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आशिक़ों की बातचीत

नासिर नज़ीर फ़िराक़ देहलवी

आशिक़ों की बातचीत

नासिर नज़ीर फ़िराक़ देहलवी

MORE BYनासिर नज़ीर फ़िराक़ देहलवी


    हिज्र है आफ़त-ए-जान वस्ल बलाए दिल है
    आदमी के लिए हर तरह ग़रज़ मुश्किल है

    फूल वालों की सैर हो चुकी थी। क़ुतुब साहब की लाट से लेकर झरना तक सारी महरौली पड़ी भायं भायं कर रही थी। सुनसान, आदम न आदमजा़द, झरना में पानी भरा था और झरना के किनारे एक मोर खड़ा नाच रहा था। आम के दरख़्त पर एक कोयल एक पपीहा बैठा था।

    कोयल, ऐ भाई मोर, तुम कैसे निडर हो, झरना के कोना पर एक आदमी बैठा है ऐसा न हो तुम्हारे दुश्मनों को सताए।

    मोर, तुम्हारा कहना सच है। आदमी बड़ा सताऊ है। मगर ये आदमी हमारा तुम्हारा बैरी नहीं है। ये बेचारा मरने से पहले मर चुका है और उसे बीमारी ने चर लिया है। देखती नहीं हो, आँखें बंद किए बैठा है। नाक पकड़े दम निकलता है। उसे अपने तन-बदन का होश नहीं, तुम्हें हमें क्या सताएगा।

    कोयल, अच्छा तो मैं ज़मीन पर उतर आऊँ। मुझे आज तीन दिन पानी पिए हो गए। झरना में से चार बूँदें पी लूँगी।

    मोर, बुआ कोयल, तुम शौक़ से नीचे उतर आओ। पानी पियो, नहाओ, धोओ, चोंचाल होजाओ। मैं ज़िम्मा लेता हूँ। ये कल सिरा तुम्हें कुछ न छेड़ेगा। मोर के कहने से कोयल ज़मीन पर उतरी और उसकी देखा देखी पपीहा भी झरना के किनारा आ बैठा। दोनों जानवर गर्म मिज़ाज हैं। इसलिए दोनों के दोनों झरना में ख़ूब नहाए धोए और मगन हुए। कोयल ने कहा, मोर, नदी नाव संजोग है। हम कहाँ तुम कहाँ, आज इत्तफ़ाक़ की बात कि हम तीन बंदे ज़मीन पर उतरे बैठे हैं। ये मौक़ा फिर कभी न होगा। एक बात आपसे पूछना चाहती हूँ। बशर्ते कि आप ठीक ठीक बतादें और छुपाएं नहीं।

    मोर, जो बात कहने के क़ाबिल होगी तो मैं नहीं छुपाऊँगा और कह दूँगा।

    कोयल, नहीं आक़ा, ये सही नहीं है कि कहने की होगी तो कह दूँगी। ये क़ौल दीजिए कि कहने की हो या न हो, जो बात तुम पूछोगी, वो बेदरेग़ कह दूँगा।

    मोर, वाह बुआ, ये तो हारनी हरानी हुई। ख़ैर, तुम्हारा कहना नीचे न डालूँगा, जो तुम पूछोगी बता दूँगा।

    कोयल, ये आपके परों में जो सुनहरीपन और नीलम पुखराज का रंग है क्योंकर पैदा हुआ, और ये चमक दमक आपके सरापा में कहाँ से आई।

    मोर, अफ़सोस बहन कोयल, तुमने ग़ज़ब किया। मुझसे क़ौल ले लिया। नहीं कहता हूँ तो झूटा बनता हूँ। कहता हूँ तो फ़र्हाद और मजनून मुझे पेट का हल्का कहेंगे, ये कह कर मोर ने एक आह की। जिसने आस-पास की पहाड़ियों को लरज़ा दिया। मोर की आँखों से आँसू बहने लगे।

    कोयल और पपीहा, भाई ताऊस शिकोह, हम दोनों भी फ़र्हाद और मजनून की मजलिस के बैठने वाले हैं। जो उनका रंग-ढंग है, वही हमारा दीन ईमान है। अगर आप कुछ भेद की बात हमारे सामने कहेंगे तो हम अपने अज़ीज़ों के सामने भी न कहेंगे। महफ़िल से बाहर बात न जाएगी।

