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दर्स-ए-मोहब्बत

नियाज़ फ़तेहपुरी

दर्स-ए-मोहब्बत

नियाज़ फ़तेहपुरी

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    स्टोरीलाइन

    यह यूनान की अपने ज़माने में सबसे ख़ूबसूरत लड़की की कहानी है, जो ज़ोहरा देवी के मंदिर में रहती है। उसके हुस्न के चर्चे हर तरफ़ हैं। यहाँ तक कि उस मुल्क का शहज़ादा भी उसका दीवाना है। एक रात वह उससे एक नदी के किनारे मिलता है और वहाँ वह शहज़ादे को मोहब्बत का ऐसा दर्स देती है कि जिसमें वह फे़ल हो जाता है और वह हसीन लड़की एक किसान के बेटे के साथ शादी कर लेती है।

    मा'बद ज़ोहरा की कुंवारियाँ सबकी सब पाक-बाज़ रही हों या इस्मत-फ़रोश। इससे बह्स नहीं। लेकिन हक़ीक़त ये है कि दुर्दाना, ज़ोहरा की परस्तिश उसको इस्मत की देवी ही समझ कर करती थी और जिस वक़्त वो मा'बद से तजदीद-ए-तक़द्दुस के बाद बाहर निकलती तो लोग ऐसा महसूस करते कि शायद दुनिया में तख़लीक़ की इब्तिदा अभी हुई है और क़ल्ब-ए-इंसानी इन ज़रूरियात से हनूज़ ना-आशना है जो ख़ून में ना-ज़ायज़ गर्मियात पैदा करके रूह को आहिस्ता-आहिस्ता दाग़-दार करते रहते हैं।

    यूनान के मज़हबी दौर-ए-हुस्न-परस्ती का वो ज़माना इन्हितात था जब यूनान का एक-एक नौजवान क़ल्ब अलग-अलग एक मख़सूस ज़ोहरा का मा'बद बना हुआ था और मज़हब उनके हाँ नाम था महज़ उस ज़िंदगी का जिसकी तरकीब सिर्फ़ औरत, शबाब, हुस्न और इश्क़ के अनासिर-ए-राबेआ से हुई थी।

    ख़ानक़ाह-ए-ज़ोहरा का एक एक हुजरा, बाग़-ए-मा'बद का एक-एक कुंज जहाँ किसी वक़्त हुस्न-ए-फ़ितरत की परस्तिश हुआ करती थी जो किसी ज़माने में मख़सूस था। सिर्फ़ जमील मनाज़िर-ए-क़ुदरत के मुतालेआ के लिये अब एक ख़लवत-कदा था, जहाँ इस्मत आग़श्ता-ब-ख़ूँ और मुहब्बत माइल-ब-जुनूँ, नज़र आती थी।

    मुल्क का कोई नौजवान ऐसा था जिसने अपनी उम्र के सैकड़ों दिन इस सई में बसर कर दिए हों कि इस फ़िज़ा की कम-अज़ कम एक ही मुअत्तर रात उसे मुयस्सर जाए और मुश्किल से कोई आशुफ़्ता-शबाब ऐसा मिलेगा जिसने एक मर्तबा इसमें कामयाबी हासिल करने के बाद दुनिया में फिर किसी और लज़्ज़त की ख़्वाहिश की हो।

    दुर्दाना एक अमीर ख़ानदान की लड़की थी जिसको उसके वालदैन ने एक ख़्वाब की हिदायत के मुताबिक़ ख़ानक़ाह-ए-ज़ोहरा के लिये वक़्फ़ कर दिया था और जिसकी कमसिनी यहीं की सम-आलूद फ़िज़ा में रै'आनुश-शबाब तक पहुँची थी। इसमें शक नहीं कि यूँ तो ख़ानक़ाह की हर कुंवारी अपनी-अपनी जगह एक बे-पनाह मुजस्सिमा-ए-हुस्न-ए-सबात थी लेकिन दुर्दाना! उसका तो ये आलम था जैसे फ़ितरत के किसी हसीन ख़्वाब ने इंसानी सूरत इख़्तियार कर ली हो।

    लोग कहते थे कि दुर्दाना से ज़ियादा हसीन होना गोया ख़ुदा हो जाना है और शायद यही वो जज़्बा था जिसने अभी तक किसी के दिल में उसके पास इल्तिजा-ए-ग़ैर-मासूम ले जाने की हिम्मत पैदा होने दी थी। लेकिन ये कौन कह सकता है कि गुज़िश्ता दो साल के अंदर जब से उसने नमूद-ए-शबाब के बाद, हस्ब-ए-दस्तूर नक़ाब-पोश हो कर निकलना शुरू किया था, लोगों की तमन्नाओं में किस क़दर तलातुम बरपा कर दिया था।और उनका तख़य्युल उसके नक़ाब-पोश हुस्न को किस-किस अंदाज़ से उरिर्याँ देखा करता था।

