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गोया फ़क़ीर मोहम्मद

1784 - 1850 | लखनऊ, भारत

नासिख़ के शिष्य, मराठा शासक यशवंत राव होलकर और अवध के नवाब ग़ाज़ी हैदर की सेना के सदस्य

नासिख़ के शिष्य, मराठा शासक यशवंत राव होलकर और अवध के नवाब ग़ाज़ी हैदर की सेना के सदस्य

गोया फ़क़ीर मोहम्मद के शेर

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बिजली चमकी तो अब्र रोया

याद गई क्या हँसी किसी की

होगा कोई मुझ सा महव-ए-तसव्वुर

जिसे देखता हूँ समझता हूँ तू है

जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ आई होती

आह ने अर्श की ज़ंजीर हिलाई होती

नहीं बचता है बीमार-ए-मोहब्बत

सुना है हम ने 'गोया' की ज़बानी

अपने सिवा नहीं है कोई अपना आश्ना

दरिया की तरह आप हैं अपने कनार में

नक़्श-ए-पा पंच-शाख़ा क़बर पर रौशन करो

मर गया हूँ मैं तुम्हारी गरमी-ए-रफ़्तार पर

मर के भी तिरी सूरत को देखने दूँगा

पड़ूँगा ग़ैर की आँखों में वो ग़ुबार हूँ मैं

सारे क़ुरआन से उस परी-रू को

याद इक लफ़्ज़-ए-लन-तरानी है

नासेहा आशिक़ी में रख मा'ज़ूर

क्या करूँ आलम-ए-जवानी है

ज़ाहिदो क़ुदरत-ए-ख़ुदा देखो

बुत को भी दावा-ए-ख़ुदाई है

ख़ार चुभ कर जो टूटता है कभी

आबला फूट फूट रोता है

वो तिफ़्ल-ए-नुसैरी आए शायद

क़स्में दूँ मुर्तज़ा-अली की

ज़ोफ़ से रहता है अब पाँव पे सर

आप-अपनी ठोकरें खाते हैं हम

ख़ून मिरा कर के लगाना हिना मेरे ब'अद

दस्त रंगीं हों अंगुश्त-नुमा मेरे ब'अद

दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में

ये माह वो हैं नज़र आएँ जो महीनों में

जामा-ए-सुर्ख़ तिरा देख के गुल

पैरहन अपना क़बा करते हैं

आसमाँ कहते हैं जिस को वो ज़मीन-ए-शेर है

माह-ए-नौ मिस्रा है वस्फ़-ए-अबरू-ए-ख़मदार में

दर पे नालाँ जो हूँ तो कहता है

पूछो क्या चीज़ बेचता है ये

हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ

गर चंद क़दम चलिए तो क्या ख़ूब ग़ज़ल हो

सख़्त है हैरत हमें जो ज़ेर-ए-अबरू ख़ाल है

हम तो सुनते थे कि का'बे में कोई हिन्दू नहीं

ठुकरा के चले जबीं को मेरी

क़िस्मत की लिखी ने यावरी की

गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल

मुसलमाँ वारिद-ए-हिन्दोस्ताँ है

गर हमारे क़त्ल के मज़मूँ का वो नामा लिखे

बैज़ा-ए-फ़ौलाद से निकलें कबूतर सैकड़ों

मिस्ल-ए-तिफ़्लाँ वहशियों से ज़िद है चर्ख़-ए-पीर को

गर तलब मुँह की करें बरसाए पत्थर सैकड़ों

जो पिन्हाँ था वही हर सू अयाँ है

ये कहिए लन तरानी अब कहाँ है

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