    कोयल की बातों ने मोर के ज़ख़्मी दिल पर मरहम का असर दिखाया और उसने अपनी बिप्ता इस तरह शुरू की। हुस्न आबाद में आलम अफ़रोज़ नाम एक नाज़नीन थी। जिसकी ख़ूबसूरती इस दर्जा की थी कि चांद-सूरज उसके नाख़ुनों में पड़े चमका करते थे। उसका बूटा सा क़द, उठती जवानी, सर से पाँव तक नूर ही नूर थी। रेशमी लिबास, फूलों का गहना, वैसे तो तरह तरह के ज़ेवर पहनती थी, मगर झूमर का और ख़ास कर जड़ाऊ झूमर का उसे बड़ा शौक़ था और झूमर उसे लगता भी ऐसा भला था कि जो देखता अपना कलेजा पकड़ कर रह जाता। आलम अफ़रोज़ ने मुझे बच्चे सा पाला था और मेरे साथ उसे बड़ी मुहब्बत थी। मुझे वो गोद में लेकर बैठती थी। प्यार करती थी, मेरी गर्दन पर हाथ फेरती थी। जब मैं उस की गोद में बैठा होता था, तो उसके झूमर के परकाला में ठूंगें मारा करता था। और वो कहा करती थी ग़ारती इतना चर्बांक न बन, याद रखना अगर किसी दिन तरी ठोंग से मेरा झूमर मेरे माथे से सरक गया तो तेरी क्या सारे हुस्न आबाद की ख़ैर न होगी।

    आलम अफ़रोज़ के इस कहने से मुझे बड़ी हैरानी हुई कि झूमर सरक जाने से हुस्न आबाद की और मेरी ख़ैर क्यों न होगी। उस झूमर के नीचे क्या भेद है। और इसके साथ ही मेरे दिल में ये चाव पैदा हुआ कि उसके माथे से किसी तरह झूमर सरकाना चाहिए। और अब में इस फ़िक्र में पड़ गया कि किसी दिन दाव लगे और मैं उस झूमर का परकाला नाज़नीन के माथे से सरकाऊँ। इत्तफ़ाक़ ये हुआ कि नाज़नीन कहीं मेहमान गई थी और सारी रात जागी थी। घर आई तो अपने कमरे में दिन के वक़्त ऐसी पड़कर सोई कि उसे अपने आपकी सुद्ध न रही। मैं सारे महल में अह्ला गहला फिरा करता था, और नाज़नीन का चहेता था। मुझे कौन रोक सकता था। मैं बेधड़क कमरे में गया। मैंने देखा कि नाज़नीन छप्परखट में बेख़बर पड़ी सोती है और छप्परखट के चारों तरफ़ लौंडियां पड़ी ख़र्राटे ले रही हैं।

    मैं चुपके से छप्पर खट में पहुँच गया और मैंने चोंच में पकड़ कर नाज़नीन के माथे पर से झूमर को सरकाया। झूमर सरका तो मैंने देखा नाज़नीन के माथे पर लिखा है, “अल्लाह नूर अल समवात वल अर्ज़।” और नूर के नून के नुक़्ता से ऐसी तजल्ली निकली कि वो आँखों के रस्ता से मेरे तन-बदन में समा गई। और तमाम तन-बदन मेरा नूरानी हो गया। मगर मुझे उस तजल्ली ने बेहोश कर दिया और जब मुझे इफ़ाक़ा हुआ तो मैंने अपने तईं उस जहान के जंगल में देखा और अपने तमाम परों को उस तजल्ली से पुरनूर और रंगीन। मेरे ख़्याल में जहाँ मैं था फ़िरदौस-ए-बरीं, और वो नाज़नीन हूर ऐन थी।

    अब मैं उस मुक़ाम और उस नाज़नीन की जुदाई में तड़पता हूँ और नाला-ओ-फ़र्याद करता हूँ। बेअक़्ल इंसान कहता है मोर झँगारता है, मोर ख़ुश-आवाज़ है। सावर में शोर-ओ-फ़ुग़ां करता हूँ और क़ियामत तक इसी तरह शोर-ओ-फ़ुग़ां करता रहूँगा और जुदाई की आग में जलता रहूँगा। अब बहन कोयल तुम भी अपनी राम-कहानी सुनाओ। क्योंकि तुम्हारा रात-दिन का चीख़ना चिल्लाना कहे देता है कि तुम भी हिज्र का सदमा उठाती हो।

