते हुए जवाब दिया, “साँवली बेटी हम इस ख़ूशी में बर्फ़ी खाने जा रहे हैं।”

    स्रोत:

    Balwant Singh Ke Behtareen Afsane (Pg. 203)

      • प्रकाशक: साहित्य अकादमी, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1995

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