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सिद्दीक आलम की कहानियाँ
ख़ुदा के बंदे
यह मानवीय मूल्यों और उनके अन्तर्विरोध की कहानी है। मुरली नस्कर को पढ़ने का शौक़ कोलकाता खींच लाया था। मगर उसके पास हॉस्टल के ख़र्चे के लिए पैसे थे न किताब और कापियों के लिए। शायद वो भी दूसरे लड़कों की तरह आवारागर्दी करते हुए एक पतली कापी थामे बी ए पास कर लेता और कहीं क्लर्क या टीचर का पद सँभाल कर एक बकवास और एक कायर की सी ज़िंदगी गुज़ारता। मगर सोना गाछी के दलाल गिरजा शंकर ने उसे सहारा दिया और इस घिसी-पिटी ज़िंदगी से नजात दिलाई। गिरिजा शंकर से उसकी मुलाक़ात लोकल ट्रेन में थी जहाँ से वो उसे अपने साथ सोना गाछी ले आया और मेहंदी लक्ष्मी के कमरे में उसका ठिकाना तै कर दिया।
दो सारस की ओडेसी
यह युद्ध विरोधी और प्रवासन पर एक चुभता हुआ व्यंग्य है। दुनिया पर युद्ध के बादल मंडला रहे थे जब झील की सतह पर खड़े दो सारसों ने समय से पहले साइबेरिया लौटने का फ़ैसला किया। दोनों ने अपने पर फैलाए, टांगें समेटीं और आसमान की तरफ़ उड़ गए और इसके साथ ही शुरू होती है शहरों शहर उड़ान की वो दास्तान। जब वो बदबूदार धुंओं में उड़ते हुए देख रहे थे किस तरह घर जलाए जा रहे हैं, लोगों का क़त्ल-ए-आम हो रहा है, निहत्ते मारे जा रहे हैं और उस नर सारस का कहना था कि ये सब इसलिए था क्योंकि दुनिया में युद्ध के हथियार बहुत ज़्यादा बेचे जा चुके हैं और अब एक बड़े युद्ध का होना लाज़िमी है ताकि ये हथियार ख़त्म हों वर्ना समुंदर पार हथियार बनाने के सारे कारख़ाने बंद हो जाएंगे।
लाल च्यूँटियाँ
यह धर्म, आध्यात्मिकता और हताश मानव स्थिति की कहानी है। यह एक ऐसे दूर स्थित गाँव की कहानी है जहाँ के अधिकतर लोग ग़रीब हैं। उस गाँव में खपरैल की एक मस्जिद है। कहानी मस्जिद के दो पेश इमामों के आसपास घूमती है। पहला इमाम नौकरी छोड़कर चला जाता है तो धूल के ग़ुबार से एक दूसरा इमाम प्रकट होता है। शुरू में तो सब कुछ ठीक-ठाक रहता है, फिर गाँव में विचित्र घटनाएँ होने लगती हैं। नया इमाम जो भी भविष्यवाणी करता है वो सच होती है और उसकी बद-दुआओं से सारा गाँव परेशान हो जाता है। दूसरी तरफ़ ख़ुद पेश-इमाम आर्थिक बद-हाली का शिकार है। उसकी बीवी के मुर्दा बच्चा पैदा होता है और निरंतर भूख से परेशान हो कर बीवी पेश इमाम को छोड़ कर भाग जाती है। एक दिन लोग देखते हैं कि पेश इमाम ने मस्जिद के छप्पर को आग लगा दी है।
कभी दो पैर फ़र्तूत
यह निराशा और अन्तर्विरोध के बीच रहते हुए सामाजिक यथार्थवाद की कहानी है। वो कई बरस बाद इस पार्क में आया था और उसे शिद्दत के साथ उस दूसरे बूढ़े की याद आ रही थी जिससे किसी न किसी बेंच पर उसकी मुलाक़ात हो जाती थी और वो हमेशा उसका मज़ाक़ उड़ाया करता था। आश्रम में गुज़ारे गए तीन बरसों ने, जहाँ उसने अपने लिए एक कुटिया ख़रीद ली थी, उसे एक दूसरे इंसान में ढाल दिया था। वो इस उम्मीद में था कि शायद किसी बेंच पर उस बूढ़े से मुलाक़ात हो जाएगी तो वह उसे आश्रम की अपनी ज़िंदगी के बारे में बताएगा, उस शांति के बारे में बताएगा जिसे उसने आश्रम में रह कर प्राप्त किया था। वो उसे बताएगा कि अगर तुम्हें लम्बी ज़िंदगी जीना है, तुम सही मायने में ज़िंदा रहने में यक़ीन रखते हो तो तुम्हें इस शहर के शोर-शराबे को छोड़ना होगा। इस शहर की मांगें इंसान को अंदर से खुरच-खुरच कर खोखला कर देती हैं।
