डॉ. जाफ़र अस्करी
ग़ज़ल 10
अशआर 11
नींद आती ही नहीं थी आगही के दर्द से
मौत ने आग़ोश में ले कर सुलाया है मुझे
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छीन लेती है आदमी का वक़ार
मुफ़लिसी भी 'अज़ाब है यारो
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मिट जाएगी वतन से जहालत की तीरगी
वो देख इंक़लाब का सूरज क़रीब है
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इक माँ के दम से ज़ीस्त में रौनक़ थी बरक़रार
अब वो नहीं तो रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ नहीं
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मज़हब से उस के दिल में न पैदा हुआ गुदाज़
ये आदमी तो और भी सफ़्फ़ाक हो गया
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