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क्या आप जानते हैं?

"चचा छक्कन" एक अविस्मरणीय हास्य पात्र है जो हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा बन चुका है। इस अहम पात्र के रचयिता सैयद इम्तियाज़ अली ताज हैं। हुआ यूं कि अंग्रेज़ लेखक जेरोम के उपन्यास "Three Man in a Boat" में एक स्थान पर "अंकल पोडगर" के चित्र टांकने का उल्लेख विनोदप्रिय अंदाज़ में है। 1924 में पत्रिका "नैरंग ए ख़्याल" के संपादक ने इम्तियाज़ अली ताज से फ़रमाइश की कि वे उनके ईद विशेषांक के लिए उस दृश्य का अनुवाद उर्दू में करें। इम्तियाज़ अली ताज ने अनुवाद करने के बजाय अंग्रेज़ी दृश्य सामने रख कर उसे नए सिरे से उर्दू में लिख डाला और अंकल बूचर को उर्दू में "चचा छक्कन" के नाम से नामित किया। उर्दू वालों को यह आलेख नया और दिलचस्प मालूम हुआ, अतः उसी तरह के दूसरे लेख लिखने की फ़रमाइश होने लगी। इस तरह "चचा छक्कन" के मुख्य पात्र को सामने रख कर लगभग दस आलेख अस्तित्व में आ गए जिनमें चचा छक्कन के पारिवारिक जीवन के कुछ पहलुओं का हास्यात्मक वर्णन है। ध्यान रहे कि उस पात्र को सामने रखकर पिछले दिनों दानिश इक़बाल ने एक हास्य नाटक "चचा छक्कन" संपादित किया जिसका सफलतापूर्वक कई बार मंचन किया गया।

क्या आप जानते हैं?

ईद के मा'नी हैं ख़ुशी का वो दिन जो बार-बार आए। ईद-उल-फ़ित्र इस्लामी तेहवार है जिसे हिन्दुस्तान में अक्सर “मीठी ईद” भी कहते हैं। रमज़ान के रोज़ों के बाद इस्लामी महीने "शव्वाल" की पहली तारीख़ को ये तेहवार दुनिया भर में मनाया जाता है इस दिन मुस्लमान फ़ित्रा या’नी ग़रीबों को सदक़ा या दान देते हैं इस लिए उसको ईद-उल-फ़ित्र कहते हैं।
उर्दू शायरी में ईद का चाँद देखने और ईद के दिन गले मिलने पर इतने अशआ’र हैं कि पूरी एक किताब बन सकती है।
ईद का चाँद तुम ने देख लिया
चाँद की ईद हो गई होगी
“ईद का चाँद हो जाना”, या’नी बहुत दिनों बाद मिलना बोल चाल का एक आ’म मुहावरा भी है।
क्या आप जानते हैं “ईदी” क्या होती है?  ईद के दिन बच्चों को घर के सारे बड़े लोग और रिश्तेदार जो पैसे या तोहफ़े देते हैं वो तो ‘ईदी’ होती ही है, इसके अलावा वो नज़्म या अशआ’र जो उस्ताद लोग बच्चों को ईद से एक रोज़ पहले, किसी ख़ुश-नुमा काग़ज़ पर लिख कर ईद की मुबारकबाद के तौर पर देते थे और उसके बदले हक़ उस्तादी वसूल करते थे वो भी ईदी कहलाती थी, वो ख़ुश-नुमा काग़ज़ जिस पर ईद के अशआ’र या क़ित'अ लिखते थे वो भी ईदी कहलाती थी । वो मेवा, मिठाई और नक़दी वग़ैरा जो ईद के दिन ससुराल से आए या ससुराल में भेजी जाये उसको भी ईदी कहते हैं।

क्या आप जानते हैं?

शब्द 'पहर' और 'पहरेदार' का क्या संबंध है। प्राचीन भारत में समय नापने का पैमाना पहर हुआ करते थे। दिन रात के आठ पहर थे और हर पहर तीन घंटे का हुआ करता था।
हर पहर के दौरान पहरेदार चौकसी पर रहते थे और हर घंटा पूरा होने पर धातु के बने घंटे पर चोट दे कर ऐलान करते थे कि वह पहरे पर हैं और दूसरे यह भी पता चलता था कि समय क्या हुआ है।पहर संस्कृत शब्द प्रहर से बना है। अब तो पहरेदार के मायने केवल संतरी, रक्षक या चौकीदार रह गया है।
उर्दू शायरी में 'आठों पहर', 'रात का पिछला पहर' और 'सह पहर' का बहुत ज़िक्र रहता है।
सह पहर ही से कोई शक्ल बनाती है ये शाम
ख़ुद जो रोती है मुझे भी तो रुलाती है ये शाम
सह फ़ारसी में तीन को कहते हैं और दिन के तीसरे पहर को सह पहर भी कहते हैं।

क्या आप जानते हैं?

रमज़ान के महीने में बच्चे के पहले रोज़े की तक़रीब को 'रोज़ा-कुशाई' कहते हैं। ये एक हिन्दुस्तानी रस्म है। कुशाई लफ़्ज़ के मानी हैं खोलना या आग़ाज़ करना।

बच्चा जब ज़िंदगी में पहली बार रोज़ा रखता है तो उस के रोज़ा इफ़्तार के वक़्त रिश्तेदारों और दोस्तों की दावत की जाती है। रोज़ा कुशाई की तक़रीब में बच्चे या बच्ची के नए कपड़े बनते हैं, उसे रिश्तेदार और दोस्त पैसे और तोहफ़े भी देते हैं। हर बच्चा इस दिन को सारी ज़िंदगी याद रखता है।

क्या आप जानते हैं?

"गुलाबी उर्दू" क्या है और मुल्ला रमूज़ी (1896-1952)से इसका क्या रिश्ता है? गुलाबी उर्दू मुल्ला रमूज़ी की दिलचस्प लेखन शैली थी, जो असल में पुराने अंदाज़ के शब्दश: बोझिल क़िस्म के उर्दू अनुवाद की खुली पैरोडी थी। मुल्ला रमूज़ी यानी भोपाल के सिद्दीक़ इरशाद, मशहूर पत्रकार, व्यंग्यकार और शायर थे। वह अख़बारों में राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर अपनी गुलाबी उर्दू में इस अंदाज़ से लिखते थे कि ब्रिटिश हुकूमत के प्रेस एक्ट की पाबंदी की गिरफ़्त में भी नहीं आते थे और उर्दू जानने वालों तक उनकी बात पहुंच भी जाती थी। लेकिन वह इस अंदाज़ के अलावा सरल भाषा में आम लोगों की समस्याओं पर भी व्यंगात्मक और हास्य लेख लिखते थे जो बहुत पसंद किए जाते थे। भोपाल में मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी का दफ़्तर 'मुल्ला रमूज़ी संस्कृति भवन' नामक इमारत में है। आज कल गुलाबी उर्दू की परिभाषा उर्दू में क्षेत्रीय शब्दों व लहजे के मेल के लिए भी इस्तेमाल होने लगी है।

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