लैम्प जलाने वाले
यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपनी सच्चाई की तलाश में है। वो इस शहर में पैदा हुआ, बड़ा हुआ, नौकरी की, बच्चे पैदा किए और अब पेंशनधारी है। उसे यह मालूम है कि उसके शुभ चिंतकों और बुराई करने वालों की एक लम्बी सूचि है जो एक लम्बी ज़िंदगी का ज़रूरी नतीजा है। उन लोगों से उन्हें बचना भी पड़ता है और यदाकदा उसे उनकी ज़रूरत भी पड़ती रहती है। ज़िंदगी के आख़िरी मोड़ पर खड़े हो कर उसने महसूस किया था कि आपके साथ नया कुछ भी नहीं होता, सारे रिश्ते-नाते, घटनाएं-दुर्घटनाएं ख़ुद को दोहराते रहते हैं। स्मृति का देव आपको अपने चंगुल में लिए उड़ता रहता है।
ढाक बन
यह आधुनिक समाज के साथ आदिवासी संघर्ष के जादूई यथार्थ की कहानी है। वो लोग काना पहाड़ के बाशिंदे थे। उसे काना पहाड़ इसलिए कहते थे कि जब सूरज उसकी चोटी को छू कर डूबता तो कानी आँख की शक्ल इख़्तियार कर लेता। काना पहाड़ के बारे में बहुत सारी बातें मशहूर थीं। इस पर बसे हुए छोटे-छोटे आदिवासी गाँव अब अपनी पुरानी परम्पराओं से हटते जा रहे हैं। उनमें से कुछ पर ईसाई मिशनरी हावी हो गए हैं और कुछ ने हिंदू देवी देवताओं को अपना लिया है। मगर जो अफ़वाह सबसे ज़्यादा गर्म थी और जिसने लोगों को बेचैन कर रखा था वो ये थी कि अब काना पहाड़ से आत्माएं स्थानांतरित हो रही हैं। वो यहाँ के लोगों से नाख़ुश हैं और एक दिन आएगा जब पहाड़ के गर्भ से आग निकलेगी और पेड़ पौधे, घर और प्राणी इस तरह जलेंगे जिस तरह जंगल में आग फैलने से कीड़े मकोड़े जलते हैं।
जानवर
यह नारी विमर्श और मानव विरचना की कहानी है। वह शहर के पुराने इलाक़े में एक पुरानी इमारत के तीन कमरों वाले एक फ़्लैट में अपने शौहर और बच्चे के साथ रहती थी। बच्चा जवान था और अब बीस बरस का हो चुका था। डाक्टरों के अनुसार उसकी शारीरिक उम्र बीस बरस सही, मानसिक रूप से वह अभी सिर्फ़ दो साल का बच्चा है। एक दिन बाज़ार में सड़क पर टैक्सी का इंतज़ार करते हुए जानवरों से भरी एक वैन उसके सामने आकर रुकी। उस वैन के मालिक ने एक अजीब-ओ-ग़रीब जानवर उसे दिया जो बहुत सारे जानवरों का मिश्रण था। उसने वह जानवर इस शर्त पर अपने बच्चे के लिए ले लिया कि अगर पसंद न आया तो वह उसे वापस लौटा देगी। जानवर को घर लाते ही अचानक उसके घर के लोगों में अजीब सा बदलाव दिखाई देने लगा, यहाँ तक कि उस औरत के लिए यह फ़ैसला करना मुश्किल हो गया कि आख़िर जानवर कौन है, वो अजीब सा जानवर या ख़ुद वो लोग।
रूद-ए-ख़िंज़ीर
यह मानव इतिहास के अनन्त प्रवास की कहानी है। बंगलादेश का स्वतंत्रता आन्दोलन अपने शिखर पर था। पाकिस्तान बस टूटने ही वाला था। उसका बाप बंदरगाह में अपने सामान के साथ जहाज़ के अर्शे पर खड़ा था। उस वक़्त उसे और उसकी माँ को पता न था कि वे आख़िरी बार उसे देख रहे थे, कि यह शख़्स उन्हीं फ़रेब देकर वहाँ से भाग रहा है। बहुत बाद में, लगभग नौ बरस बाद, मौत के बिस्तर पर माँ ने उसे बताया कि वह जिसने जहाज़ पर क़दम रखने से पहले यक़ीन दिलाया था कि कराची पहुँच कर वह जल्द उन्हें बुला लेंगे, लेकिन उसने कभी पलट कर माँ-बेटे