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आलम ख़ुर्शीद

1959 | पटना, भारत

महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक शायर।

महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक शायर।

आलम ख़ुर्शीद के शेर

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इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े

तुझ से हो कर हम ख़फ़ा ख़ुद से ख़फ़ा रहने लगे

बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में

फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से

पूछ रहे हैं मुझ से पेड़ों के सौदागर

आब-ओ-हवा कैसे ज़हरीली हो जाती है

हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं

भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं

मैं ने बचपन में अधूरा ख़्वाब देखा था कोई

आज तक मसरूफ़ हूँ उस ख़्वाब की तकमील में

रात गए अक्सर दिल के वीरानों में

इक साए का आना जाना होता है

दिल रोता है चेहरा हँसता रहता है

कैसा कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है

माँगती है अब मोहब्बत अपने होने का सुबूत

और मैं जाता नहीं इज़हार की तफ़्सील में

लकीर खींच के बैठी है तिश्नगी मिरी

बस एक ज़िद है कि दरिया यहीं पे आएगा

कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं

कुछ रस्तों को हम आसान नहीं करते

आए हो नुमाइश में ज़रा ध्यान भी रखना

हर शय जो चमकती है चमकदार नहीं है

चारों तरफ़ हैं शोले हम-साए जल रहे हैं

मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ

कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है

ऐरों ग़ैरों का एहसान उठाना पड़ता है

पीछे छूटे साथी मुझ को याद जाते हैं

वर्ना दौड़ में सब से आगे हो सकता हूँ मैं

किसी के रस्ते पे कैसे नज़रें जमाए रक्खूँ

अभी तो करना मुझे है ख़ुद इंतिज़ार मेरा

तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे

सो तुझ को लफ़्ज़ में तस्वीर करता रहता हूँ

तहज़ीब की ज़ंजीर से उलझा रहा मैं भी

तू भी बढ़ा जिस्म के आदाब से आगे

अपनी कहानी दिल में छुपा कर रखते हैं

दुनिया वालों को हैरान नहीं करते

तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है

कपड़े बदल रहा हूँ चेहरा बदल रहा हूँ

कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में

कूज़ा-गर कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है

किसी को ढूँडते हैं हम किसी के पैकर में

किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं

इस फ़ैसले से ख़ुश हैं अफ़राद घर के सारे

अपनी ख़ुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ

अब कितनी कार-आमद जंगल में लग रही है

वो रौशनी जो घर में बेकार लग रही थी

अहल-ए-हुनर की आँखों में क्यूँ चुभता रहता हूँ

मैं तो अपनी बे-हुनरी पर नाज़ नहीं करता

मोहब्बतों के कई रंग रूप होते हैं

फ़रेब-ए-यार से कोई गिला नहीं करते

गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी

पुरानी ईंट से तामीर करता रहता हूँ

रस्तों के पेच-ओ-ख़म ने कहीं और ला दिया

जाना हमें जहाँ था ये मंज़िल नहीं है वो

'आलम' दिल-ए-असीर को समझाऊँ किस तरह

कम-बख़्त ए'तिबार के क़ाबिल नहीं है वो

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