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अवामी अदब के मसायल और उर्दू की अदबी रिवायत

शमीम हनफ़ी

अवामी अदब के मसायल और उर्दू की अदबी रिवायत

शमीम हनफ़ी

MORE BYशमीम हनफ़ी

    अदब की अ’वामी सिन्फ़ें और रवायतें उर्दू मुआ’शरे में अपने लिए कोई मुस्तक़िल जगह क्यों नहीं बना सकीं? इस सवाल का जवाब बहुत वाज़ेह है और उतना ही अफ़सोस-नाक भी। उर्दू की अशराफ़ियत (Sophistication) और मदनियत (Urbanity) ने बर्र-ए-सग़ीर के मजमूई’’ कल्चर में जिन अ’नासिर और जिहतों का इज़ाफ़ा किया है, वो बहुत क़ीमती हैं। हमारे उ’लूम, अफ़कार और फ़ुनून की दुनिया इन इज़ाफ़ों के बग़ैर, वो कुछ हो ही नहीं सकती थी जैसी कि आज है।

    उर्दू की अशराफ़ियत और मदनियत सिर्फ़ इस ज़बान के बोलने वालों की इज्तिमाई’ ज़िंदगी और ज़हनी विज्दानी ज़िंदगी पर असर-अंदाज़ नहीं हुई, दूसरी ज़बानों ने भी, किसी किसी सत्ह पर, इससे फ़ायदा उठाया है। इसीलिए उर्दू ज़बान-ओ-अदब का सफ़र जिन ख़ुतूत पर हुआ और इस सफ़र में जिन मंज़िलों तक हमारी रसाई हुई, मुझे उनकी तरफ़ से कोई बे-कली नहीं है। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि उर्दू की अदबी रवायत और इस रवायत से माला-माल सक़ाफ़ती विरसे के बग़ैर हम तो अपने तजरबों का मफ़्हूम मुतअ’य्यन कर सकते थे, अपनी शनाख़्त क़ाएम कर सकते थे। हिन्दोस्तान की मौसीक़ी, मुसव्विरी, रक़्स, फ़न-ए-ता’मीर और हमारी कई इ’लाक़ाई ज़बानों के अदब पर, उर्दू की सक़ाफ़ती रवायत अब तक साया-फ़गन है। ज़बान जब बजा-ए-ख़ुद एक तहज़ीबी और जमालियाती हवाला बन जाती है तो उसके इक़्तिदार का इ’लाक़ा अपने आप वसीअ’ हो जाता है। इसीलिए मुझे उन असहाब से कुछ कम वहशत नहीं होती जो उर्दू कल्चर की अशराफ़ियत और मदनियत के सिलसिले में ए’तिज़ार का रवैया इख़्तियार करते हैं।

    लेकिन मुझे इस वाक़िए’ के ए’तिराफ़ में भी कोई झिजक नहीं कि उर्दू कल्चर ने अपनी अशराफ़ियत और मदनियत की क़ीमत ज़रूरत से बहुत ज़ियादा चुकाई है। माना कि इस कल्चर ने जो रुख़ अपनाया, उसकी मंतिक़ गुज़िश्ता अदवार की तारीख़ के अ’मल में मौजूद है। मगर हमारा अलमिया ये है कि हमने इस मंतिक़ के सामने सिपर डाल दी और अपनी कामरानियों के नशे में ये बात भुला दी कि हमने अपना सफ़र हुसूल और बे-हुसूली की सत्ह पर साथ-साथ तय किया है। अपनी बे-हुसूली और ना-रसाई का हिसाब करें तो ख़याल होता है कि वो अ’नासिर जो उर्दू कल्चर की तश्कील में असासी हैसियत रखते हैं उनके महदूद तसव्वुर और उनकी नाक़िस ता’बीर ही दर-अस्ल हमारे अलमिए का सबब बनी। इन अस्बाब की निशान-दही मुख़्तसरन इस तरह की जा सकती है :

