मिर्ज़ा अतहर ज़िया
ग़ज़ल 14
अशआर 15
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हर तरफ़ सिर्फ़ धुआँ है मुझ में
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तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
कैसे हैं सब तिरी रफ़्तार के मारे हुए लोग
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तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
फिर खड़े हैं तिरे इंकार के मारे हुए लोग
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मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
और वो शख़्स मुकम्मल मुझ में
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हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
ये सब मकान हैं तेरे किसी मकान में रुक
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