मेरी मोहसिन किताबें
(इस उन्वान से रिसाला अल-नदवा (लखनऊ) में एक सिलसिला मज़ामीन मुख्तलिफ़ अस्हाब के क़लम से शाए' हो रहा है, ज़ैल का मज़मून मुदीर-ए-सिद्क़ के क़लम से इसी सिलसिले की एक क़िस्त है।)
हुक्म मिला है एक रिंद ख़राबाती को, एक गुमनाम और बदनाम, गोशानशीन क़सबाती को कि वह भी अहल-ए-फ़ज़्ल-ओ-कमाल की सफ़ में दर आए और अपना अफ़साना-ए-रुसवाई दुनिया को कह सुनाए और यह हुक्म देने वाले कौन! एक बुज़ुर्ग सूरत और बुज़ुर्ग सीरत ख़ुर्द - बेहतर - बुज़ुर्गों और ख़ुर्दों को अगर लुत्फ़ इसी दास्तान में आता है तो लीजिए, तामीले फ़रमाइश अभी हुई जाती है। लेकिन आप हज़रात भी तो सोच समझ लीजिए, दुनिया आपके हुस्न-ए-इन्तिख़ाब को क्या कहेगी! लो पसंद आईं अदाएँ इन्हीं दीवानों की!
आँख खुली एक ख़ासे मज़हबी घराने में। बाप (अल्लाह उनकी तुरबत ठंडी रखे) एक अच्छे सरकारी ओहदेदार होने के बावजूद इल्मन मौलवी और अमलन दीनदार। माँ (अल्लाह उनकी उम्र में मज़ीद बरकत अता फ़रमाए) शब बेदार, तहज्जुद गुज़ार, ज़माना उन्नीसवीं सदी ईसवी के आख़िर का। घर पर मश्रिक़ी तालीम का चलन एक हद तक बाक़ी था। मौलवी साहब के पास बिठाए गए। क़ुरआन (नाज़िरा) के साथ-साथ उर्दू भी शुरू हो गई। मौलवी मुहम्मद इस्माइल साहब मेरठी मरहूम की रीडरें कुछ इस तरह मज़ा ले लेकर पढ़ीं कि उनकी शीरीनी अब तक याद है और उर्दू टूटी-फूटी जो कुछ भी लिखनी आई उसकी बुनियाद उसी वक़्त से पड़ गई। फ़ारसी में गुलिस्ताँ, बोस्ताँ, रुक़आत क़तील, यूसुफ़-ज़ुलेख़ा के अलावा कीमियाए सआदत भी कुछ समझे और ज़्यादातर बे-समझे जूँ-तूँ ख़त्म कर डाली, दाख़िला स्कूल में हुआ। ज़बान अरबी, उस्ताद शफ़ीक़ मिले। अरबी से जो उलझन और वहशत ना होने पाई, तसर्रुफ़ है उन्हीं बुज़ुर्गों का।
अभी बचपन ही था कि एक अंग्रेज़ी तालीम-याफ़्ता चचा-ज़ाद भाई ने शौक़ अख़बारात का पैदा करा दिया। दिल ख़ारजी मुतालअ में लगने लगा। अख़बार, रिसाला, इश्तिहार, किताब जो छपी चीज़ भी सामने आ जाती, मजाल ना थी कि बच कर निकल जाए। उर्दू के अलावा अंग्रेज़ी, फ़ारसी, अरबी में कुछ शद्द-ओ-मद्द तो हो ही गई थी, फ़िक़्ह, तसव्वुफ़, मंतिक़, मुनाज़रा, अदब, फ़साना, नॉवेल, नाटक, तिब, शायरी, सब ही कुछ तो इसमें आ गया। जोश ख़ासा मज़हबी मौजूद था, आर्यों और ईसाईयों की मुनाज़राना किताबों पर नज़र पड़ी। एक आग सी लग गई। तलाश जवाबात की हुई, धुन सी सवार हो गई, मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी की तर्क-ए-इस्लाम वग़ैरह, मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की सुरमा-ए-चश्म आर्य वग़ैरह हकीम नूरुद्दीन की नूरुद्दीन मौलाना मुहम्मद अली मुंगेरी नाज़िम