    यूँ तो मुल्क का हर वो शख़्स जिसकी रगों में ख़ून दौड़ रहा था, दुर्दाना के लिये यकसर इज़तिराब-ए-शौक़ बना हुआ था। लेकिन सबसे ज़ियादा नुमायाँ और अपने आपको मुस्तहिक़-ए-कामयाबी समझने वाली हस्ती, शहज़ादा नैरोबी की थी। जो सिर्फ़ अपने हुस्न-ओ-सूरत बल्कि इक़्तिसाबात-ए-ज़हनी के लिहाज़ से भी इस वक़्त यूनान का एक ही नौजवान था।

    चाँदनी रात थी, ख़ानक़ाह के नीचे बहने वाली नदी में चाँद ने चराग़ाँ कर रखा था और वादी पर सुकून-ए-मुतलक़ तारी था कि दफ़्अतन उस सुकून में तब्दीली पैदा हुई और साहिल के एक जानिब से बरबत के तारों की नाज़ुक लर्ज़िश आ-आ कर हवा में मिलने लगी। रफ़्ता-रफ़्ता उस लर्ज़िश का तवातुर बढ़ा, झंकार में ज़ोर पैदा होने लगा और निसाई आवाज़ मौसीक़ी बन-बन कर तारों पर दौड़ने लगी। दुर्दाना का मामूल था कि कभी-कभी वो रात को तन्हा निकल कर साहिल पर जाती और देर तक बैठी हुई बरबत के साथ गाया करती।उसका गाना हक़ीक़तन एक क़िस्म की इबादत था। उसकी मौसीक़ी गोया उसकी परस्तिश की ज़बान थी जिसके समझने वाले और जिससे सही असर लेने वाले उसे कहीं नज़र आते थे और इसलिये वो जंगल ही की बे जान चीज़ों के सामने अपना फ़लसफ़ा बयान क्या करती और यहीं कभी हँसती हुई और कभी आँसू ख़ुश्क करती हुई वापस जाती।

    सफ़ेद चादर, चाँदनी रात और दुर्दाना का बे-नक़ाब हुस्न-ए-सबीह, हक़ीक़त ये है कि इस नुक़रई लौह पर ये नक़्श समयें मुश्किल से उभर सकता। अगर उसके बालों की गहरी सियाही इस यकसानियत को दूर करने वाली होती। वो एक चट्टान पर पाओं टिकाए हुए बैठी थी और बरबत पर अपनी लांबी, नाज़ुक उँगलियों से अपनी दास्तान-ए-परस्तिश कह रही थी।

    जब रात ज़ियादा बुलंद हो चुकी और चाँद बुलंद हो कर दुर्दाना के सर से गुज़रने लगा तो उसने उठने का इरादा किया लेकिन वो खड़ी होना चाहती थी कि सामने कुंज से एक इंसान सफ़ेद चादर में मलफ़ूफ़ आगे बढ़ता हुआ नज़र आया। पहले तो वो कुछ डरी, लेकिन चूँकि एक पाक-बाज़ दिल दुनिया में किसी चीज़ की तरफ़ से अरसे तक ख़ाइफ़ नहीं रह सकता, इसलिये वो फिर इतमीनान से वहीं बैठ गई और जिस वक़्त आने वाले ने उसके इस्तिफ़सार के जवाब में अपना नाम नैरोबी बताया तो दुर्दाना ताज़ीमन खड़ी हो गई और बोली कि शाहज़ादे को किस चीज़ ने ऐसे ना-वक़्त इस क़द्र ज़हमत बर्दाश्त करने पर मजबूर कर दिया।

    नैरोबी बोला, क्या वो ख़ातून जिस को दुनिया में सबसे ज़ियादा हसीन होने का इम्तियाज़ हासिल है इस बात को नहीं समझ सकती कि नैरोबी... जिसकी ज़िंदगी में अब कोई वक़्त, वक़्त कहलाए जाने के क़ाबिल नहीं रहा। मगर वो जो किसी हक़ीक़ी हुस्न के सामने बसर हो क्यों ऐसे ना-वक़्त इस क़दर ज़हमत बर्दाश्त करने पर मजबूर हो गया।