    (1) अशराफ़ियत के ग़लत तसव्वुर ने एक तरह की लिसानी तंग-नज़री और सनोबरी को राह दी है।

    (2) मदनियत पर ज़रूरत से ज़ियादा तवज्जोह हमारे तजरबों की तहदीद और तख़सीस पर मुंतिज हुई।

    (3) ज़बान की सेहत और लुग़ात की पाबंदी पर ग़ैर-मुतवाज़िन इसरार की वज्ह से हमारी रवायत हिकाईOral लफ़्ज़ की ताक़त से महरूम और तहरीरी (written) लफ़्ज़ के तसल्लुत का शिकार होती गई।

    (4) उर्दू ने मशरिक़ की जिन ज़बानों को अपना बुनियादी सर-चश्मा बनाया, उनमें अर्ज़ियत की लय कमज़ोर थी। इसीलिए हमारी अदबी रवायत में ज़हनी और तजरीदी तजरबों से शग़फ़ बहुत नुमायाँ है।

    (5) हमने अश्या से ज़ियादा अश्या के तसव्वुर से सरोकार रखा। आज भी हमारे यहाँ ऐसे दानिश्वर मौजूद हैं जो अ’लामत-साज़ी को बुत-परस्ती से ता’बीर करते हैं और फ़िक्र की तज्सीम के अ’मल को ज़हनी पसमांदगी का नाम देते हैं। उनके नज़दीक ये अ’मल क़दीम इंसान की सादा फ़िक्री का तर्जुमान है।

    अस्ल में तरक़्क़ी-पज़ीरी और पसमांदगी के तसव्वुरात की नौइ’यत अदब और फ़ुनून की दुनिया में समाजी सत्ह पर तरक़्क़ी और पसमांदगी के तसव्वुरात का हू-ब-हू अ’क्स नहीं होती। इज़्हार और फ़िक्र में ब-ज़ाहिर मुराजअ’त का ज़ाविया, तमन्ना का दूसरा क़दम भी हो सकता है। इसकी शहादतें हमें सबसे ज़ियादा मुसव्विरी में और थेटर में मिलती हैं जहाँ पुराने असालीब को एक नई मा’नवियत की दरियाफ़्त का ज़रीआ’ बनाया गया है। मैं यहाँ वज़ाहत के लिए सिर्फ़ दो मिसालें दूँगा।

    एक तो रामचंद्रन का मा’रूफ़ म्यूरल बयानी और उनकी तस्वीरों की वो सीरीज़ जो “कठपुतलियों का रंग-मंच” के नाम से सामने आई थी। उनमें रामचंद्रन ने बुनियादी रंगों, मुसव्विरी की लोक-रवायतों और क़दीम इंसान की सादा-फ़िक्री के इस्तिआरों से आज की शख़्सी और इज्तिमाई’ ज़िंदगी के बा’ज़ मसाइल की तर्जुमानी का काम लिया था।

    मिथिला पेंटिंग्ज़ के एक मुबस्सिर (रत्नाधर झा) का क़ौल है कि ये तस्वीरें अपनी उं’सुरी सादगी और हर क़िस्म के हिजाब से आ’री बसीरत की बुनियाद पर आज कमर्शलाइज़्ड आर्ट के मुतअ’फ़्फ़िन माहौल में हवा के एक ताज़ा झोंके की तरह हैं। मधुबनी या मिथिला पेंटिंग्ज़ की तरह रामचंद्रन की बयानी और “कठपुतलियों का रंग-मंच” दोनों में कहानी का उं’सुर नुमायाँ है। लोक-रवायत में इस उं’सुर की हैसियत बुनियादी है।

    दूसरी मिसाल लोक-साहित्य है। नाटक की अ’वामी रवायत जात्रा जो जदीद कारी के सैलाब में पस-ए-पुश्त जा पड़ी थी और जिसका हल्क़ा-ए-असर बंगाल के गाँव तक महदूद रह गया था, पिछले कुछ बरसों में उसका तमाशा अहल-ए-शहर के लिए भी नए सिरे से पुर-कशिश बन गया है। इस सिन्फ़ में आ’म इंस‌ानी सूरत-ए-हाल से निहायत शदीद और इन्हिमाक-आमेज़ रिश्ता चूँकि असासी हिस्सियत रखता है, इसलिए ये सिन्फ़ जदीद कारी के झटकों को झेल गई।

