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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
लोकप्रिय विषयों और शायरों के चुनिन्दा 20 शेर
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परवीन शाकिर ने सोलह साल की उम्र से शायरी शुरू कर दी थी। पहले उन्होंने 'बीना' तख़ल्लुस अपनाया था। क्या आप जानते हैं कि उनका निक नेम क्या था?
परवीन ने मशहूर आलोचक नज़ीर सिद्दीक़ी के नाम अपने एक ख़त में लिखा था:
"पारो मेरा निक नेम है और पारा भी, इस पारो को आप शहपारा या महपारा क़िस्म की चीज़ न समझिएगा बल्कि यहां पारा असली साइंसी मायने में इस्तेमाल हुआ है। बचपन में इतनी शरीर हुआ करती थी कि मेरा पारे जैसा स्वभाव देखते हुए घर वालों ने मुझे पारा कहना शुरू कर दिया। अब शरारत तो ख़त्म हो गई लेकिन निक नेम रह गया। कुछ 'पारा' कहते हैं कुछ 'पारो' कहते हैं।"
परवीन शाकिर के देहांत के बाद सन् 1997 में ये पत्र "परवीन शाकिर के ख़ुतूत नज़ीर सिद्दीक़ी के नाम" से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। नज़ीर सिद्दीक़ी ने इस किताब की भूमिका में लिखा है, "परवीन शाकिर से मेरे संबंध जनवरी 1978 से शुरू हो कर कोई सवा साल तक रहे, इस बीच उनके पच्चीस छब्बीस ख़त आए हैं। ये संबंध जहां तक चल सके अच्छे ही चले, लेकिन जब ख़त्म होने पर आए तो अचानक ख़त्म हो गए।"
ये मुहावरा आपने ज़रूर सुना होगा
"धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का" और ये भी सोचते होंगे कि कुत्ते और धोबी का क्या रिश्ता है और इस मुहावरे के पीछे कौन सी कहानी छुपी है।
लेकिन इस मुहावरे में कुत्ता यानी डॉग बिला वज्ह ही आ गया। दरअस्ल मुहावरा है "धोबी का कत्ता न घर का न घाट का"
अब आप कहेंगे कि "कत्ता" के क्या अर्थ हैं।
"कत्ता" उस मोटे से डंडे को कहते हैं जिससे पीट-पीट कर धोबी घाट पर कपड़े धोया करते थे। जिसको कत्का भी कहते हैं। अब धोबी के लिए रोज़ घाट से घर जाते वक़्त ये वज़्नी डंडा साथ ले जाना भी मुश्किल और उसे घाट पर छोड़ कर जाना भी ठीक नहीं था। इसलिए धोबी वो कत्का रास्ते में किसी मुनासिब जगह छुपा दिया करते और अगले दिन निकाल कर फिर इस्तिमाल कर लिया करते।
अब न जाने धोबी का "कत्ता" कैसे और कब कुत्ता बन कर इस मुहावरे में आ गया।
शब्द 'ग़रीब' के उर्दू में कितने मायने हैं। उर्दू और हिंदी में आम तौर पर इसका मतलब है मुफ़लिस लेकिन दाग़ ने इसे मिसकीन के मायने में भी अपने इस शे'र में किस तरह बांधा है:
पूछो जनाब दाग़ की हमसे शरारतें
क्या सर झुकाए बैठे हैं हज़रत ग़रीब से
अरबी में इसका अर्थ है अजीब या अनोखा जिसकी जड़ है तीन अक्षरीय शब्द अजब। अजीब ओ ग़रीब की तरकीब भी उर्दू में जानी पहचानी है। म्यूज़ियम को हम अजायबघर भी कहने लगे। लेकिन फ़ारसी में इसके मायने हैं अजनबी या परदेसी। 'ग़रीब उल वतन' यानी परदेसी, मुसाफ़िर, बेघरा उर्दू गद्य-पद्य में बहुत आम है। हफ़ीज़ जौनपुरी का यह शे'र बहुत मशहूर है:
बैठ जाता हूं जहां छांव घनी होती है
हाय क्या चीज़ ग़रीब उल वतनी होती है
उर्दू ने अरबी और फ़ारसी के बहुत से शब्दों को अपनाया है लेकिन वह कुछ अलग मायने में इस्तेमाल होते हैं, उनमें से एक शब्द है "लतीफ़ा"जिसका उर्दू में अर्थ है हंसाने वाली कोई छोटी सी कहानी या चुटकुला, जबकि अरबी में इसके मायने हैं नाज़ुक और उम्दा चीज़। अरब मुल्कों में लड़कियों के नाम लतीफ़ा होते हैं। ललित कला के लिए उर्दू में फ़ुनून ए लतीफ़ा शब्द का प्रयोग किया जाता है। लतीफ़ा का संबंध शब्द लुत्फ़ से है जो उर्दू में कई रूप दिखाता है। इसके मायने आनंद, अनुकंपा भी हैं। अमीर मीनाई का मशहूर शे'र है:
लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
वो कहीं मेहरबां न हो जाए
और हफ़ीज़ जालंधरी कहते हैं:
हम से ये बार ए लुत्फ़ उठाया न जाएगा
एहसां ये कीजिए कि ये एहसां न कीजिए
‘‘दीवान’’ ग़ज़ल के उस मजमूए को कहा जाता है जिसको ब-लिहाज़ रदीफ़ ‘‘अलिफ़’’ से ‘‘या’’ तक सिलसिला-वार मुरत्तब किया जाए। जैसे ग़ालिब के दीवान की पहली ग़ज़ल है
‘नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का’
मीर तक़ी ‘मीर’ कहते हैं:
मुझको शायर न कहो 'मीर' कि साहब मैं ने
दर्द-ओ-ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया
अब ये तरीक़ा तक़रीबन मतरूक हो गया है आज-कल शायर अपने मजमू-ए-कलाम शाए करते हैं जिन में नज़्में और ग़ज़लें और दीगर अस्नाफ़-ए-सुख़न शामिल होते हैं और किताब का कोई शायराना सा नाम भी होता है जो उस मजमूए के मिज़ाज से मुताबक़त रखता है।
शायर अपना कलाम जिस कॉपी या नोट-बुक में लिख कर महफ़ूज़ कर लेते हैं वो ‘‘बयाज़’’ कहलाती है आज-कल तो मोबाइल फ़ोन भी बयाज़ का काम देता है।
लोग अपने पसंदीदा शायरों का कलाम भी किसी कॉपी में लिख लेते हैं वो भी ‘‘बयाज़’’ कहलाती है।
उस ने आँचल से निकाली मिरी गुम-गश्ता बयाज़
और चुपके से मोहब्बत का वरक़ मोड़ दिया
जावेद सबा
प्रतिष्ठित शायरों की चुनिन्दा शायरी
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