    दुर्दाना ये सुन कर सिर्फ़ हँस दी। नैरोबी सिलसिला-ए-गुफ़्तगू जारी रखते हुए बोला, जिसने तेरा मुँह इन पाकीज़ा मोतियों से भरा है क्या वो तुझे इस अम्र पर मजबूर नहीं कर सकता कि तू मेरी क़िस्मत का आख़िरी फ़ैसला सुना दे।

    दुर्दाना बोली, आहा! शाहज़ादा नैरोबी तो बहुत अच्छा शायर है। और ये कह कर फिर हँस दी। शाहज़ादा नैरोबी बोला, उफ़! दुर्दाना घड़ी-घड़ी हँस क्योंकि चाँदनी रात में बाबूना के फूलों की बहार मुझे अज़ ख़ुद...

    दुर्दाना, ख़ूब! फिर वही शायरी, शाहज़ादे! तूने ये फ़न कहाँ और कब सीखा? अगर मैं रात भर हँसती रहूँ तो भी शायद तेरी नई-नई तशबीहों का सिलसिला ख़त्म हो। मैंने भी एक मर्तबा कोशिश करके एक शेअर कहा था लेकिन वो बहुत मामूली था।

    नैरोबी, मुझे सुनाओ! यक़ीनन वो बहुत अच्छा होगा।

    दुर्दाना, नहीं, वो निहायत मामूली है, उसमें कोई तशबीह नहीं है। मुझे नहीं मा'लूम तशबीह किसे कहते हैं, इसमें कोई नई बात नहीं है।

    नैरोबी, तुम्हारे लिये ये मामूली बात होगी। लेकिन मेरे लिये तो हर वो लफ़्ज़ सुकून-ए-जान है जो दुर्दाना के मुँह से निकले।

    दुर्दाना, मुझे शर्म आती है। तुम सुन कर मुझ पर हँसोगे और हाँ अब तो मुझे वो याद भी नहीं रहा, कोशिश करूँ तो शायद सिर्फ़ ख़्याल ज़ाहिर कर सकती हूँ।

    नैरोबी, अच्छा वही सही, ख़्याल ही सही।

    दुर्दाना, एक दिन में मा'बद में देवी ज़ोहरा के सामने सर ज़मीन पर रखे हुए रो रही थी कि उसी हालत में मुझे नींद गई। मैंने एक ख़्वाब देखा जो निहायत दिलकश था। सुबह को निहायत मसर्रत के आलम में जब अपना बरबत मैंने लिया तो बे-इख़्तियार मेरी ज़बान से एक शेअर निकल गया। जिसका मफ़हूम ये था कि,

    वो लोग जो मेरे जिस्म को चाहते हैं उनसे क्यों कर कहूँ कि मेरी रूह तो इससे कहीं ज़ियादा हसीन है। मेरे चेहरे को बे-नक़ाब देखने की आरज़ू रखने वाले काश मेरी रूह को बे-हिजाब देखते। मगर अफ़सोस कि सूरत पर जान देने वाले बहुत हैं और मुझसे मोहब्बत करने वाले कम।

    देखो! मैं कहती थी कि तुम हँसोगे, वाक़ई निहायत भद्दा ख़्याल है। शायरी की इसमें कोई बात नहीं पाई जाती।

    नैरोबी, मुझे धोका दे। तूने कभी कोई शे'र नहीं कहा। में ऐसा बेवक़ूफ़ नहीं, जो समझ सकूँ, तूने मुझे समझाने के लिये मुझको तंबीह करने के लिये एक बात बनाई है। ये तूने कैसे जाना कि में सिर्फ़ तेरे जिस्म का परसतार हूँ, सिर्फ़ तेरी सूरत का शैदाई हूँ।

    दुर्दाना, हाँ... ये तुमने क्या कहा? मुझे तो ये भी मालूम था कि तुम मुझसे मोहब्बत करते हो, इससे क़ब्ल जब कभी तुमने मुझसे बातें कीं, मैंने उनको हमेशा वो इल्तिफ़ात समझा जो एक बादशाह की तरफ़ से ग़रीब गदा पर हुआ करता है, मुझे तो कभी इसका वह्म-ओ-गुमान भी हो सकता था कि वाली-ए-यूनान का बेटा मुझ ऐसी ज़लील-ओ-ख़्वार हस्ती के लिये अपनी ज़िंदगी का कोई लम्हा-ए-मोहब्बत भी सर्फ़ कर सकता है। तो क्या तुम मुझसे मोहब्बत करते हो? वाक़ई मोहब्बत करते हो? मैं कैसे यक़ीन करूँ?