    कोयल, बेशक में अपने यार की जुदाई में बेकल रहती हूँ। उसी के ध्यान में मेरे कलेजे से हूक उठती है। मेरा हाल आपके हाल से मिलता-जुलता है। आप जिस शहर को हुस्न आबाद कहते हैं, मुझे उसका नाम जमालिस्तान बताया गया था। आप जिस महबूब को आलम अफ़रोज़ से ताबीर करते हैं, मैं उसे जहाँ अफ़रोज़ कहती हूँ, और वही महल और वही सोने-चांदी की दीवारें, वही बाग़ वही चमन, वही बहार वही आबशार, वही चहल पहल, वही ख़ुशी, वही राव चाव, मुझे जहाँ अफ़रोज़ ने पाल पोस कर बड़ा किया। परछाईं की तरह मैं हर वक़्त उसके साथ रहती थी। मेरी जान उसपर जाती थी। मुझे उसकी ज़ुल्फ़, उसकी चोटी बहुत पसंद थी। और वो मेरे इस देखने भालने को समझ गई थी। उसने मुझे जता दिया था कि मेरी चोटी नहीं है, ज़हर और क़हर है। अगर तूने उसे छू लिया या तो उसके छांव तले आ गई तो फिर तू जल कर फ़ना होजाएगी, और तेरा पता भी न लगेगा।

    उसके कहने का उल्टा असर हुआ। मैं इस धुन में उलझ गई कि किसी तरह उसकी चोटी को टटोलूं। उस का क़ायदा था कि वो सिंगार के वक़्त सब परस्तारों को कमरे के बाहर भेज देती थी और सिर्फ़ मश्शाता अपना काम किया करती थी। एक दिन वो चमन में बैठी चोटी गुंधवा रही थी और लौंडियां पहरा पर खड़ी थीं, मैं ना नसीब ऊपर ही ऊपर उड़ कर वहाँ पहुँची जहाँ वो सिंगार कर रही थी। मैं शमशाद के पत्तों में छिप कर बैठ गई। मैंने देखा कि जहाँ अफ़रोज़ कुर्सी पर बैठी है। उसके बाल खुले हुए हैं और इतने लंबे हैं कि हज़ारों कोस तक चले गए हैं और सारे आसमान पर छा गए हैं। जहाँ ज़मीन पर उन बालों का साया पड़ा है, मनों मुश्क, अंबर, अगर, तगर, तेज़पात, छल छबीला, नागरमोथा, लौंग हज़ारों क़िस्म की ख़ुशबू की चीज़ें पैदा हो रही हैं।

    यकायक उसके खुले बालों में से ख़ुशबू की लपट आई, जो मेरे हलक़ में उतर गई और उसकी गर्मी ने मेरे सर-ओ-पा को फूंक दिया। मैं ग़श खाकर शमशाद के दरख़्त से नहर में गिरी और जिस वक़्त मुझे होश हुआ, तो मैंने देखा न जमालिस्तान है न क़सर-ए-फ़िर्दोस है, न ही जहाँ अफ़रोज़ है, न उसकी काकुल तीराह-ओ-तार है। बसांदी ज़मीन पर मैं पड़ी हूँ। मेरी परों की सफ़ेदी जो सच्चे मोती और बर्फ़ को मात करती थी, आह, स्याही में अँधेरी रात को मात करती है। वो दिन है और आज का दिन है। हज़ारों बरस से यार के फ़िराक़ में आह-ओ-ज़ारी करती हूँ, मगर यार आलम-ए-बाला पर और मैं मिट्टी की ज़मीन पर, वहाँ तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँचती। चीख़ चिल्ला कर थक जाती हूँ, जब दम ठिकाने होता है तो फिर फ़र्याद करती हूँ,

    ख़्याल-ए-ज़ुल्फ़ दो ता में नसीर पीटा कर
    गया है साँप निकल तो लकीर पीटा कर

    मोर, वाह बहन कोयल, तुम्हारा क्या कहना। सच्चे आशिक़ों में से हो। तुम्हारी तारीफ़ सारे जहान के परिंदे करते हैं। अब भाई पपीहा आप रह गए हैं। मुनासिब है कि आप अपनी बिप्ता सुना दें कि आप दिन रात क्यों कराहते हैं, किसे चाहते हैं।

    पपीहा, भला मेरी मजाल है कि मैं आप जैसे आशिक़ों के पेशवा के सामने अपना हाल-ए-दिल सुनाऊँ। मैं भी उसी काफ़िर शोख़-ओ-शंग का मारा हुआ हूँ। सिर्फ़ नामों का फ़र्क़ है। उस शहर का नाम मुझे खूबिस्तान और नाज़नीन का नाम नूर अफ़रोज़ बताया गया। वही पाइं बाग़ और वही क़स्र-ओ-ऐवान और वही सामान थे, जिनका ज़िक्र आप साहबों ने किया है। नाज़नीन के हाथों पर बैठा रहता था। जब वो हँसती थी तो उसके मुँह से फूल झड़ते थे और मैं खाया करता था। और जब उसे पसीना आता था तो उसके पसीने की बूँदें सच्चे मोती हो जाते थे। मैं क्या कहूं, उन मोतीयों और फूलों में क्या मज़ा था। सुबह उठकर वो नाज़नीन दो चांद और दो सूरज और दो दर्जन तारे खाया करती थी। एक दिन उसके चमचे से तारा का एक भूरा मेज़ पर गिरा और वो भूरा मैंने खा लिया। उसका खाना ग़ज़ब हो गया। मैंने इन्ना लिल्लाह बकना शुरू किया और इस क़दर चीख़ा चिल्लाया और गुल मचाया कि सारे महल को सिर पर उठा लिया।

