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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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शमीम हनफ़ी

1939 - 2021 | दिल्ली, भारत

अग्रणी उर्दू आलोचक और भारतीय संस्कृति के विद्वान

अग्रणी उर्दू आलोचक और भारतीय संस्कृति के विद्वान

शमीम हनफ़ी के शेर

शाम ने बर्फ़ पहन रक्खी थी रौशनियाँ भी ठंडी थीं

मैं इस ठंडक से घबरा कर अपनी आग में जलने लगा

मैं ने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को

ख़ामुशी लफ़्ज़ की दीवार गिरा देती है

बंद कर ले खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर देख

डूबती आँखों से अपने शहर का मंज़र देख

तमाम उम्र नए लफ़्ज़ की तलाश रही

किताब-ए-दर्द का मज़मूँ था पाएमाल ऐसा

वो एक शोर सा ज़िंदाँ में रात भर क्या था

मुझे ख़ुद अपने बदन में किसी का डर क्या था

बुलंदियाँ आसमाँ की सूरत ज़मीन के पाँव चूमती हैं

ज़मीन शायद बुलंद-तर थी ज़मीन ही में उतर गया वो

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