    नैरोबी, दुर्दाना! यक़ीन करो कि वो नैरोबी, जो मुल्क की बेहतर से बेहतर लड़की के साथ शादी कर सकता है। एक ज़माने से तेरा दीवाना है और हर चंद वो अब तेरे चेहरे को बे-नक़ाब नहीं देख सकता। लेकिन तेरे हुस्न-ओ-जमाल के ख़्वाबों से अब भी उसकी नींदें मा'मूर हैं और तेरे जलवे की याद से उसकी रातें रौशन।

    दुर्दाना, हुस्न-ओ-जमाल! जलवा! मैं इनके सही मफ़हूम से ना-वाक़िफ़ हूँ, क्या अच्छी सूरत को हुस्न-ओ-जमाल कहते हैं, चेहरे का यासमीन, रुख़सार का गुलाब, आँख का नशा, अबरू की मेहराब, जिस्म का तनासुब, लबों की ताज़गी, दांतों की गुहर-मआबी, रंग की ताज़गी, जिनका ज़िक्र अक्सर शायरों की ज़बान पर रहता है क्या उन्हीं चीज़ों का नाम हुस्न है। क्या उन्हीं बातों को जमाल कहते हैं और क्या उन्हीं चीज़ों का बे नक़ाब हो जाना जलवा कहलाता है। अगर दुनिया-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत का फ़लसफ़ा सिर्फ़ इस क़दर है तो मुझे हैरत है कि इस बे-बुनियाद जज़्बे ने क्यों कर ऐसी वुसअत हासिल करली और फ़ितरत क्यों अपनी तौहीन गवारा कर रही है। मगर आप शहज़ादे हैं और आपके ख़्यालात-ओ-जज़्बात भी यक़ीनन आम सत्ह से बुलंद होंगे, इसलिये शायद आपके हुस्न-ओ-जमाल का मफ़हूम इस क़दर अदना-ओ-पस्त होगा।

    नैरोबी, बे-शक आम शायरों के हाँ और मामूली इंसानों के नज़दीक हुस्न-ओ-जमाल का मफ़हूम वही है जो तुमने अभी ज़ाहिर किया। लेकिन मैं तो उन लोगों में हूँ जो सूरत से ज़ियादा अदा को देखते हैं। जो आज़ा के हुस्न से ज़ियादा अत्वार की दिल-फ़रेबी पर फ़रेफ़्ता होते हैं और ग़ालिबन यही वो चीज़ है जो तुझ में ब-दर्जा-ए-कमाल पाई जाती है।

    दुर्दाना, अदा! अत्वार! आह, शायरों और आशिक़ों की इस्तिलाहें समझना भी किस क़दर दुश्वार है। आप यक़ीन कीजिये कि मेरा ज़ह्न इन दोनों के मफ़हूम से भी बिल्कुल ख़ाली है और शायद मैं कभी समझ सकूँगी कि इनका हक़ीक़ी मतलब क्या है। क्योंकि इससे क़ब्ल भी बारहा जब मैंने शायरों के कलाम पर ग़ौर किया तो मैं बा-वजूद कोशिश के कभी समझ सकी कि अदा और उसके साथ बहुत से अलफ़ाज़ मसलन ग़मज़ा, करिश्मा, इश्वा, नाज़, तेवर, चितवन, बाँकपन, फबन वग़ैरा किसे कहते हैं और इनमें क्या फ़र्क़ है। आपने अभी अदा और अत्वार का ज़िक्र किया। इसलिये क्या मैं पूछ सकती हूँ कि अगर आपने मेरे अंदर इन बातों को देख कर मोहब्बत की है तो ये चीज़ें मुझमें कहाँ हैं?

    नैरोबी, दुर्दाना! ये तू कैसी गुफ़्तगू कर रही है। तुझ ऐसी मुकम्मल औरत, जो यूनानी इंशा आलिया की माहिर हो। जो फ़ुनून-ए-लतीफ़ा में अपना नज़ीर रखती हो, जो अच्छी तरह इस कैफ़ियत से वाक़िफ़ हो कि सारा यूनान उस का फ़रेफ़्ता है। ऐसी अनजान बन जाए तो मैं क्या कह सकता हूँ, तू मुझको इस वक़्त बेवक़ूफ़ बना रही है और फिर क़िताला-ए-आलम मुझी से पूछती है कि अदा किसे कहते हैं। अच्छा मैं पूछता हूँ कि तुझे चाँदनी रात क्यों अच्छी मा'लूम होती है। तुझे अपने बरबत से क्यों मोहब्बत है। तू मौसीक़ी की क्यों दिलदादा है। अगर तू किसी और तरह नहीं समझ सकती तो यूँ समझ ले कि तू मेरी चाँदनी है। तू मेरी हस्ती का बरबत है और मेरी रूह को बेताब कर देने वाला नग़मा-ए-शीरीं।