    सियासी बेदारी और बसीरत में इज़ाफे़ के साथ-साथ जात्रा के वास्ते से सियासी मफ़्हूम और मा’नवियत रखने वाले खेलों से दिलचस्पी भी बढ़ती गई। इसी तरह उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में शहरों के थेटर ग्रुप शायद अपने आज़मूदा असालीब के हुदूद और उन असालीब के मस्दूद मुस्तक़बिल की वज्ह से लोक-रवायतों की मदद से नए रास्ते ढूँढ रहे हैं। नौटंकी के उस्लूब की तजदीद हुई है और इस पुराने उस्लूब में नए इंसान का क़िस्सा सुनाया जा रहा है।

    उर्दू का हाल इस मुआ’मले में सिरे से मुख़्तलिफ़ है। लोक-रवायतों की बहालियत तो दूर रही, हमारे इ’ल्म ने लोक अ’नासिर से आरास्ता असालीब और अस्नाफ़ को भी कभी संजीदा तफ़हीम और तजरबे का मौज़ू’ नहीं बनने दिया। दहे (देहाती मरसिए) पूरबी भाषा में लिखे हुए सोज़ और नौहे, लोकगीतों के अंदाज़ में मंज़ूम सियासी वारदात और अ’वामी थेटर से एक ग़ैर-शऊ’री ला-तअ’ल्लुक़ी हमारा आ’म शेवा है। इसके बर-अ’क्स हिन्दी में लोकगीतों के ज़रीए’ समाजी, सियासी, तहज़ीबी सूरत-ए-हाल और वाक़िआ’त पर तब्सिरों की रविष रोज़-ब-रोज़ मुस्तहकम होती जाती है। इस मौक़े’ पर दो हक़ाएक़ की निशान-दही ज़रूरी है।

    एक तो ये कि ज़िंदगी की बुनियादी सच्चाइयों में यक़ीन अ’वामी अदब की फ़िक्री असास है। दूसरे ये कि अ’वामी तजरबे शख़्सी तजरबों की ज़िद नहीं होते। ऐसा नहीं कि इन हक़ीक़तों की तरफ़ से हम यकसर बे-ख़बर रहे हैं। वाक़िआ’ यूँ है कि हमारी लिसानी आदतों और अदब के इख़्तिसासी तसव्वुर का जब्र हमारे गले का तौक़ बन गया। इस अम्र की जानिब से हम तवज्जोह दे सके कि ज़िंदा ज़बानें अपने अदब की लोक-रवायत और उसकी इम्तियाज़ी या इशराक़ी रवायत में कोई टकराव पैदा किए बग़ैर दोनों को साथ-साथ आगे बढ़ाती हैं।

    उर्दू में दकनी अदब का सरमाया, फिर शुमाली हिन्दोस्तान में उर्दू की अदबी रवायत के इब्तिदाई अदवार में लोक अ’नासिर का आहंग कभी ज़बान की इस्लाह के ज़ोर में, कभी दरबार से वाबस्ता मस्नूई’ माहौल और रख-रखाव के शोर में दबता गया। कबीर, नानक, जायसी, बिलग्राम के संत शाइ’र और तो और हमने नज़ीर अकबराबादी तक को एक अ’र्से तक लाइक़-ए-ए’तिना नहीं समझा कि इन सब के हाँ लोक अ’नासिर की लय बहुत ऊँची थी। गांधी जी की हिदायत पर हिन्दी में रामनरेश त्रिपाठी और उर्दू में देवेंद्र सत्यार्थी ने अपनी लोक-रवायतों की बाज़याफ़्त का सिलसिला एक साथ शुरू’ किया था। कैसी अ’जीब बात है कि देवेंद्र सत्यार्थी की ज़ंबील में लोकगीतों का ज़ख़ीरा जिस तेज़ी के साथ बढ़ता गया, उर्दू के साथ उनके रवाबित में उसी तेज़ी के साथ कमी आती गई।

