कश्ती-ए-नूह
हज़रत नूह को ईश्वर ने उन की क़ौम के लिए नबी (दूत) बना कर भेजा था। वो अपनी क़ौम को 900 साल से ज़्यादा समय तक ख़ुदा की ओर बुलाते रहे और एकेश्वरवाद का मतलब समझाते रहे। लेकिन उनकी क़ौम उद्दंड और अवज्ञाकारी थी। नूह ने अपनी क़ौम की उद्दंडता से तंग आ कर उन के लिए ईश्वर से अज़ाब (सज़ा) की प्रार्थना की। उसके बाद ईश्वर ने उन को एक कश्ती बनाने की आज्ञा दी ताकि नूह और उन पर ईमान लाने वाले लोग ईश्वर के अज़ाब से सुरक्षित रह सकें। नूह की कश्ती का मज़ाक़ उड़ाया गया। ईश्वर का अज़ाब नाज़िल हुआ। ज़मीन की तह से पानी निकलने लगा। आसमान से बारिश होने लगी। इस तरह एक भयानक सैलाब ने क़ौम-ए-नूह को घेर लिया। ईश्वर का पैग़ाम आया और नूह अपने मानने वालों के अलावा जीव-जन्तु के एक-एक जोड़े के साथ कश्ती में सवार हो गए।
इस तरह ईश्वर पर ईमान रखने वाले सुरक्षित रहे और ईश्वर का इंकार करने वाले पानी में डूब गए। पानी का तूफ़ान थमने के बाद नूह की कश्ती सही-सलामत एक पहाड़ पर जा कर ठहर गई थी।
इस तलमीह / संकेत में हज़रत नूह के बेटे के बारे में कहा गया है कि नूह ने अंतिम समय तक अपने पुत्र को एक ईश्वर पर ईमान लाने और ईश्वर के अज़ाब से बचने के लिए कश्ती पर सवार होने के लिए कहा था। लेकिन नूह के बेटे ने उन की बात नहीं मानी बल्कि उस ने अपने पिता को जवाब दिया कि ईश्वर के अज़ाब से बचने के लिए पहाड़ की पनाह ले लूँगा। इस तरह नूह का बेटा भी इस सैलाब में डूब गया। इन प्रसंगों के लिए कश्ती-ए-नूह (नूह कि कश्ती) और पिसर-ए-नूह (नूह का बेटा) के संकेत प्रचलित हैं।
आए तूफ़ाँ जो तिरे क़हर का तुग़्यानी पर
कश्ती-ए-नूह भी आ’दा को हो गिर्दाब-ए-सिफ़त
ज़ौक़
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