    दुर्दाना, चाँदनी तो मुझे इसलिये अच्छी मालूम होती है कि मैं इसमें ज़ियादा जोश से अपने बरबत के साथ हम-आहंग हो सकती हूँ और अपने साज़-ओ-मौसीक़ी से इसलिये लगाव है कि ये मेरी परस्तिश है। यूँ समझ लो कि चाँदनी रात सुनहरा फ़र्श है, जिस पर बैठने के बाद बरबत के तारों पर मेरी उँगलियों की लर्ज़िश और गले से निकल कर आवाज़ की नियाइश इबादत बन जाती है और अगर मेरे दिल से ये कैफ़ियत मह्व हो जाए तो मेरे लिये इनमें से एक चीज़ भी तवज्जो के क़ाबिल रहे।

    नैरोबी, मेरे दिल की देवी! मैं भी तुझसे मोहब्बत नहीं करता बल्कि तुझे पूजता हूँ। मैंने ग़लती की कि अपने हाल को मोहब्बत के लफ़्ज़ से ज़ाहिर किया और इससे ज़ियादा ग़लती ये की कि तुझे हसीन-ओ-जमील के लक़ब से याद किया। हालांकि तू इससे भी बुलंद कोई और चीज़ है जिसके ज़ाहिर करने के लिये इंसान के अलफ़ाज़ आजिज़ हैं। ज़ियादा से ज़ियादा अगर मैं कह सकता हूँ तो सिर्फ़ ये कि तू मेरी मा'बूद है। तू मेरी देवी है और मैं तेरा परसतार हूँ, तेरा पुजारी हूँ।

    दुर्दाना, क्या ये सही है? लेकिन तुम दुर्दाना की परस्तिश करते हो या मेरी?

    नैरोबी, मैं नहीं समझा, क्या दुर्दाना और तू अलैहदा-अलैहदा चीज़ें हैं?

    दुर्दाना, हाँ दुर्दाना नाम है इस जिस्म का जो इस वक़्त तुम्हें नज़र रहा है और जो हर वक़्त तग़य्युर-पसंद-ओ-फ़ना-पज़ीर है और मैं तो ये जिस्म नहीं हूँ।

    नैरोबी, फिर क्या हो?

    दुर्दाना, मैं नाम है फ़ितरत का, रूह का, वजदान का। जिसमें हर वक़्त रिफ़अत है, बुलंदी है, इर्तिक़ा है।

    नैरोबी, तो फिर मैं दुर्दाना से मोहब्बत नहीं करता, बल्कि तुझ से, तुझी को चाहता हूँ।

    दुर्दाना, मगर एक ज़माना आएगा जब मेरी सूरत ख़राब हो जाएगी, दुर्दाना मकरूह हो जाएगी। क्या तुम उस वक़्त भी मुझ पर यही मोहब्बत सर्फ़ करोगे?

    नैरोबी, यक़ीनन।

    दुर्दाना, अच्छा अगर ये सही है तो फिर मेरा फ़ैसला यही है कि दुर्दाना नैरोबी की हो सके या हो सके लेकिन मैं तुम्हारी ज़रूर हूँ और परसों शाम को इसी ख़लवत-गाह में अपने आपको तुम्हारे सुपुर्द कर दूँगी।

    नैरोबी, उस वक़्त अपने आपको सही मानी में बादशाह समझने लगा था। वो कहा करता था कि दुर्दाना ऐसी हस्ती पर क़ाबू पा लेना गोया दुनिया फ़त्ह कर लेना है। इसलिए वो ग़ैर-मामूली मसर्रत-ओ-निशात की कैफ़ियत लिये हुए वापस गया और इंतज़ार के दो दिन गुज़ारना उसके लिये दुश्वार हो गया।

    आफ़ताब ग़ुरूब हो चुका था। शफ़क़ की रौशनी हाथों की हिनाई की तरह आहिस्ता-आहिस्ता हटती जा रही थी और नैरोबी दो घंटे से साहिल पर दुर्दाना का इंतज़ार कर रहा था कि शाम के धुंदलके में कुछ फ़ासले पर एक नक़ाब-पोश औरत आती नज़र आई और नैरोबी उसके लेने के लिये आगे बढ़ा। उसने दुर्दाना की कमर में हाथ डाल दिया, लेकिन उसने कोई मुज़ाहमत की। उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। मगर वो कुछ बोली। उसने अपने जिस्म को उसके जिस्म से मिला दिया लेकिन वो ख़ामोश रही। नैरोबी की मसर्रत का उस वक़्त क्या अंदाज़ हो सकता है।वो समझ रहा था कि कायनात की तख़लीक़ ही सिर्फ़ उसकी आरज़ूएँ पूरी करने के लिए हुई है और आज उसे हक़ हासिल है कि जिसको जिस तरह चाहे, चलाए।

