उमैर मंज़र
ग़ज़ल 6
अशआर 11
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
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बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ
मैं अपने ही आईने में ख़ुद को जहाँ भी देखूँ ख़राब देखूँ
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मरहले और आने वाले हैं
तीर अपना अभी कमान में रख
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ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
मैं अपनी वहशत के मक़बरे से नई तमन्ना के ख़्वाब देखूँ
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यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
कि इस दुनिया से आख़िर एक दिन बे-ज़ार होना था
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