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jazba-e-be-iKHtiyar-e-shauq dekha chahiye

Mirza Ghalib

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    jazba-e-be-iḳhtiyār-e-shauq dekhā chāhiye

    sīna-e-shamshīr se bāhar hai dam shamshīr

    EXPLANATION

    इस शेर के मतालिब शारहीन ने इस तरह लिखे हैं।

    1- मेरे इश्तियाक़-ए-क़त्ल में ऐसी जज़्ब-ओ-कशिश है कि तलवार का दम उस के सीने से बाहर खींच लिया (नज़्म: तबा तबाई)

    2-शौक़-ए-शहादत की ये कशिश और तसख़ीर भी काबिल-ए-दीद है कि तलवार ख़ुद बढ़ बढ़ कर हमारी जानिब आती है (सुहा मुजद्ददी)

    3-मेरी आरज़ू-ए-क़त्ल में इतनी कशिश है कि तलवार का दम बाहर निकल आया है। यानी वो ख़ुद मुझे क़त्ल करने के लिए बे-ताब है (यूसुफ़ सलीम चिशती)।

    शेर में दम के दो मानी हैं 1-सांस 2-धार। मफ़हूम ये हुआ कि जज़बा-ए-शौक़-ए-शहादत दीद के काबिल है कि शमशीर की धार जो सांस की डोर की तरह बारीक है, उस के सीने से बाहर है। यहाँ सवाल ये पैदा होता है कि इक आम बात को शमशीर का दम (धारदार हिस्सा) उस के पिछले हिस्से (सीने) से बाहर होता है , ग़ालिब ने अपने जज़बा-ए-शौक़ का नतीजा क्योंकर क़रार दे दिया। वो तो किसी को भी क़त्ल करे उस की यही हालत रहेगी , इस में ग़ालिब की क्या तख़सीस। इस का जवाब ये है कि ग़ालिब ने ये कहीं नहीं कहा कि कि ये सब मेरे जज़बा-ए-शौक़ की बदौलत है। अगर वो ये कहते कि जज़बा-ए-बे-इख़्तियार -ए-शौक़ मेरा देखिए / मेरा देख कर तो शेर दो कौड़ी का होता। और यहीं ग़ालिब का कमाल और शेर की ख़ूबी पोशीदा है। ग़ालिब ये कहना चाहते हैं कि तलवार की साख़्त कि उस का दम उस के सीने से बाहर है , शहादत के मतवाले आशिक़ों के जज़बा-ए-बे-इख़्तियार की मरहून-ए-मिन्नत है। यानी तलवार इस लिए नहीं बनी कि वो आशिक़ों को क़त्ल करे बल्कि आशिक़ों के शौक़-ए-शहादत के बे-इख़्तियार जज़बा ने इक शय बना दी जिसे तलवार कहते हैं। फ़ौलाद तो अपनी अस्ल पर क़ायम रहना चाहता था लेकिन जज़बा-ए-शौक़ की कशिश ने उसे इस तरह अपनी तरफ़ खींचा कि कशिश की सम्त बारीक से बारीक-तर होते हुए फैलता गया और तलवार की शक्ल इख़तियार कर ली। जज़बा-ए-बे-इख़्तियार कह कर ग़ालिब ने वाज़ेह किया कि ये अमल आशिक़ीन की किसी शऊरी कोशिश या हुनरमंदी का नतीजा नहीं, बल्कि उनके जज़बा-ए-बे-इख़्तियार का करिश्मा है। देखा चाहिए'' में इशारा है कि शमशीर का दम उस के सीने से बाहर कैसे आया। इस पर तवज्जा देने ,ग़ौर करने की ज़रूरत है।

    Mohammad Azam

    jazba-e-be-iKHtiyar-e-shauq dekha chahiye

    sina-e-shamshir se bahar hai dam shamshir ka

    EXPLANATION

    इस शेर के मतालिब शारहीन ने इस तरह लिखे हैं।

    1- मेरे इश्तियाक़-ए-क़त्ल में ऐसी जज़्ब-ओ-कशिश है कि तलवार का दम उस के सीने से बाहर खींच लिया (नज़्म: तबा तबाई)

    2-शौक़-ए-शहादत की ये कशिश और तसख़ीर भी काबिल-ए-दीद है कि तलवार ख़ुद बढ़ बढ़ कर हमारी जानिब आती है (सुहा मुजद्ददी)

    3-मेरी आरज़ू-ए-क़त्ल में इतनी कशिश है कि तलवार का दम बाहर निकल आया है। यानी वो ख़ुद मुझे क़त्ल करने के लिए बे-ताब है (यूसुफ़ सलीम चिशती)।

    शेर में दम के दो मानी हैं 1-सांस 2-धार। मफ़हूम ये हुआ कि जज़बा-ए-शौक़-ए-शहादत दीद के काबिल है कि शमशीर की धार जो सांस की डोर की तरह बारीक है, उस के सीने से बाहर है। यहाँ सवाल ये पैदा होता है कि इक आम बात को शमशीर का दम (धारदार हिस्सा) उस के पिछले हिस्से (सीने) से बाहर होता है , ग़ालिब ने अपने जज़बा-ए-शौक़ का नतीजा क्योंकर क़रार दे दिया। वो तो किसी को भी क़त्ल करे उस की यही हालत रहेगी , इस में ग़ालिब की क्या तख़सीस। इस का जवाब ये है कि ग़ालिब ने ये कहीं नहीं कहा कि कि ये सब मेरे जज़बा-ए-शौक़ की बदौलत है। अगर वो ये कहते कि जज़बा-ए-बे-इख़्तियार -ए-शौक़ मेरा देखिए / मेरा देख कर तो शेर दो कौड़ी का होता। और यहीं ग़ालिब का कमाल और शेर की ख़ूबी पोशीदा है। ग़ालिब ये कहना चाहते हैं कि तलवार की साख़्त कि उस का दम उस के सीने से बाहर है , शहादत के मतवाले आशिक़ों के जज़बा-ए-बे-इख़्तियार की मरहून-ए-मिन्नत है। यानी तलवार इस लिए नहीं बनी कि वो आशिक़ों को क़त्ल करे बल्कि आशिक़ों के शौक़-ए-शहादत के बे-इख़्तियार जज़बा ने इक शय बना दी जिसे तलवार कहते हैं। फ़ौलाद तो अपनी अस्ल पर क़ायम रहना चाहता था लेकिन जज़बा-ए-शौक़ की कशिश ने उसे इस तरह अपनी तरफ़ खींचा कि कशिश की सम्त बारीक से बारीक-तर होते हुए फैलता गया और तलवार की शक्ल इख़तियार कर ली। जज़बा-ए-बे-इख़्तियार कह कर ग़ालिब ने वाज़ेह किया कि ये अमल आशिक़ीन की किसी शऊरी कोशिश या हुनरमंदी का नतीजा नहीं, बल्कि उनके जज़बा-ए-बे-इख़्तियार का करिश्मा है। देखा चाहिए'' में इशारा है कि शमशीर का दम उस के सीने से बाहर कैसे आया। इस पर तवज्जा देने ,ग़ौर करने की ज़रूरत है।

    Mohammad Azam

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