अनीस अशफ़ाक़ द्वारा अनुवाद
ज़िंदगी यहाँ और वहाँ
दो किरदारों की मदद से इस कहानी में दुख और सुख के फ़ल्सफ़े को बयान किया गया है। कहानी का किरदार कहता है कि क्या कोई ऐसी चीज़ है जिस पर उँगली रखकर कहा जा सके कि ये सुख है, ये तशफ़्फ़ी है। एक जगह कहता है कि दुख में कोई डर नहीं होता लेकिन हम जिसे सुख कहते हैं वो हमेशा ख़तरों से भरा रहता है। किरदारों की नास्टेलजाई कैफ़ीयत कहानी को माअ्न्वी तौर पर और दबीज़ बनाती है।
सुबह की सैर
इस कहानी में इन्सान के ख़ाली-पन, माज़ी की यादों और रिश्तों की माअ्नवियत को बयान किया गया है। निहाल चंद एक रिटायर्ड कर्नल हैं जिनका बेटा बेरून-ए-मुल्क रहता है। बीवी का इंतिक़ाल हो चुका है और वो एक नौकर के सहारे ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। सुबह की सैर के लिए निकलते हैं तो रात तक वापिस आते हैं और दिन-भर जंगल में यहाँ वहाँ गुज़ारते हैं। एक दिन जँगल में उन्हें एक पेड़ से लटकी हुई रस्सी नज़र आती है, उनका तसव्वुर-ओ-तख़य्युल उन्हें उस रस्सी के सहारे माज़ी में ले जाता है और फिर वो उसी रस्सी से झूलते हुए पाए जाते हैं।
धूप का एक टुकड़ा
इस कहानी में बीते हुए वक़्त और यादों के बीच के ख़ला को उम्दा पैराये में बयान किया गया है। एक शादी-शुदा औरत जब एक रात अपने शौहर के इस रद्द-ए-अमल को महसूस नहीं करती जिसकी वो तालिब है तो वो उसे छोड़कर बाहर चली आती है। और फिर एक पार्क में सुबह से शाम तक बैठना उसके मामूल में शामिल हो जाता है। वो पार्क में उस जगह बैठती है जहाँ से गिरजा-घर साफ़ नज़र आता है, ये वही गिरजा-घर है जहाँ पंद्रह साल पहले उसकी शादी हुई थी।