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कन्हैया लाल कपूर के हास्य-व्यंग्य
ग़ालिब जदीद शु'अरा की एक मजलिस में
(दौर-ए-जदीद के शोअरा की एक मजलिस में मिर्ज़ा ग़ालिब का इंतज़ार किया जा रहा है। उस मजलिस में तक़रीबन तमाम जलील-उल-क़द्र जदीद शोअरा तशरीफ़ फ़र्मा हैं। मसलन मीम नून अरशद, हीरा जी, डाक्टर क़ुर्बान हुसैन ख़ालिस, मियां रफ़ीक़ अहमद ख़ूगर, राजा अह्द अली खान, प्रोफ़ेसर
ग़ालिब के दो सवाल
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है एक दिन मिर्ज़ा ग़ालिब ने मोमिन ख़ां मोमिन से पूछा, “हकीम साहिब, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?” मोमिन ने जवाब में कहा, “मिर्ज़ा साहिब, अगर दर्द से आपका मतलब दाढ़ का दर्द है, तो उसकी कोई दवा नहीं, बेहतर होगा आप
तरक़्क़ी-पसंद ग़ालिब
पहला मंज़र (बाग़-ए-बहिश्त में मिर्ज़ा ग़ालिब का महल। मिर्ज़ा दीवानख़ाना में मस्नद पर बैठे एक परीज़ाद को कुछ लिखवा रहे हैं, साग़र-ओ-मीना का शुग़ल जारी है। एक हूर साक़ी के फ़राइज़ अंजाम दे रही है।) (मुंशी हर गोपाल तफ्ता दाख़िल होते हैं) तफ़्ता आदाब
ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे़
बाग़-ए-बहिश्त में मिर्ज़ा ग़ालिब अपने महफ़िल में एक पुरतकल्लुफ़ मस्नद पर बैठे दीवान-ए-ग़ालिब की वर्क़ गरदानी कर रहे हैं। अचानक बाहर से नारों की आवाज़ आती है। ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे़... ग़ालिब के... उड़ेंगे पुर्जे़... मिर्ज़ा घबरा कर लाहौल पढ़ते हैं और फ़रमाते
इनकम टैक्स वाले
मुनकिर-नकीर और महकमा इन्कम टैक्स के इंस्पेक्टरों में यही फ़र्क़ है कि मुनकिर-नकीर मरने के बाद हिसाब मांगते हैं और मोअख़्ख़र-उल-ज़िक्र मरने से पहले। बल्कि ये कि मुनकिर-नकीर सिर्फ़ एक बार मांगते हैं और इन्कम टैक्स के इंस्पेक्टर बार-बार नीज़ ये कि
पाँच क़िस्म के बेहूदा शौहर
अगर किसी मर्द से पूछा जाये पाँच किस्म के बेहूदा शौहर कौन से हैं तो वो कहेगा, ‘‘साहिब अ’क़्ल के नाख़ुन लीजिए। भला शौहर भी कभी बेहूदा हुए हैं। बेहुदगी की सआदत तो बीवियों के हिस्से में आई है।” और अगर किसी औरत से यही सवाल किया जाये तो जवाब मिलेगा, “सिर्फ़
हमने कुत्ता पाला
“आप ख़्वाह मख़्वाह कुत्तों से डरते हैं। हर कुत्ता बावला नहीं होता। जैसे हर इंसान पागल नहीं होता। और फिर ये तो “अलसेशियन” है। बहुत ज़हीन और वफ़ादार।” कैप्टन हमीद ने हमारी ढारस बंधाते हुए कहा।कैप्टन हमीद को कुत्ते पालने का शौक़ है। शौक़ नहीं जुनून है। कुत्तों
एक शेर याद आया
बात उस दिन ये हुई कि हमारा बटुवा गुम हो गया। परेशानी के आलम में घर लौट रहे थे कि रास्ते में आग़ा साहिब से मुलाक़ात हुई। उन्होंने कहा, “कुछ खोए खोए से नज़र आते हो।’’ “बटुवा खो गया है।” “बस इतनी सी बात से घबरा गए, लो एक शे’र सुनो।” “शे’र सुनने और
दो को लड़ाना
दो मुर्गों या बटेरों को लड़ाना शुग़ल हो सकता है फ़न नहीं, अलबत्ता दो आदमियों को लड़ाना ख़ासकर जबकि वो हम-प्याला-व-हम-निवाला हों, दाँत काटी रोटी खाते हों, यक़ीनन फ़न है। इस फ़न के मूजिद तो नारद मुनी हैं क्योंकि उनका पसंदीदा शुग़ल देवताओं और इंसानों को आपस में
बनाने का फ़न
दूसरों को बनाना... ख़ास कर उन लोगों को जो चालाक हैं या अपने को चालाक समझते हैं, एक फ़न है।आप शायद समझते होंगे कि जिस शख़्स ने भी लोमड़ी और कव्वे की कहानी पढ़ी है वो बख़ूबी किसी और शख़्स को बना सकता है। आप ग़लती पर हैं। वो कव्वे जिसका ज़िक्र कहानी में किया
ख़ुदकुशी
