फ़र्रुख़ जाफ़री
ग़ज़ल 20
अशआर 8
इस राज़ के बातिन तक पहुँचा ही नहीं कोई
क्यूँ लौट के घर अपने आया ही नहीं कोई
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थे उस के हाथ लहू में हमारे ग़र्क़ मगर
ज़रा भी शर्म न आई उसे मुकरते हुए
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मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
दरमियाँ के फ़ासले का तय सफ़र कैसे करें
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हर रोज़ दिखाई दें सब लोग वहीं लेकिन
जब ढूँडने निकलें तो मिलता ही नहीं कोई
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हिजाब उस के मिरे बीच अगर नहीं कोई
तो क्यूँ ये फ़ासला-ए-दरमियाँ नहीं जाता
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