नदवा का माहनामा तोहफ़ा-ए-मुहम्मदिया इसी दौर की यादगार हैं और हाँ एक नाम तो ज़ेहन से निकला ही जाता था। अब वह बेचारे यूँ भी गुमनाम हो गए हैं, मौलवी एहसानुल्लाह अब्बासी वकील गोरखपुर मुसन्निफ़ 'अल-इस्लाम, तारीख़-उल-इस्लाम' वग़ैरह। ज़ौक़-ओ-शौक़ से सारी किताबें पढ़ीं, और अपनी बिसात के लाएक़ कुछ लिखा लिखाया भी। अदबी मैदान में शरर मरहूम और उनके मुआसिरीन मुंशी सज्जाद हुसैन एडीटर अवध पंच वग़ैरह का दौर-दौरा रहा।
यह दौर कहना चाहिए कि 1903ई. से 1907ई. तक रहा। 7ई. में नियाज़ मक़ालात-ए-शिबली और अल-कलाम से हासिल हुआ और उसी दम से जादू मौलाना शिबली का चल गया। तलाश उनकी और तहरीरों की शुरू हुई। उन्हें पढ़ता ना था। तिलावत करता था। अल-नदवा वालिद मरहूम के नाम से जारी कराया। पुराने परचे मंगवाए। ताज़ा पर्चा के दिन गिना करता। मौलाना के हर मज़मून की एक एक सतर बार-बार पढ़ता। फ़िक़रे के फ़िक़रे हिफ़्ज़ हो गए, तरकीबें ज़बान पर चढ़ गईं। हम-सिनों से कहता फिरता बल्कि लड़ता-फिरता कि अल्लामा शिबली हैं, दौर के मुजद्दिद हैं, नज़ीर अहमद, हाली, सर सैयद, आज़ाद के साथ भी हुस्न-ए-एतिक़ाद क़ाएम रहा।
1908ई. में उम्र का सोलहवाँ साल था कि मैट्रिक पास कर लखनऊ कॉलेज में दाख़िल हुआ और अब अंग्रेज़ी किताबों पर टूट पड़ा। इत्तिफ़ाक़ से शुरू ही में एक बड़े अंग्रेज़ डॉक्टर की किताब सामने आ गई।
ज़ालिम ने खुल कर और बड़े ज़ोरदार अल्फ़ाज़ में मादि्दयत की हिमायत और मज़हब-ओ-अख़लाक़ दोनों से बग़ावत की थी। मौज़ूअ यह था कि इस्मत और नेक-चलनी के कोई मानी नहीं महज़ पुराने लोगों का गढ़ा हुआ ढ़कोसला है। असल शय सेहत और माद्दी राहत है। सेहत का ख़याल रख कर जो कुछ जी में आए करो। निकाह वग़ैरह की क़ैदें सब लायानी हैं। मुसन्निफ़ के पेश-ए-नज़र इस्लाम यक़ीनन ना था लेकिन ज़िद तो बहर-हाल इस्लाम पर पड़ती थी, ख़यालात डांवाडोल होने लगे। इस ज़माना में इत्तिफ़ाक़ से एक और किताब भी नज़र से गुज़री। यह अदबी थी। मशाहीर-ए-आलम के अक़वाल-ओ-ख़यालात पर इसमें एक जगह पूरे क़द की तस्वीर, सफ़्हा भर पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दर्ज थी और नीचे सनद यह भी थी कि फलाँ (ग़ालिबन रूमा) के म्यूज़ियम में क़लमी तस्वीर मौजूद है यह उसका फोटो है। हुलया यह था,
सर पर अमामा, जिस्म पर अबा, तलवार कमर से बंधी हुई, शाना पर तरकश, हाथ में कमान, तेवरों पर बल पड़े हुए, आँखों से ग़ुस्सा, बशरा से तुंदख़ूई अयाँ, शान-ए-रहमतुल्लिलआलमीन अलग रही। मामूली नर्म-दिल और नेक-मिज़ाजी के आसार भी यकसर मफ़्क़ूद। नीचे सनद दर्ज, मग़्रबियत से मरऊब दिमाग़ के लिए अब शक-ओ-शुबह की गुंजाइश ही कहाँ रह गई थी?
