शबनम शकील
ग़ज़ल 53
नज़्म 3
अशआर 3
इक नक़्श कि बन बन के बिगड़ता ही रहा है
इक ख़्वाब कि पूरा कभी होता ही नहीं है
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere