मुसलमान हमेशा एक अमली क़ौम रहे हैं। वो किसी ऐसे जानवर को मुहब्बत से नहीं पालते जिसे ज़िब्ह कर के खा ना सकें।
जो शख़्स कुत्ते से भी ना डरे उसकी वलदियत में शुब्हा है।
बंदर में हमें इसके 'अलावा और कोई ऐब नज़र नहीं आता कि वो इन्सान का जद्द-ए-आला है।
मुर्ग़ की आवाज़ उसकी जसामत से कम-अज़-कम सौ-गुना ज़ियादा होती है। मेरा ख़्याल है कि अगर घोड़े की आवाज़ इसी मुनासिबत से होती तो तारीख़ी जंगों में तोप चलाने की ज़रूरत पेश ना आती।
उम्र-ए-तबीई तक तो सिर्फ़ कव्वे, कछुवे, गधे और वो जानवर पहुंचते हैं जिनका खाना शर्अ़न हराम है।