दिमाग़ पहले ही मफ़्लूज हो चुका था, अब दिल भी मजरूह हो गया। इर्तिदाद दबे पाँव आया, इस्लामियत को मिटा, ईमान को हटा, ख़ुद मुसल्लत हो गया। आर्यत, मसीहियत दूसरे मज़ाहिब से पहले ही से दिल हटा हुआ था, अब खुल्लम-खुला आज़ादी और आज़ाद ख़याल की हुकूमत क़ाएम हो गई। इल्हाद का नशा, बे-दीनी की तरंग रेशनलिज़्म (अक़्लियत) से पींग बढ़े, रेगना स्टीज़्म (ला-अदरियत) से याराना घटा। लंदन की रेशनलिस्ट एसोसिएशन (अंजुमन-ए-आक़ल्लीन) की मेम्बरी क़बूल कर सारा वक़्त ह्यूम, मिल, स्पेंसर, हक्सले, हेगेल, इंगरसोल, ब्रेडला, एविशंज़, डारविन और यूनान के हुकमा, मादीन हिंशगिलीन वग़ैरह की नज़र होने लगा। मिल को इतना पढ़ा, इतना पढ़ा कि लड़कों में मिल का हुफ़्फ़ाज़ मशहूर हो गया।
एक और किताब तिब से मुतअल्लिक़ उज़वियात-ए-दिमाग़ी Organical Physeology पर एक मशहूर अंग्रेज़ डॉक्टर की इस ज़माने में नज़र से गुज़री। ज़िक्र अमराज़-ए-असबी-ओ-दिमाग़ी का था। बद-बख़्त ने मरज़-ए-सर के ज़िम्न में लिखा था कि इसकी अलामात को लोग पुराने ज़माने में वह्यी-इलाही समझने लगते थे, और मसरू के आम क़ोवाए दिमाग़ी तो बहुत अच्छे होते हैं वह दुनिया में इंक़िलाब बरपा कर सकता है, मज़हब और सल्तनत दोनों क़ाएम कर सकता है, व-क़िस अला हाज़ा... इर्तिदाद, इल्हाद, और इस्लामी बेज़ारी में अगर कुछ कसर बाक़ी थी तो अब पूरी हो गई। एफ़.ए. के इम्तिहान की फ़ीस जमा होने लगी। तो फ़ॉर्म में जहाँ मज़हब का ख़ाना होता है वहाँ बजाए मुसलमान के रेशनलिस्ट लिख दिया!
इल्हाद, बे-दीनी, या अक़ल्लियत का यह दौर कोई 8-10 साल तक क़ाएम रहा। यानी 1909ई. से वसत-ए-1918ई. तक। एफ़.ए., बी.ए. की तकमील हुई 4 एम.ए. की तकमील ना हुई। लेकिन तालीम तो बहर-हाल फ़ल्सफ़ा लेकर पाई। मज़मून-निगारी, तस्नीफ़, तालीफ़, उर्दू और अंग्रेज़ी दोनों ज़बानों में जारी रही। होते-होते 1918ई. आ गया। आख़िर साल था कि एक दोस्त की तहरीक पर अंग्रेज़ी में बौद्ध मज़हब पर किताबें देखीं और दिल किसी क़दर उधर माएल हुआ। मअन बाद हिंदू फ़ल्सफ़ा का मुतालअ शुरू हो गया। ख़ुसूसन मिसेज़ बेसंट और बनारस के मशहूर फ़्लास्फर डॉक्टर भगवान दास के अंग्रेज़ी तराजिम-ओ-तालीफ़ात के ज़रिए से मग़्रबियत, मादि्दयत, और अक़ल्लियत का जो तेज़ नशा सवार था, वह ब-तदरीज हल्का होने लगा। और दिल इस का क़ाएल हो गया कि माद्दी और हिस्सी दुनिया के अलावा भी किसी और आलम का वुजूद है ज़रूर।
भगवत गीता का अंग्रेज़ी एडीशन (मिसेज़ बेसंट का तर्जुमा) इस हैसियत से अक्सीर साबित हुआ। ख़ुदा का नाम अब क़ाबिल-ए-मज़्हका ना रहा, रूह और रूहानियत के अल्फ़ाज़ से नफ़रत-ओ-बेज़ारी दूर हो गई, हाँ इसी दरमियान में मौलाना शिबली की सीरतुन्नबी की जिल्द अव्वल शाए' हो चुकी थी। इसे ख़ूब ग़ौर से पढ़ा था और इससे भी अच्छा असर क़बूल किया था। साहिब-ए-सीरत की रिसालत पर ईमान तो अब भी दूर की चीज़ थी लेकिन मारगोलीस वग़ैरह के असर से (नऊज़ुबिल्लाह) जो एक ख़द्दाअ और ख़ूनख़्वार सरदार का तसव्वुर क़ाएम हो गया था, आँखों से यह ज़ंग इसी सीरत के मुतालअ की बरकत से कट चुका था और इसकी जगह एक ख़ुश-नियत मुस्लिह-ए-क़ौम के तख़य्युल ने ले ली थी।