    साहिल की उस चट्टान पर पहुँच कर जहाँ अब से दो-दिन क़ब्ल अहद-ओ-पैमान हुआ था, दुर्दाना नैरोबी से अलैहदा हो कर खड़ी हो गई और बोली कि तुम मेरी आवाज़ पहचानते हो? नैरोबी बोला क्यों नहीं क्या कोई शख़्स ऐसी शीरीं आवाज़ को एक मर्तबा सुनने के बाद अपने दिमाग़ से मह्व कर सकता है।

    दुर्दाना ने कहा, तुम मेरे क़द-ओ-क़ामत से भी मुझे जान सकते हो?नैरोबी ने कहा, ख़ूब! कौन है जो इस सर्व-ख़िरामाँ का नज़ारा करने के बाद फिर इसे फ़रामोश कर सके।

    दुर्दाना, मैंने गुज़िश्ता दो रातें मा'बद के अंदर सिर्फ़ इस दुआ में सर्फ़ कर दी हैं कि अगर नैरोबी वाक़ई सिर्फ़ रूह से मोहब्बत करता है तो मेरी सूरत में कोई तग़य्युर ऐसा कर दिया जाए जो दुनिया के इस सबसे ज़ियादा अनोखे अहद-ओ-पैमान की यादगार बन सके और मुझे यक़ीन है कि मेरी ये दुआ क़ुबूल हुई होगी, इसलिए मैं नक़ाब उलटती हूँ, मेरे चेहरे को देख कर पहचान लो कि वाक़ई मैं दुर्दाना हूँ या नहीं?

    ये कह कर जिस वक़्त दुर्दाना ने अपना नक़ाब उल्टा और नैरोबी की निगाह उस पर पड़ी तो हैरत ने उस पर सकता तारी कर दिया। क्योंकि दुर्दाना के हसीन चेहरे के बजाय एक ऐसी करीहा सूरत उसके सामने थी कि मुश्किल से वो उसको निगाह भर कर देख सकता था, तमाम जिल्द पर गहरे चेचक के दाग़। नाक, बैठी हुई। आँखें, छोटी। भवें, नदारद। पेशानी, तंग। होंट, मोटे-मोटे। ये था दुर्दाना का चेहरा जो नैरोबी को नज़र आया।

    दुर्दाना, देर तक नैरोबी की इस हैरत से लुत्फ़ उठाती रही और फिर बोली शहज़ादे जल्दी कीजिये और मुझे अपने साथ ले चलिए। मैं आसमान-ओ-ज़मीन के पैदा करने वाले के सामने उसके पाकीज़ा-ओ-मुक़द्दस जंगल में अहद करने आई हूँ कि मैं हमेशा आपकी हो कर रहूँगी और अपनी तमाम रूहानी बरकतें-ओ-लज़्ज़तें आपके लिये वक़्फ़ कर दूँगी।

    नैरोबी हैरान था कि सिवाय चेहरे के ये औरत और सब तरह दुर्दाना ही थी। लेकिन इसकी सूरत में ये तग़य्युर कैसे हो गया, क्या वाक़ई इसकी दुआ क़ुबूल हो गई या किसी और औरत को भेज कर मुझे धोका दिया जा रहा है। वो इस मसले पर ग़ौर ही कर रहा था कि दुर्दाना ने फिर तक़ाज़ा क्या और बोली कि शहज़ादे ये सुकूत कैसा, ये हैरत क्यों, अपने वा'दे को भूल गए। क्या तुमने ये नहीं कहा था कि मेरी परस्तिश करते हो। मुमकिन है कि मैं दुर्दाना रही हूँ। लेकिन मैं तो हूँ, फिर ये पस-ओ-पेश क्या?