आख़िर उसने ख़ुदकुशी कर ली। क्या उसे किसी से इश्क़ था? क्या वो घोड़ दौड़ में रुपया हार गया था? क्या वो मक़रूज़ था? नहीं, उसे सिर्फ़ ज़ुकाम की शिकायत थी, बस इतनी सी बात पर, इतना बुज़दिल। नहीं साहिब वो बुज़दिल नहीं था जो शख़्स मुतवातिर पंद्रह दिन
पीर-ओ-मुर्शिद
पतरस मेरे उस्ताद थे। उनसे पहली मुलाक़ात तब हुई जब गर्वनमेंट कॉलेज लाहौर में एम.ए. इंग्लिश में दाख़िला लेने के लिए उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ। इंटरव्यू बोर्ड तीन अराकीन पर मुश्तमिल था। प्रोफ़ेसर डेकंसन (सदर शो'बा-ए-अंग्रेज़ी) प्रोफ़ेसर मदन गोपाल सिंह और प्रोफ़ेसर
शैख़ सिल्ली
शेख़ सिल्ली कि जो शैख़ चिल्ली के पड़ पोते कहलाते थे, दूर की कौड़ी लाने में यकताए रोज़गार थे। एक दिन बेगम से कहने लगे, “प्लान बनाओ वर्ना तबाह होने के लिए तैयार हो जाओ।” बेगम समझें शैख़ साहब फैमली प्लैनिंग का ज़िक्र कर रहे हैं। हवा में हाथ नचाते
साईं बाबा का मशवरा
मेरे प्यारे बेटे मिस्टर ग़मगीं! जिस वक़्त तुम्हारा ख़त मिला, मैं एक बड़े से पानी के पाइप की तरफ़ देख रहा था जो सामने सड़क पर पड़ा था। एक भूरी आँखों वाला नन्हा सा लड़का उस पाइप में दाख़िल होता और दूसरी तरफ़ से निकल जाता, तो फ़र्त-ए-मसर्रत से उसकी आँखें ताबनाक
चंद मक़बूल आम फ़िल्मी सीन
मुहब्बत का सीन मजनूं: मुझे तुमसे कुछ कहना है लैला लैला: यही न कि तुम्हें मुझसे मुहब्बत है मजनूं: मुहब्बत नहीं बल्कि... लैला: (बात काट कर) वालिहाना इश्क़ है। लैला: शुक्रिया, लेकिन मुझसे बग़लगीर होने की कोशिश मत करो, वहीं खड़े
जहलिस्तान
जहलिस्तान में जिसे कुछ लोग जहालत निशान भी कहते थे बहुत सी चीज़ें और अश्ख़ास अ’जीब-ओ-ग़रीब थे। ऐसे दो पाए थे जिन पर चौपायों का गुमान होता था। ऐसे वुकला थे जिनमें और जेबकतरों में बज़ाहिर कोई फ़र्क़ न था। ऐसे हकीम थे जो दुखती आँख के मरीज़ को आँख निकलवा देने
हिमाक़त
जब कॉलेज में पढ़ते थे और दोस्तों और रिश्तेदारों की अज़दवाजी ज़िंदगी को क़रीब से देखते थे तो सोचा करते थे कि ज़िंदगी में बड़ी से बड़ी हिमाक़त करेंगे लेकिन शादी नहीं करेंगे। ये ख़याल और भी मुस्तहकम हो जाता है जब आए दिन बड़े भाई साहिब और भावज में नोक झोंक सुनने
कलकत्ता का ज़िक्र
लाहौर से कलकत्ते का सफ़र दर पेश हो तो दो ही तरीक़े हैं। मक़दूर हो तो हवाई जहाज़ में सफ़र कीजिए। नाशतादान लाहौर में और शाम का खाना कलकत्ता में खाइए और मक़दूर न हो तो थोड़ा सा क्लोरोफ़ार्म जेब में रखकर सेकंड क्लास के डिब्बे में बैठ जाईए। जूंही गाड़ी रवाना
ज़ेब दास्ताँ के लिए
एंटर क्लास के एक छोटे से डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर बैठे हुए ये सोच रहे थे कि गाड़ी कब छूटेगी। गंजे सर वाले प्रोफ़ेसर ने सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “अगर इस गाड़ी का गार्ड मेरे कॉलेज का तालिब-इ’ल्म होता तो मैं उसे इतनी देर गाड़ी रोके रखने के जुर्म में बेंच
मिर्ज़ा जुगनू
मिर्ज़ा जुगनू की कमज़ोरी शराब है न औरत बल्कि पान, आप पान कुछ इस कसरत से खाते हैं जैसे झूटा आदमी क़समें या कामचोर नौकर गालियां। ख़ैर अगर पान खा कर ख़ामोश रहें तो कोई मज़ाइक़ा नहीं। अपना अपना शौक़ है, किसी को ग़म खाने में लुत्फ़ आता है, किसी को मार खाने
सामेअ'
जिस दिन से वो एक गुमनाम जज़ीरे की सियाहत से वापस आया था। बहुत उदास रहता था। ये बात तो नहीं थी कि उसे इस जज़ीरे की याद रह-रह कर आती थी। क्योंकि वो जज़ीरा इस क़ाबिल ही कब था कि उसकी ज़ियारत दोबारा की जाए। कोई बड़ा फ़ुज़ूल सा जज़ीरा था। “काना बाना काटा” और वाक़े
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