की ख़बर नहीं ली। वह सात बरस का था जब एक दिन उसकी माँ उसे लेकर फिर से हिन्दुस्तान वापस लौट आई। फिर एक दिन माँ की मौत से उसे कोई हैरानी नहीं हुई जैसे सारी ज़िंदगी वो इस मौत का इंतज़ार कर रहा था। वो अपनी ज़िंदगी जीते हुए चलते चलते शहर से दूर एक ऐसे दरिया के किनारे पहुँच जाता है जिसमें सुअर के मुर्दे बड़ी तादाद में पानी के साथ बहते जा रहे थे। इस दरिया को देखकर उसे हैरानी होती है कि यद्यपि उसने दो बार अपना मुल्क बदला था, मगर वह तो सारी ज़िंदगी इसी रूद-ए-ख़िंज़ीर के किनारे चलता रहा था।
फ़ोर सेप्स
यह आधुनिक तकनीक में लिखी एक आधुनिक कहानी है। इस कहानी का मुख्य पात्र संदीपन कोले, जिसकी पैदाइश चिमटी की मदद से हुई थी, कहानी के लेखक सिद्दीक़ आलम से रुष्ट है जो अपनी कहानी अपने ढंग से बयान करना चाहता है। ये बात उसे पसंद नहीं। वो अपनी ज़िंदगी को अपने ढंग से जीना चाहता है। वो बार-बार लेखक से क़लम छीन लेता है, मगर लाख कोशिश के बावजूद उसकी ज़िंदगी उसी लीक पर चल पड़ती है जिस पर उसका लेखक उसे चलाना चाहता है। आख़िरकार वो लेखक से टक्कर लेने का फ़ैसला करता है और एक ऐसे सीधे रास्ते पर चल पड़ता है जो उसके पतन की भूमिका सिद्ध होती है। कहानी के अंत से पूर्व लेखक उससे कहता है, तुमने सोचा था कि तुम पन्नों से बाहर भी सांस ले सकते हो, देखो, तुमने अपना सत्यानास कर लिया ना?
मरे हुए आदमी की लालटेन
इस कहानी में ज़िंदगी को एक ऐसे थियेटर के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो नाजायज़ है। वो एक साल बाद गाँव लौट रहा था जहाँ उसकी शादी होने वाली थी। उसके घर वालों ने उसके लिए दूर के एक गाँव में एक लड़की देख रखी थी। लड़की वाले बहुत ग़रीब थे मगर लड़की बला की ख़ूबसूरत थी। समय बर्बाद किए बिना उनकी शादी कर दी गई। जब उसके सारे पैसे ख़त्म हो गए तो उसे शहर लौटना पड़ा। मगर अब शहर में उसका दिल नहीं लगता था। वो सुबह शाम और कभी-कभी दिन में भी अपनी बीवी से मोबाइल पर बात कर लिया करता था। यह मोबाइल चोरी की थी जिसे उसने बहुत सस्ती क़ीमत पर ख़रीद कर अपनी बीवी को दी थी। उसकी बीवी ने कभी उससे घर आने की फ़र्माइश नहीं की। सिर्फ़ एक-बार उसने दबे शब्दों में कुछ कहना चाहा मगर कुछ सोच कर चुप हो रही। उसने बार-बार कुरेदने की कोशिश की मगर वो टाल गई। फिर एक दिन उसे अपनी बीवी की मोबाइल बंद मिली।
चोर दमिस्को
एक बेतुकी दुनिया में रहने के ढोंग के रूप में अपराध करने की कहानी है। दमस्कू एक सत्रह बरस का नौजवान था जिसे आसान काम की तलाश थी हालांकि उसके झक्की बाप ने उसे बताया था कि इस दुनिया में आसान काम से ज़्यादा मुश्किल काम कुछ नहीं होता। उसके दोस्त फुलिंदर ने उसकी परेशानी दूर कर दी। फुलिंदर ने ट्राम डिपो के पिछवाड़े मुर्दा घर के रास्ते पर एक सुनसान गली का पता लगाया था जहाँ एक बहुत ही बूढ़ा बंगाली जोड़ा रहता था जो आँखों से अंधे थे। वो इस घर का सारा सामान साफ़ करना चाहता था। मगर वो यह काम अकेला नहीं कर सकता था। उसे एक ऐसे आदमी की ज़रूरत थी जो दमस्कू की तरह तेज़ और बहादुर हो। मैं किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ूंगा? दमस्कू ने अपनी शंका ज़ाहिर की तो उसके दोस्त ने कहा कि जितनी जल्द हो सके मुसीबत में पड़ना सीख लो, तुम्हारी दुनिया बदल जाएगी। ज़िंदगी में कामयाब होने के लिए इससे बेहतर नुस्ख़ा और कुछ नहीं हो सकता। इस तरह दमस्कू को उसका आसान काम मिल गया।