    नैरोबी, जिसको उसकी गुफ़्तगू का अब बिल्कुल यक़ीन हो गया था कि वाक़ई दुर्दाना है उसकी सूरत हक़ीक़तन मस्ख़ हो गई है। थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद बोला कि दुर्दाना! नहीं अब मैं तुझे दुर्दाना नहीं कह सकता। औरत! माफ़ कर, मुझसे ग़लती हुई कि मैंने अपने जज़्बे का सही अंदाज़ नहीं किया था और एक ऐसा वादा कर लिया था जिसको अब मैं पूरा नहीं कर सकता। जो ऐसे करीह मलबूस में ज़ाहिर हो। मैं तुझे अपनी बीवी बना कर क्यों कर मख़लूक़ को अपना चेहरा दिखा सकता हूँ और किस तरह इस तनफ़्फ़ुर-ओ-कराहमत को दूर कर सकता हूँ। जो तेरी सूरत देख कर मेरे दिल में पैदा होती है?

    दुर्दाना ये सुन कर हँसी और बोली कि अए शहज़ादे तुम्हारी ख़ुशी, मैंने तुमको मजबूर नहीं किया था। बल्कि तुम्हीं ने मेरे सामने इल्तिजा पेश की थी। इसलिये याद रखो कि अगर आइन्दा कभी तुम्हें नक़्ज़-ए-अहद पर अफ़सोस करना पड़े तो उसका इल्ज़ाम मुझ पर रखना।

    दुर्दाना ने ये कहा और नक़ाब डाल कर वहाँ से चल दी।

    गुज़िश्ता वाक़ेआ को दो माह का ज़माना गुज़र गया है और ख़ानक़ाह-ए-ज़ोहरा के अहाते में किसी मख़सूस तक़रीब की तैयारियाँ हो रही हैं। मा'बद-ए-ज़ोहरा में ये रस्म निहायत पाबंदी के साथ जारी थी कि जिस वक़्त किसी कुंवारी की उम्र 19 साल की हो जाती थी तो आम जलसा किया जाता था और उसको इंतिख़ाब-ए-शौहर की इजाज़त दी जाती थी। चुनाँचे आज दुर्दाना अपनी उम्र के 19 साल पूरी कर चुकी थी और उसको ख़ानक़ाह की परसताराना ज़िंदगी तर्क करके मुशाहिल-ए-ज़िंदगी में दाख़िल होना था।

    चूँकि दुर्दाना के हुस्न-ओ-जमाल, फ़ज़्ल-ओ-कमाल का बहुत शोहरा था और इस तारीख़ का ऐलान तमाम क़ुर्ब-ओ-जवार के मुल्कों में भी कर दिया गया था। इसलिये ख़्वाहिश-मंदों का हुजूम बहुत था और हर मुल्क का अमीर-ज़ादा बेहतरीन हिदाया ले कर हाज़िर हुआ था। नैरोबी उस रात की सुबह ही को अपना ग़म-ओ-ग़ुस्सा दूर करने शिकार के लिये चला गया था और पूरे दो माह के बाद इस रात को वापस आया जिसकी सुबह को ये तक़रीब अमल में आने वाली थी।