    इस सिलसिले में हमारा ध्यान इस रम्ज़ पर भी नहीं गया कि लोक अदब ज़बानों की हद-बंदी से मावरा एहसास और फ़िक्र की एक ऐसी काएनात तर्तीब देता है, जहाँ कबीर और बुल्ले शाह और नानक देव और लाल देद और सुल्तान बाहू और अब्दुल लतीफ़ भटाई एक दूसरे के लिए लिसानी ए’तिबार से अजनबी नहीं रह जाते। इंसान के बुनियादी तजरबों से यगानगत और मज़हब-ओ-मिल्लत, फ़िर्क़े और जमाअ’त की तफ़रीक़ से मावरा इंस‌ानी हालत का इदराक इन सबको हमारे लिए तक़रीबन यकसाँ तौर पर क़ाबिल-ए-फ़हम बना देता है। मीर साहिब के इस बयान से कि :

    शे’र मेरे हैं गो ख़वास पसंद

    पर मुझे गुफ़्तगू अ’वाम से है

    हमें ये ग़लत-फ़हमी नहीं होनी चाहिए कि मीर साहिब ने यहाँ अ’वामी अदब की एहमियत का एहसास जगाया है। अ’वामी अदब और अ’वाम से विज्दानी, ज़हनी और जज़्बाती क़ुर्बत का इज़्हार करने वाला अदब दो अलग-अलग ईकाईयाँ हैं। अ’वाम के शाइ’र तो जोश साहिब भी थे। ऐम. एफ़. हुसैन भी अपने आपको अ’वाम का आर्टिस्ट कहते हैं। एक ज़माने में अ’वामी अदब की तरक़्क़ी-पसंद ता’बीर ने वामिक़ जौनपुरी को इस गुमान की राह दिखाई थी कि उर्दू में अ’वामी शाइ’र सच पूछिए तो बस वही हैं। मगर इस नौ’ की शाइ’री या मुसव्विरी में अ’वाम की हैसियत एक मा’रूज़ (OBJECT) या शय (COMMODITY) की होती है। मुझे तो कभी-कभी ये सोच कर भी डर लगता है कि लोक-कलाओं और साहित्य की तजदीद का जो हंगामा इन दिनों बरपा है वो कहीं उन्हें MUSEUM PIECE बनाकर रख दे।

    आदी-बासियों की बनाई हुई चीज़ें या देही सन्नाओं’ की तैयार-कर्दा अश्या का हाल (PRESENT) अगर नौ-दौलते तब्क़े के ड्राइंग रूम्ज़ से वाबस्ता है तो यक़ीन जानिए कि उनका मुस्तक़बिल सिर्फ़ म्यूज़ीयम्स (MUSEUMS) में महफ़ूज़ रहेगा। सारिफ़ियत लफ़्ज़ों के मअ’नी बदल देती है कि अब इन्क़िलाब फ़िक्र में और क़ौमों की सियासी और समाजी ज़िंदगी में नहीं बल्कि फ़ैशन की दुनिया में आते हैं। ऐसी सूरत में लोक-साहित्य या लोक कलाओं का शहरी मुआ’शरों में CRAZE बन जाना ख़तरे का सिगनल भी है।

    खुले आसमानों में उड़ने वाले परिंदे का दम पिंजरे में घुटने लगता है। जंगल में उगने वाला पौदा गमलों के लिए नहीं होता। (अंदेशा इस बात का है कि अश्या हों या एहसासात, उनकी तलब अगर फ़ैशन का हिस्सा बन जाए तो फिर वो अपनी नुदरत और ताज़गी खो बैठते हैं।)