अब दिल मुसलमान सूफ़िया के अक़वाल-ओ-अहवाल में भी लगने लगा था। कश्फ़-ओ-करामत के ज़िक्र पर अब यह ना होता कि बे-साख़्ता हँसी आ जाती, बल्कि तलाश इस क़िस्म के मल्फ़ूज़ात-ओ-मनक़ूलात की रहने लगी। फ़ारसी और उर्दू किताबें बहुत सी इस सिलसिले में पढ़ डालीं। मुसलमान तो अब भी ना था लेकिन तुग़्यान-ओ-उदवान का ज़ोर टूट चुका था। मोहसिन किताबों के सिलसिला में मोहसिन शख़्सियतों का ज़िक्र यक़ीनन बे-महल है। लेकिन इतना कहे बग़ैर आगे बढ़ा नहीं जाता कि इस दौर में दो या तीन ज़िंदा हस्तियाँ भी ऐसी थीं जिन से तबीयत रफ़्ता-रफ़्ता बहुत तदरीजी रफ़्तार से सही लेकिन बहर-हाल इस्लाही असर क़बूल करती रही। एक उर्दू के मशहूर हकीम-ओ-ज़रीफ़ शाइर अकबर इलाहाबादी हैं, दूसरे कॉमरेड के एडीटर उस वक़्त के मिस्टर और इसी दरमियान मौलाना हो जाने वाले मुहम्मद अली! इन दो के बाद हल्का-हल्का असर मौलाना हमीदुद्दीन मुफ़स्सिर-ए-क़ुरआन का भी पड़ता रहा।
1919ई. क़रीब ख़त्म था। एक अज़ीज़ के पास मसनवी मानवी (कानपुरी एडीशन) के छः ज़ख़ीम दफ़्तर दिखाई दिए (अल्लाह रहमतुल्लाह की तुर्बत पर अपनी रहमत के फूल बरसाए!) काग़ज़, किताबत, तबाअत के जुमला महासिन-ए-ज़ाहिरी से आरास्ता। हाशिया निहायत मुफ़स्सल। चंद साल उधर तवज्जो भी ना करता लेकिन अब ज़मीन पूरी तरह तैयार हो चुकी थी, मे'दा को ग़िज़ा घंटा और मिनट की पाबंदी के साथ ठीक वक़्त से मिली। मुतालअ ज़ौक़-ओ-शौक़ से शुरू किया और हर क़दम पर शौक़ की रफ़्तार तेज़ से तेज़-तर होती गई। अल्फ़ाज़ मिलने मुश्किल हैं जिनमें इस ज़ौक़-ओ-शौक़ की कैफ़ियत बयान की जाए, फ़ारसी इस्ते'दाद-ए-वाजिबी ही थी।
सुलूक-ओ-मारिफ़त के नुकात-ओ-असरार अलग रहे। ज़ाहिरी लफ़्ज़ी मानी भी सदहा अशआर के समझ में ना आए लेकिन इनहिमाक का यह आलम कि एक शेर भी छोड़ने को जी ना चाहता था और दिल बे-इख़्तियार यह चाहता कि जिस तरह भी मुम्किन हो सारे दफ़्तरों को एक दम से चाट जाऊँ। खाने-पीने, मिलने-जुलने तक का होश ना रहा। तबीयत बेक़रार कि कमरा बंद किए बस इसी को शुरू से आख़िर तक पढ़े चला जाऊँ। हर शेर तीर-ओ-नश्तर बन कर दिल के अंदर पैवस्त होता जाता और तश्कीक, इरतियाब, अक़ल्लियत-ओ-ला-अदरियत के बादल सब छटते चले जाते। हाशिए इल्मी रंग के दिल को ज़्यादा ना भाते। ख़ुसूसन शैख़ इब्न-ए-अरबी के नज़रियात जहाँ आ जाते वहाँ तो दम उलझने लगता कि यह तो फिर वही अफ़लातून वग़ैरह के तर्ज़ की बातें आ गईं जिनसे घबरा कर और उकता कर मैं भागा था। हज़रत हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की के छोटे सादे और पुर-मग़्ज़ हाशिए जहाँ नज़र पड़ जाते तबीयत फड़क जाती और दिल गवाही दे उठता कि बेशक यह क़ौल के सच्चे ही का हो सकता है।