दर्वाज़ा
यह बढ़ती आबादी और समाज के असंतुलित होने की कहानी है। उसकी नौकरी छूट गई थी मगर उसकी ख़बर उस मेस में नहीं पहुँची थी जहाँ वो रहता था। यह मेस एक बिल्कुल ही सस्ते होटल की तरह था जिसके कमरों में चौकियां लगी थीं। उन ही आवारागर्दी के दिनों में, जब वो धीरे धीरे अपनी जमा की हुई पूँजी ख़त्म कर रहा था उसकी मुलाक़ात एक अजीब इंसान से हो गई जिसकी हड्डियों में चर्बी की जगह शराब दौड़ती थी। वो उसे मुबारकबाद देता है कि उसने अपनी आज़ादी हासिल कर ली है और यही वक़्त है कि वो इस शहर को छान फटक ले क्योंकि एक बड़ा शहर अपने आप में किसी अजाइब घर से कम नहीं होता।
ख़ुदा का भेजा हुआ परिंदा
यह तथ्यों और कल्पनाओं पर आधारित मानव जाति के वास्तविक संसार से परिचय कराती कहानी है। अंग्रेज़ देश छोड़कर जा चुके थे। मुसलमानों की एक बड़ी आबादी पूर्वी पाकिस्तान का रुख़ कर चुकी थी। बस्ती में कुछ ही मुसलमान रह गए थे जो अब तक रावी के दादा की दो मंज़िला इमारत से आस लगाए बैठे थे और जब भी शहर के अंदर फ़साद का बाज़ार गर्म होता पनाह लेने के लिए उनके यहाँ आ जाते। उसके दादा को इस बात का दुख था कि आए दिन उन्हें पाकिस्तानी जासूस होने के आरोप का सामना करने के लिए थाना जाना पड़ता है। फिर एक दिन वो दंगाइयों के द्वारा स्टेशन के प्लेटफार्म पर मार डाले गए। उसके दादा के घर में कई किराएदार रहते थे जिनमें एक किराएदार बुध राम था जो दादा के साथ लम्बे समय तक रेलवे में नौकरी कर चुका था। उसकी सारी ज़िंदगी की पूंजी एक ट्रंक में बंद थी जिस पर बैठे-बैठे वो खिड़की से बाहर आसमान पर नज़रें टिकाए रहने का आदी था। उन ही तन्हाई के दिनों में एक दिन उसने एक तोते की कहानी सुनाई जिसके जिस्म पर अल्लाह का नाम लिखा हुआ था। ये तोता एक अधेड़ उम्र की औरत उसके पास बेचने आई थी, जिसे देखते ही बुध राम ने महसूस किया, अब यहाँ बुरा वक़्त आने वाला है।
नल की प्यासी
यह एक बनावटी और निरंकुश समाज से मुक़ाबला करने की कहानी है। उसका सम्बंध निम्न मध्यम वर्ग से था। उसका घर कलकत्ता के केंद्र में एक ऐसे बंगाली मुहल्ले में स्थित था जहाँ लोग अब भी अपनी पुराने मूल्यों के साथ जी रहे थे। फिर एक दिन उसकी नज़र एक ट्यूबवेल पर पड़ी जो उसके मुहल्ले में गली के बीचों-बीच होने के बावजूद एक तरह से लोगों की नज़रों से ओझल था। वो उसे उस जगह से हटाने का बीड़ा उठाता है। मगर बहुत जल्द उसे पता चलता है कि ये काम इतना आसान नहीं। ये पुराना नल एक पुराने किराएदार की तरह था जिसे उखाड़ फेंकना आसान काम नहीं होता और काम के लायक़ बनाना तो और भी मुश्किल।
बैन