    कुमार गंधर्व का कहना है कि हमारे शास्त्रीय रागों का सर-चश्मा लोक धुनें हैं। दूसरी तरफ़ अभी चंद रोज़ पहले ही उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ाँ ने रेडियो पर एक इंटरव्यू के दौरान ये कहा कि शास्त्रीय संगीत अब जिस मुक़ाम पर है वहाँ उसमें और लोक संगीत में निस्बत तलाश करना मुनासिब नहीं। मेरा ख़याल है कि उसूली तौर पर ये दोनों बयानात हक़ीक़त पर मबनी हैं। मगर इनके नताइज पर नज़र डाली जाए तो अंदाज़ा होगा कि हैअत की तब्दीली अश्या और एहसासात की माहियत को भी तब्दील कर देती है। अ’वामी अदब भी अगर महज़ हमारी हिस्सियत के सर-चश्मे की हैसियत पर रुक जाए तो उसका रोल पूरा हो सकेगा। ऐसे शे’र जो ख़वास-पसंद हों, चाहे उनका मुकालमा अ’वाम से ही क्यों हो, अ’वामी अदब का बदल नहीं होते।

    पस-ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने अदब की सिन्फ़ों में लोक अ’नासिर की शुमूलियत को ही काफ़ी समझें। नज़ीर अकबराबादी की तक़वीम-ओ-ता’बीर में हमारा रवैया पहले जैसा नहीं रहा है। ठीक है अ’ल्लामा ताजवर नजीबाबादी ने इस सदी के अवाइल में उर्दू वालों को मश्वरा दिया था कि उनके मुशाहिदात का रुख़ दजला-ओ-फ़ुरात की जगह गंगा और जमुना की तरफ़ होना चाहिए। हमने ये बात मान ली, ये भी ठीक है मगर ये काफ़ी नहीं है। ये मक़ामियत का शऊ’र है, अ’वामी अदब के मुज़्मरात का नहीं। लोक-रवायतों को और उनसे जड़े हुए असालीब मस्ख़ DISTORT या CORUPT किए बग़ैर उन्हें तख़्लीक़ी बसीरत और शऊ’र के एक नए मिंतक़े से रू-शनास कराने की ज़रूरत है। उन्हें ज़माँ और मकाँ के एक नए दाएरे में लाने की ज़रूरत है, इस तरह कि इन रवायतों और असालीब की सूरतें बिगड़ने पाएँ और ये दाएरा भी टूटे।

    हो सकता है कुछ लोग ये सोचते हूँ कि लोक-अदब की रवायत और उस्लूब जब आज की हैअत से मरबूत होंगे तो इस हैअत की शर्तों पर हमें इस रवायत और उस्लूब के कुछ अ’नासिर को क़ुबूल करना होगा, कुछ को मुस्तरद करना होगा। मगर ये काम तो कम-ओ-बेश हर उस शाइ’र और अदीब ने किया है जो गिर्द-ओ-पेश की दुनिया के सियाक़ में अपने तजरबे का मफ़्हूम मुतअ’य्यन करना चाहता है। देखना ये होगा कि इस मफ़्हूम की तरसील का रुख़ किसकी तरफ़ है। अब मैं चंद ठोस हवालों और मिसालों के ज़रीए’ अपनी बात कहना चाहता हूँ। हमारे लोक-साहित्य की जमालियात में अब से पहले कई ऐसे इंस‌ानी तजरबे हैं जिन्हें सिर्फ़ इसलिए बरता नहीं गया कि ये तजरबे उस वक़्त या तो वजूद में नहीं आए थे, या फिर उन्हें आज की जैसी एहमियत नहीं मिली थी। मसलन महंगाई, क़र्ज़ और सूद का चक्कर, जहेज़ की या BRIDE BURNING। अब हिन्दी के एक नए शाइ’र रमेश रंजक का गीत सुनिए,