    उसने सुना और अपने जी में हंसा कि देखिए वो कौन बद-क़िस्मत है जो दुर्दाना की शोहरत-ए-जमाल से धोका खा कर इस अज़ाब को मोल लेगा। सुबह को वो भी तमाशा देखने गया लेकिन लोगों को सख़्त ता'ज्जुब हुआ, जब उन्होंने सुना कि नैरोबी जो दुर्दाना का हद-दर्जा शेफ़्ता था कोई हदिया ले कर नहीं आया और फ़ेहरिस्त में अपना नाम भी दर्ज नहीं कराया। कोई पूछता तो भी हँस देता और कहता कि, हाँ दुर्दाना की ख़्वाहिश अब मेरे दिल के अंदर मुर्दा हो गई है।लेकिन जब उससे ज़ियादा इसरार किया गया तो उसने अपने बा'ज़ अहबाब से अस्ल वाक़ेआ भी बता दिया और रफ़्ता-रफ़्ता ये ख़बर दोपहर तक पूरी तरह मुंतशिर हो गई और हर शख़्स अपनी-अपनी जगह फ़िक्र-मंद नज़र आने लगा। ख़ानक़ाह के पुजारियों से दरयाफ़्त किया गया, वहाँ की कुंवारियों से जुस्तजू की गई, लेकिन सबने यही जवाब दिया कि अब से दो माह क़ब्ल तो दुर्दाना की सूरत निहायत अच्छी थी लेकिन गुज़िश्ता दो महीने के अंदर उसने अपने चेहरे का नक़ाब बहुत संगीन कर दिया है और किसी को उसकी सूरत देखने का मौक़ा नहीं मिला। मुमकिन है कि देवी ने उसकी सूरत मस्ख़ कर दी हो और उसके छुपाने के लिये वो अपनी सूरत दिखाने से एहतिराज़ करती हो। रफ़्ता-रफ़्ता ये ख़बर इस क़दर आम हुई और इस दर्जा लोगों को यक़ीन हो गया कि सबने अपनी-अपनी ख़्वाहिशें वापस ले लीं और शाम को जब सह्न-ए-ख़ानक़ाह में ज़र्रीं-तख़्त पर दुर्दाना बैठी ताकि हर ख़्वाहिश-मंद सामने कर अपनी इल्तिजा पेश करे और वो उसका जवाब दे तो एक मुतनफ़्फ़िस भी सामने आया। नाम पुकारा जाता था, लेकिन मजमे से निकल कर कोई शख़्स आगे बढ़ता था। यहाँ तक कि एक-एक करके सारे नाम ख़त्म हो गए। फ़ेहरिस्त में अब सिर्फ़ एक नाम रह गया था जो सबसे आख़ीर में इसलिये रखा गया था कि वो एक निहायत ही मा'मूली किसान के लड़के का था। जब सब नाम ख़त्म हो गए तो उसका नाम भी पुकारा गया और वो डरता काँपता आगे बढ़ा और तख़्त के पास पहुँच कर बोला कि, दुर्दाना! मैंने तेरी ख़्वाहिश इसलिये नहीं की कि तू हसीन-ओ-जमील है। बल्कि सिर्फ़ इसलिये की थी कि दुनिया में मुझे एक रूह की ज़रूरत थी जो मेरी रूह की तड़प को दूर कर दे और मुझे सच्ची परस्तिश का सबक़ दे। मैंने सुना था कि तू बड़ी बुलंद फ़ितरत रखती है और तेरी पूजा से ज़ोहरा की ख़ानक़ाह जगमगा उठती है। फिर ये भी ख़ुदा की क़ुदरत है कि इसने तेरा ज़ाहिरी हुस्न-ओ-जमाल छीन लिया और कोई नौजवान तेरे हाथ का ख़्वाहाँ आगे बढ़ा। यहाँ तक कि मेरा नाम पुकारे जाने की नौबत आई। इस लिए मैं हाज़िर हुआ हूँ। क्या तेरी पाकीज़ा रूह मेरी आलूदा रूह के इत्तिसाल को गवारा कर सकेगी?

    मजमे पर एक सुकूत तारी था और हर शख़्स मुंतज़िर था कि देखिए दुर्दाना क्या जवाब देती है कि नक़ाब के अंदर से एक नाज़ुक शीरीं आवाज़ आई,

    अजनबी! चूँकि तू सिर्फ़ मेरी फ़ितरत का गर्वीदा हो कर आया है, इसलिये यक़ीनन मैं तेरी ख़्वाहिश को रद करूँगी।

    और ये कह कर उसने नक़ाब उठा दिया। क्योंकि इंतिख़ाब की रस्म अदा होने के बाद ऐसा करना ज़रूरी था, लेकिन नक़ाब का उठना था कि सारे मजमे में हलचल मच गई। क्योंकि उस वक़्त दुर्दाना बिल्कुल चौहदवीं का चाँद मा'लूम होती थी और उसके हुस्न-ओ-जमाल की ताब-ए-नज़ारा भी लोगों में थी।

    नैरोबी, दीवाना-वार आगे बढ़ा और बोला, अए दुर्दाना! ये क्या, ऐसा सख़्त फ़रेब!

    दुर्दाना मुस्कुरा कर बोली, फ़रेब तो तेरी ही मकरूह फ़ितरत का था। जिसने अपनी सूरत को मेरे चेहरे में मुशाहिदा किया, वर्ना मैं तो जैसी अब हूँ वैसी ही उस वक़्त भी थी।

    ये कह कर दुर्दाना उठी और किसान के लड़के का हाथ पकड़ कर उस गाओं में चली गई जहाँ वो रहता था।

    नैरोबी जिस वक़्त दीवाना-वार दुर्दाना के हुजरे में पहुँचा तो वहाँ उसकी कोई चीज़ उसे नज़र आई, मगर एक मोमी चेहरा, जिस पर निहायत ही बदनुमा ख़त-ओ-ख़ाल बने हुए थे और जिसे उसने उस दिन वाक़ई दुर्दाना का हक़ीक़ी चेहरा समझ कर नफ़रत का इज़हार किया था।

    स्रोत:

    शबनमिस्तान का क़तरा-ए-गौहरीन और दूसरे अफ़्साने

    • लेखक: नियाज़ फ़तेहपुरी
      • प्रकाशक: इदारा अदबुल आलिया, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1960

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