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अतीक़ुल्लाह

1941 | दिल्ली, भारत

ख्यातिप्राप्त आलोचक और शायर, दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफ़ेसर रहे

ख्यातिप्राप्त आलोचक और शायर, दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफ़ेसर रहे

अतीक़ुल्लाह के शेर

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ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी

और इक चराग़ से कितने चराग़ जलते थे

रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए

आप अपनी ज़ात से उस को बहुत इंकार था

आइना आइना तैरता कोई अक्स

और हर ख़्वाब में दूसरा ख़्वाब है

हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे

आसमानों में रह गया था कुछ

दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना

सुब्ह से पहले कई मर्तबा मर जाता हूँ

इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं

रात उतनी ही मयस्सर है सफ़र उतना ही है

फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई

किसी के वास्ते कोई दुआ करता था

लम्स की शिद्दतें महफ़ूज़ कहाँ रहती हैं

जब वो आता है कई फ़ासले कर जाता है

ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है

फिर इस के बाद ही इंकार कर के देखा जाए

बड़ी चीज़ है ये सुपुर्दगी का महीन पल

समझ सको तो मुझे गँवा के भी देखना

अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को

आँख में अश्क का क़तरा भी नहीं है कोई

कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था

यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था

अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है

कभी दिखाई दिया था हरा-भरा वो भी

कुछ बदन की ज़बान कहती थी

आँसुओं की ज़बान में था कुछ

हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है

देखने वाला भी तो हो तय्यार मुझे

तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे

कहीं कहीं जो चमक रहे हैं हुरूफ़ मेरी इबारतों में

ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है

सामान उसी का था जो बे-सर-ओ-सामाँ था

मुझ में ख़ुद मेरी अदम-मौजूदगी शामिल रही

वर्ना इस माहौल में जीना बड़ा दुश्वार था

कोई शब ढूँडती थी मुझ को और मैं

तिरी नींदों में जा कर सो गया था

किसी इक ज़ख़्म के लब खुल गए थे

मैं इतनी ज़ोर से चीख़ा नहीं था

तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है

हम ने वो ज़माना भी गुज़रते हुए देखा

पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था

चढ़ते हुए देखा उतरते हुए देखा

कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं

इस आसमान से नीचे उतर के देखा जाए

ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर जाए

आइंदा लम्हा अब के भी यूँही गुज़र जाए

सफ़र-गिरफ़्ता रहे कुश्तगान-ए-नान-ओ-नमक

हमारे हक़ में कोई फ़ैसला करता था

वो बात थी तो कई दूसरे सबब भी थे

ये बात है तो सबब दूसरा नहीं होगा

वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई

अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था

किस के पैरों के नक़्श हैं मुझ में

मेरे अंदर ये कौन चलता है

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