    वो मेरे दहाड़ने से तंग हो गई तो उसने शहबाज़ कोतवाल को बुलाकर हुक्म दिया कि इस कमज़र्फ़ चिड़िया को ख़ाकिस्तान फ़ना में पहुँचा दो। ये नालायक़ वहाँ पड़ा चीख़ा करेगा और हमारे कान तक उसकी आवाज़ न पहुँचेगी। शहबाज़ ने मुझे अंडे के क़ालिब में बंद कर के उस जहान में फेंक दिया। जिस वक़्त से मुझे होश आया, मेरी ज़बान तालू को नहीं लगी। मैं बराबर नाला-ओ-फ़ुग़ां किए जाता हूँ। बरसात के मौसम में निकाला गया हूँ। इसलिए बरखा रुत आती है तो मुझे वो मुक़ाम ज़्यादा याद आता है और मैं बेक़रार-ओ-बेताब बन जाता हूँ और शोर-ओ-फ़र्याद से आसमान सर पर उठाता हूँ।

    एक मेरी अर्ज़ ये है कि आप फ़रमाते हैं, ये आदमी भी हमारी तरह इश्क़ का मारा हुआ है, तो इसके मुँह से इसकी दास्तान सुनवा दीजिए। मोर ने कहा ज़रूर। ये कह कर मोर इंसान के पास आया और ये बात ज़बान पर लाया। मौलाना आपकी तहरीर-ओ-तक़रीर से इंसान बहुत कुछ फ़ायदा उठा चुके हैं। अब हम परिंदों के ऊपर भी इनायत फ़रमाइए और चंद कलमे इश्क़-ओ-हुस्न के हमें भी सुनाइए, मगर जग बीती बातों के हम मुश्ताक़ नहीं। जो आप पर गुज़री हो उसमें से कुछ दीजिए।

    फ़िराक़, मियां मोर, इंसान वही है जिसे इश्क़ हो, जो मुहब्बत के फंदे में फंसा हो। तुम तीनों परिंदे बशर से बढ़कर हो, क्योंकि तुम में रुहानी जौहर है और उसी जौहर को तुम में चमकता दमकता देख कर अपनी इश्क़ की दास्तान थोड़ी सी सुनाता हूँ। याद रखो कि मेरा और सारे आलम का महबूब वही एक है जिस पर तुम सब दीवाने हो। और तुमने तीन अदद उसे समझा। मैं भी वहीं था जहाँ तुम थे। मैं हर दम नाज़नीन के साथ था। मैं तुम्हें और तुम्हारे हरकात-ओ-सकनात को देखता था। मगर तुम मुझे नहीं देख सकते थे क्योंकि अशरफ़-उल-मख़लूक़ात ने मुझे छुपा रखा था। वो मुझे कहा करती थी, मैं सिर्फ़ देखने दिखाने के लिए हूँ, हाथ लगाने के लिए नहीं हूँ। अगर किसी दिन तू ने भूल कर भी मेरे पिंडे को छू लिया, तो तेरी जान की ख़ैर नहीं और दीदार क़ियामत पर जा पड़ेगा।

    मेरी कमबख़्ती रात का वक़्त था। वो अपने छप्परखट पर पड़ी सो रही थी। शम्मा की रोशनी में उसके जोबन को घूर घूर कर देख रहा था और सल्ले अला कह रहा था। यकायक सोने की बदमस्ती में उसकी कुर्ती ज़रा ऊपर को हो गई। कुर्ती ख़ुद ऊंची और तंग, नींद के मस्कोड़े ने रहा सहा पेट खोल दिया। मुझ ख़ाकी नज़ाद को उसके देखने की ताब न हुई। मैंने घबरा कर कुर्ती को नीचे सरकाना चाहा। हाथ तो नहीं लगा मगर नाख़ुन लग गया और आन की आन में हमने अपने तईं इस अंधेरे जहान में पाया। कफ़-ए-अफ़सोस मलता हूँ और फ़िराक़-ए-यार में रोता हूँ।

    स्रोत:

    Mazameen-e-Firaq (Pg. 68)

    • लेखक: नासिर नज़ीर फ़िराक़ देहलवी

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