मौलाना ने हज़रत रिसालत ﷺ के बाब में कहा है कि इस पर किसी मोजिज़ा या ख़ारिक़-ए-आदत से दलील-ए-ख़ारजी लाने के क्या मानी, पयम्बर की तो हर चीज़ बजाए ख़ुद एक मोजिज़ा होती है।
रूया-ओ-आवाज़ पयम्बर मोजिज़ा अस्त
बस अपना बिल्कुल यही हाल ख़ुद-मसनवी से मुतअल्लिक़ था। हर शेर ख़ुद पुकार कर शहादत दे रहा था कि मैं सच्चे ही की ज़बान से निकला हूँ, किसी और दलील-ओ-बुर्हान की हाजत ही ना थी। मसनवी का मुतालअ हफ़्तों नहीं महीनों मुसलसल जारी रहा और इस सारी मुद्दत में एक नशा सा सर पर सवार रहा। उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते बस उसकी धुन, उसी आलम में कहीं मर गया होता तो अजब नहीं कि नकीरैन के सामने मज़हब के सवाल पर जवाब ज़बान से यही निकलता कि वही मज़हब है जो मौलानाए रूम का मज़हब था। क़ुरआन-ओ-रिसालत तक पर अभी ईमान पुख़्ता ना था, बस दलील सबसे बड़ी यही थी कि जब साहिब-ए-मसनवी इस पर ईमान रखते हैं तो क्यों ना यह दीन सच्चा होगा।
ग़ालिबन अगस्त 20ई. था कि एक अज़ीज़ के पास मौलवी मुहम्मद अली लाहौरी का अंग्रेज़ी तर्जुमतुल-क़ुरआन पढ़ने में आया। तबीयत ने इससे भी बहुत गहरा और अच्छा असर क़बूल किया। मग़्रिबी राह से आए हुए बीसियों शुबहात-ओ-एतराज़ात इस तर्जुमा-ओ-तफ़्सीर से दूर हो गए और यह राय अब तक क़ायम है। इस बीस साल के अर्से में ख़ामियाँ और ग़लतियाँ बहुत सी, बल्कि बाज़ जगह तो ऐसी जसारतें जिनके डांडे तहरीफ़ से मिल जाते हैं। इस तर्जुमा-ओ-तफ़्सीर की इल्म में आ चुकीं लेकिन अंग्रेज़ी ख़्वानों और मग़्रिब-ज़दों के हक़ में इसके मुफ़ीद और बहुत मुफ़ीद होने में ज़रा भी कलाम नहीं। हिदायत का वासता, जब अल्लाह की हिकमत, सरीह ग़ैर-मुस्लिमों के कलाम को बना देती है तो यह तो बहर-हाल अल्लाह के कलाम का तर्जुमा-ओ-हाशिया है। मुतरज्जिम की बाज़ ऐतेक़ादी ग़फ़लतों की बिना पर उन की सारी कोशिश से बद-ज़न हो जाना क़रीना-ए-इंसाफ़-ओ-मुक़ताज़ाए तह़क़ीक़ नहीं।
नीम मुसलमान हो चुकने के बाद फिर पूरा मुसलमान बन जाना और उदख़ुलू फ़िस्सिलमी काफ़्फ़ा (इस्लाम में पूरे-पूरे दाख़िल हो जाओ।) तहत में आ जाना कुछ ज़ियादा दुश्वार ना था। इक़बाल की उर्दू और फ़ारसी नज़्में, मुहम्मद अली की नज़्में और तहरीरें (ख़ुसूसन ज़माना-ए-नज़र-बंदी 1921-23 की), सब अपना-अपना काम करती रहीं, दिल में घर करती गईं। यहाँ तक कि मक्तूबात-ए-मुजद्दिदी ने इस पर पूरी मुहर लगा दी। मक्तूबात का जो अमृतसरी नुस्ख़ा, मुतअद्दिद जिल्दों में पेश-ए-नज़र रहा, वो अपनी सफ़ाई, ख़ुश-नुमाई और कसरत-ए-हवाशी के लिहाज़ से गोया मसनवी ही के उसी कानपुरी एडिशन की टक्कर का था और असर में शायद उससे कुछ ही कम। मसनवी से अगर तबीयत में एक शोरिश और तड़प पैदा हो गई थी, तो उसमें सुकून और ठहराव मक्तूबात ही की बरकत से हासिल हुआ। दरमियान में अत्तार, सनाई, जामी, शेख़ जीलानी, ग़ज़ाली, सोहरवर्दी, वग़ैरहुम अकाबिर, शुयूख़ की ख़ुदा मालूम कितनी किताबें, नज़्म-ओ-नस्र की, नज़र से गुज़र गईं, लेकिन दिल पर नक़्श इनहीं दो किताबों का सबसे गहरा बैठा रहा। पहले मसनवी और फिर मक्तूबात। हालांकि समझ में दोनों का बड़ा हिस्सा उस वक़्त तो क्या, अब तक भी नहीं आया।