    महंगाई ने जुलम करी डारे बहना

    दाम दाल के बढ़े, दाम चीनी के चढ़े

    दाम एक-एक चीज़ के करारे बहना

    महंगाई ने जुलम करी डारे बहना

    धोती जोड़ की नई, पौने तीस की भई

    मोहे दीख गए दिन में सितारे बहना

    इस गीत की धुन भी लोक है, हिस्सियत की सत्ह भी। हिस्सियत की इस सत्ह पर आए बग़ैर, ज़ियादा से ज़ियादा वही किया जा सकता है जो उर्दू हिन्दी के बहुत से गीतकारों ने किया, या’नी ये कि अ’वामी रवायत से तश्बीहें और इज़्हार के साँचे अख़ज़ कर लिए। उर्दू नज़्म के नए शाइ’रों में ये रवैया सबसे ज़ियादा ताक़त के साथ अख़्तर-उल-ईमान, मजीद अमजद, ज़ाहिद डार और अ’मीक़ हनफ़ी के यहाँ सामने आया है। इसके कुछ छींटे अ’ज़्मतुल्लाह ख़ाँ और मीराजी की नज़्मों में भी देखे जा सकते हैं। मगर लोक-रवायत को आज की ज़िंदगी के पस-मंज़र में इक मुअस्सिर हर्बे के तौर पर इस्ति’माल करने की कोई बड़ी मिसाल हमें उर्दू में नहीं मिलती।

    इस मुआ’मले में हिन्दी थेटर और हिन्दी गीत, दोनों उर्दू से बहुत आगे हैं। उर्दू वालों में एक हबीब तनवीर को छोड़कर जिन्होंने छत्तीसगढ़ी रवायत को अपने अ’हद की हिस्सियत से मिलाने की चंद बहुत अच्छी कोशिशें कीं (मिट्टी की गाड़ी, चरणदास चोर) हमें मतला’ साफ़ नज़र आता है।

    इसके बर-अ’क्स हिन्दी में तस्वीर मुख़्तलिफ़ है। इसे आप आर्याई ज़हन का करिश्मा कहें या हवास की काएनात और ख़याल की काएनात को बट कर एक इकाई के रूप में समझने और देखने की आ’दत। बोलियों के अदब ने जिस लोक-रवायत की ता’मीर की थी, खड़ी बोली हिन्दी ने उस रवायत से अपना तअ’ल्लुक़ टूटने नहीं दिया। भारतेंदु के अ’हद से नौटंकी की रवायत जो चली तो अब तक चलती चली रही है। मिसाल के तौर पर सर्वेश्वर दयाल (बकरी) लक्ष्मी नारायण लाल (एक सत्य हरीशचंद्र) मुद्रा राक्षस (आत्म समर्पण और आला अफ़्सर) शरद जोशी (एक था गधा उर्फ़ क़िस्सा मियाँ दाद) असग़र वजाहत (वीरगति) और अशोक चक्रधर (चिकन चमेली) के यहाँ ख़ुद गांधी-वादियों के हाथों गांधीवाद के क़त्ल, समाजी क़द्रों के ज़वाल, सियासी अख़्लाक़ियत और ब्यूरोक्रेसी और करप्शन के मसाइल से लेकर रेलवे मुलाज़िमीन की हड़ताल और लखनऊ में चिकन का काम करने वाली औ’रतों के इस्तिहसाल तक।

    उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की लोक-रवायतों का सिलसिला मौजूदा मुआ’शरे की ज़िंदा सच्चाइयों से मिला है। नुक्कड़ नाटक की रवायत भी इसी सिलसिले में शामिल है। इस सूरत-ए-हाल के बर-ख़िलाफ़ उर्दू ड्रामे की रवायत में आग़ा हश्र और अमानत लखनवी की रवायत को तरक़्क़ी देना तो अलग रहा, उसे एक नई मुआ’शरती ता’बीर के ख़ाम मवाद की हैसियत से बाक़ी रखने की जुस्तजू भी की।

    उर्दू में अ’वामी अदब का रास्ता जो लोक-रवायतों की तजदीद और निशात-ए-सानिया के दौर में भी हमवार हो सका, तो सिर्फ़ इसलिए कि हम इन रवायतों की ताक़त, इनमें मख़्फ़ी इमकानात और इज्तिमाई’ ज़िंदगी पर इनके असरात को समझने से क़ासिर रहे। हमारे एहसासात पर उर्दू सफ़ाकत की अशराफ़ियत और मदनियत का बोझ अलग... सितम बाला-ए-सितम ये कि इबलाग़COMMUNICATION का मसअला हैअत और मवाद की इकाई का मसअला, हिकाई रवायत और बयानिया अस्नाफ़ पर तहरीरी असालीब और तजरीदी इज़्हार के तफ़व्वुक़ का मसअला। ये मसअले आज भी हमारे लिए बहस-तलब हैं और इन्हें हम अभी तक हल नहीं कर सके।

    मुतवस्सित तबक़े की ज़िंदगी के ग़ैर-मुतनासिब अ’मल-दख़्ल की वज्ह से हिन्दी में भी कहानी और नावल की सिन्फ़ें लोक-अ’नासिर को उस फ़राख़-दिलू के साथ जज़्ब नहीं कर सकीं जिसका इज़्हार नाटकों में हुआ है। ताहम इस मैलान के वाज़ेह निशानात विजय दान देथा से लेकर असग़र वजाहत और अब्दुल बिसमिल्लाह तक, जहाँ-तहाँ मौजूद हैं। नज़्म हो या फ़िक्शन, हम जब तक कहानी के उं’सुर और मौज़ू’आती (TEHMATIC) सदाक़त के उं’सुर से बिदकते रहेंगे, लोक-रवायतों से अख़ज़ वास्तफ़ादे का मैलान हमारी हिस्सियत का हिस्सा नहीं बन सकेगा। लोक-रवायतों ने अदब की जमालियात के जिस नए तसव्वुर की तश्कील आज की हक़ीक़तों के फ्रेमवर्क में की है, हमारे लिए ये तसव्वुर ता-हाल अजनबी है।

    मेरा ख़याल है कि बंगाली या हिन्दी की लिटिल मैग्ज़ीन्स (LITTLE MAGAZINES) मसलन पहल, उत्तरगाथा और क्यों, के ख़ुतूत हमें पुरानी लोक-रवायत से निकली हुई इस नई जमालियात को अपने निज़ाम-ए-एहसास का जुज़ बनाने पर और मुआ’सिर अ’हद के आशोब और इज्तिमाई’ वारदात से इस नई जमालियात के तअ’ल्लुक़ पर फिर से ग़ौर करने की ज़रूरत है। उर्दू की हद तक, अ’वामी अदब के मसाइल हमारी अपनी “बसीरत” ने पैदा किए हैं। “बसीरत” पता नहीं क्यों, अपनी रवायत, अपनी लिसानी तरबियत और अपने तमद्दुन का अहाता करने वाली मशीनी जमालियात के भारी बोझ को अब तक उठाए फिरती है।

    हमारी बसीरत पल-भर को ये नहीं सोचती कि इस बोझ को हल्का करने का एक साफ़ और सीधा रास्ता हमारी लोक-रवायतों से निकलता है। ज़बान-ओ-बयान की लैबार्टरी के हब्स से हम आज़ाद हो सकें तो ग़ालिबन इसका अंदाज़ा भी कर सकेंगे कि आज के इंस‌ानी तजरबे और सूरत-ए-हाल की ता’बीर-ओ-तफ़हीम का एक ज़ाविया हमारी लोक-रवायत से जुड़ा हुआ है। मेरे अपने विज्दान में इस ज़ाविए को मुराजअ’त का नाम देकर मुस्तरद करने का हौसला नहीं है। शायद मैं “जदीद इंसान” के अफ़कार-ओ-एहसासात की दुनिया में बे-हिसाब तरक़्क़ियों से सहमा हुआ आदमी हूँ।

    स्रोत:

    तारीख़, तहज़ीब और तख़्लीक़ी तजरबा (Pg. 24)

    • लेखक: शमीम हनफ़ी
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2006

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