यह बारह बरस के एक ऐसे लड़के की कहानी है जो अपनी चचा-ज़ाद बहन अंगूरा जो उम्र में उससे कई साल बड़ी थी, को पसंद करता था और जिसके लिए उसके अंदर की कामेक्षा कुलबुलाने लगी थी। चचा रेलवे में इंजन चलाया करते थे। उन दिनों उसकी पोस्टिंग एक दूर-दराज़ स्टेशन पर थी जो पहाड़ों से घिरा हुआ था। एक दिन अंगूरा ने उसे उस लड़के के बारे में बताया जिससे वह रेलवे के एक ख़ाली क्वार्टर में मिला करती थी और अब कुछ ही दिनों में वह उस लड़के के साथ भाग जाने वाली है। उसका चचेरा भाई उससे कहता है कि वो अपने बाप को उस लड़के के बारे में बता दे, शायद वो दोनों की शादी के लिए राज़ी हो जाएं। अंगूरा ने कहा कि उसका बाप इसके लिए कभी राज़ी न होगा क्योंकि उस लड़के पर कई ख़ून के इल्ज़ाम हैं और पुलिस हमेशा उसकी तलाश में रहती है। चचेरा भाई उस लड़के से मिलने से मना करता है तो अंगूरा ने जवाब दिया कि वह एक ऐसे बाप की बेटी है जिसके बाज़ू पर उसकी रखैल का नाम गुदा हुआ है।
रुकी हुई घड़ी
यह समय सीमा को तोड़ने और मानवीय प्रेरणाओं के पतन की कहानी है। उसकी ट्रेन के आगमन के निर्धारित समय को घंटों बीत चुके थे मगर वो गाड़ी आ रही थी न ही उसकी कोई घोषणा हो रही थी। वो उकताया हुआ सा एक छज्जे से लटकती बंद घड़ी के नीचे बेंच पर बैठा हुआ था कि एक क़ुली ने उसे बताया कि उसकी ट्रेन का सम्बंध एक क़िस्से से है जिसका पता सिर्फ़ सिग्नल-मैन को है। जब तक वो यह क़िस्सा सुन नहीं लेता उसकी ट्रेन आ नहीं सकती। क़ुली एक दूसरे मुसाफ़िर का भी ज़िक्र करता है जिसने उस क़िस्से को सुनने से इनकार कर दिया था और वो कभी अपनी मंज़िल तक पहुँचा ही नहीं।
नादिर सिक्कों का बक्स
यह अनोखे सिक्कों के एक ऐसे बक्स की कहानी है जिसे एक चाचा ने अपने भतीजे को तोहफ़े में दिया था। चाचा अधेड़ उम्र के हो चुके थे और उन्होंने शादी नहीं की थी। उनका कमरा पुरानी किताबों-कापियों, बंद घड़ियों, कंपास, क़ुतबनुमा, पुराने नक़्शों और दूसरे अल्लम ग़ल्लम सामानों से अटा पड़ा था। घर के लोग उनके कमरे में जाने से कतराते थे। भतीजा कभी यह राज़ न जान सका कि उसके चाचा ने उसे ये बक्स क्यों दिया था? वो उसकी सालगिरह का दिन था न कोई त्यौहार, न ही उसने स्कूल या खेल के मैदान में कोई बड़ा कारनामा अंजाम दिया था। उसके चाचा ने बक्स की कुंजी उसके हाथ में थमाते हुए कहा था, इससे ज़्यादा मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता। शायद यह उनके पागलपन की शुरूआत थी।
अच्छा ख़ासा चीरवा
यह एक फंतासी है। जाड़े की एक सुबह एक आदिवासी अपने सुअर के साथ पहाड़ से उतर कर उसे बेचने के लिए क़स्बे की तरफ़ जा रहा था। हालाँकि यह इतना आसान काम न था। उस कस्बे में दूसरे चौपायों की तरह सुअरों की कोई साप्ताहिक मंडी नहीं लगती थी और सुअर को किसी चौराहे पर खड़े हो कर बेचने के लिए आवाज़ लगाना कुछ विचित्र सी प्रक्रिया थी। इसलिए वह निराश हो कर वापस आ रहा था कि पहाड़ी ढलान पर एक तीन झोंपड़ों वाले गाँव पर रात हो गई। ये तीनों झोंपड़ियाँ दर-अस्ल तीन चुड़ैलों की थीं जो सूरज डूबते ही पेड़ों पर जा बसती थीं। चुड़ैलों ने आदिवासी से सुअर छीनने की भरपूर कोशिश की, इसलिए उसे एक स्थानीय किसान के घर में पनाह लेनी पड़ी। आदिवासी के लिए वो रात दुष्ट आत्माओं वाली रात साबित हुई। सुबह होते ही आदिवासी ने फ़ैसला किया कि वह सुअर के साथ इन रास्तों से गुज़र कर कभी अपने घर नहीं पहुँच सकता। इसलिए उसने किसान को वह सुअर उपहार के रूप में दे दिया जिसे उसकी बेटी ने फ़ौरन एक नाम दे डाला और सरसों के खेत में सैर कराने चल दी।
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बाल-साहित्य1629
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