सताईस (27) ई. था कि एक दोस्त की रहनुमाई से पहले रसाई मौलाना थानवी मद्द ज़िल्लहु के मवाइज़ और बाज़ रसाइल-ए-सुलूक तक हुई और फिर अठाईस (28) में ख़ुद मौलाना और उनकी दूसरी तसानीफ़ तक, इसने हक़ाइक़-ए-दीनी-ओ-इरफ़ानी का एक नया आलम नज़र के सामने कर दिया। अब इधर चंद साल से मुसल्सल मश्ग़ला इस बे-इल्म-ओ-ना-अहल का ख़िदमत-ए-क़ुरआनी का है। अपना तज्रुबा ये है कि दूसरे हज़रात के यहाँ अक्सर औराक़ पर औराक़ उलट जाने से भी वो गहरे नुक़्ते नहीं मिलते जो मुफ़स्सिर थानवी के यहाँ चंद सत्रों के अंदर मुयस्सर आ जाते हैं। मुआसिरत का इब्तिला अजब इब्तिला है। अल्लाह सबको महफ़ूज़ रखे, जो देखना नहीं चाहते, उन्हें आँखें चीर कर दिखाया भी कैसे जा सकता है? और ये सिर्फ़ तफ़्सीर या दूसरे उलूम-ए-ज़ाहिरी ही पर मौक़ूफ़ नहीं है। उलूम-ए-बातिनी में तो पाया शायद कुछ बुलंद-तर ही निकले।
ऐ लिक़ा-ए-तू जवाब-ए-हर सवाल
मुश्किल अज़ तू हल शवद बे-क़ील-ओ-क़ाल
मोहसिन, किताबों की तादाद है इतनी बड़ी कि सब की तफ़्सील लिखी जाए तो बजाए ख़ुद एक किताब तैयार हो जाए। मुख़्तसर, बल्कि मुख़्तसर-तर और मुख़्तसर ये कि हदीस में सहीह बुख़ारी और उसकी शरह फ़त्हुल बारी ने आँखें खोल दीं और फ़िक़्ह में शरह-ए-सद्र के लिए आइम्मा-ए-हनफ़िया के अक़्वाल बिल्कुल काफ़ी साबित हुए। फ़ह्म-ए-क़ुरआनी में मशहूर-ओ-मुतदाविल तफ़ासीर को मुईन-ओ-मुफ़ीद पाया। इनकी बे-वक़अती ख़ुद अपनी महरूमी की दलील है। इन किताबों का नाम इस बे-तकल्लुफ़ी से ले रहा हूँ कि गोया सब को रवाँ और सेहत-ए-एराब के साथ पढ़ सकता हूँ। हालांकि ये ज़रा भी सही नहीं। लुग़ात, शुरूह, तराजिम के सहारे काम किसी ना किसी तरह बस चल ही जाता है। लुग़त में ताजुल-उरूस और फिर लिसानुल अरब के साथ और लुग़त-ए-क़ुरआनी में मुफ़रिदात-ए-राग़िब के साथ सबसे ज़ियादा लगा-लिपटा रहता हूँ।
इंसानी किताबों के साथ और उनके ज़िम्न में अल्लाह की किताब का नाम ले आना और दोनों में मुवाज़िना-ओ-तक़ाबुल को ठहराना बड़ी ही बद-मज़ाक़ी है और फिर मोहसिन, किताबों में किताबों (सेग़ा-ए-जमा) का लफ़्ज़ ख़ुद इस पर दलालत कर रहा है कि अल-किताब मौज़ू से बिल्कुल ख़ारिज है।
हाशिया:
(1) मौलाना सय्यद सुलेमान साहब नदवी
(2) अली मियाँ सल्लमहू, एडिटर अल-नदवा
(3) इन्हिमाक-ए-ख़ास के मज़ामीन दो थे: एक मंतिक़, दूसरे नफ़्सियात। नफ़्सियात में सबसे ज़ियादा असर अमेरिका के मशहूर उस्ताद-ए-फ़न विलियम जेम्स का रहा।
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