aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : मीर अनीस

संपादक : सय्यद मोहम्मद अब्बास

प्रकाशक : निज़ामी प्रेस, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष : 1939

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : रुबाई

पृष्ठ : 111

सहयोगी : इदारा-ए-अदबियात-ए-उर्दू, हैदराबाद

anees-ul-akhlaq

पुस्तक: परिचय

"انیس الاخلاق "میر انیس کی اخلاقی رباعیوں کا مجموعہ ہے، ان کی رباعیات ایک طرف شاعری کا بہترین نمونہ ہیں تو دوسری طرف فلسفیانہ خیالات کا قابل قدر ذخیرہ۔ میر انیس کی رباعیات میں اخلاقی مضامین اور فلسفیانہ نظریات کا گراں قدر سرمایہ موجود ہے۔ انھوں نے رباعیوں میں حمد، نعت، منقبت، رثائیت اور مذہبی معتقدات کے ساتھ ساتھ اخلاقی مضامین ، مثلا نصیحت ، موعظت اور اعمال حسنہ نیز ذاتی نظر افتاد طبع اور مزاج شاعرانہ کے وسیع ترین امکانات سے کام لیکر منتخب مضامین نظم کیے ہیں جس میں اردو رباعی نگاری کے فن کو مستقبل میں شاندار کامیابی کی راہ ملتی ہے۔ زیر نظر کتاب میں میر انیس کے رباعیات سے قبل مقدمہ بھی شامل ہے جس میں رباعی کی مختصر تاریخ بیان کی گئی ہے ،اس کے بعد میر انیس کا مختصر خاکہ پیش کیا گیاہے۔

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लेखक: परिचय

मीर बब्बर अली अनीस उन शायरों में से एक हैं जिन्होंने उर्दू के शोक काव्य को अपनी रचनात्मकता से पूर्णता के शिखर तक पहुंचा दिया। मरसिया की विधा में अनीस का वही स्थान है जो मसनवी की विधा में उनके दादा मीर हसन का है। अनीस ने इस आम ख़्याल को ग़लत साबित कर दिया उर्दू में उच्च श्रेणी की शायरी सिर्फ़ ग़ज़ल में की जा सकती है। उन्होंने रसाई शायरी (शोक काव्य) को जिस स्थान तक पहुंचाया वो अपनी मिसाल आप है। अनीस आज भी उर्दू में सबसे ज़्यादा पढ़े जानेवाले शायरों में से एक हैं।

मीर बब्बर अली अनीस 1803 ई. में  फ़ैज़ाबाद में पैदा हुए,उनके वालिद मीर मुस्तहसिन ख़लीक़ ख़ुद भी मरसिया के एक बड़े और नामवर शायर थे। अनीस के परदादा ज़ाहिक और दादा मीर हसन (मुसन्निफ़ मसनवी सह्र-उल-बयान)थे। ये बात भी काबिल-ए-ग़ौर है कि इस ख़ानदान के शायरों ने ग़ज़ल से हट कर अपनी अलग राह निकाली और जिस विधा को हाथ लगाया उसे कमाल तक पहुंचा दिया। मीर हसन मसनवी में तो अनीस मरसिया में उर्दू के सबसे बड़े शायर क़रार दिए जा सकते हैं।

शायरों के घराने में पैदा होने की वजह से अनीस की तबीयत बचपन से ही उपयुक्त थी और चार-पाँच बरस की ही उम्र में खेल-खेल में उनकी ज़बान से उपयुक्त शे’र निकल जाते थे। उन्होंने अपनी आरम्भिक शिक्षा फ़ैज़ाबाद में ही हासिल की। प्रचलित शिक्षा के इलावा उन्होंने सिपहगरी में भी महारत हासिल की। उनकी गिनती विद्वानों में नहीं होती है, तथापि उनकी इलमी मालूमात को सभी स्वीकार करते हैं। एक बार उन्होंने मिंबर से संरचना विज्ञान की रोशनी में सूरज के गिर्द ज़मीन की गर्दिश को साबित कर दिया था। उनको अरबी और फ़ारसी के इलावा भाषा (हिन्दी) से भी बहुत दिलचस्पी थी और तुलसी व मलिक मुहम्मद जायसी के कलाम से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। कहा जाता है कि वो लड़कपन में ख़ुद को हिंदू ज़ाहिर करते हुए एक ब्रहमन विद्वान से हिंदुस्तान के धार्मिक ग्रंथों को समझने जाया करते थे।इसी तरह जब पास पड़ोस में किसी की मौत हो जाती थी तो वो उस घर की औरतों के रोने-पीटने और दुख प्रदर्शन का गहराई से अध्ययन करने जाया करते थे। ये अनुभव आगे चल कर उनकी मरसिया निगारी में बहुत काम आए।

अनीस ने बहुत कम उम्र ही में ही बाक़ायदा शायरी शुरू कर दी थी। जब उनकी उम्र नौ बरस थी उन्होंने एक सलाम कहा। डरते डरते बाप को दिखाया। बाप ख़ुश तो बहुत हुए लेकिन कहा कि तुम्हारी उम्र अभी शिक्षा प्राप्ति की है। उधर ध्यान न दो। फ़ैज़ाबाद में जो मुशायरे होते, उन सबकी तरह पर वो ग़ज़ल लिखते लेकिन पढ़ते नहीं थे। तेरह-चौदह बरस की उम्र में वालिद ने उस वक़्त के उस्ताद शेख़ इमाम बख़्श नासिख़ की शागिर्दी में दे दिया। नासिख़ ने जब उनके शे’र देखे तो दंग रह गए कि इस कम उम्री में लड़का इतने उस्तादाना शे’र कहता है। उन्होंने अनीस के कलाम पर किसी तरह की इस्लाह को ग़ैर ज़रूरी समझा, अलबत्ता उनका तख़ल्लुस जो पहले हज़ीं था बदल कर अनीस कर दिया। अनीस ने जो ग़ज़लें नासिख़ को दिखाई थीं उनमें एक शे’र ये था;
सबब हम पर खुला उस शोख़ के आँसू निकलने का
धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का

तेरह-चौदह बरस की उम्र में अनीस ने अपने वालिद की अनुपस्थिति में घर की ज़नाना मजलिस के लिए एक मुसद्दस लिखा। इसके बाद वो रसाई शायरी में तेज़ी से क़दम बढ़ाने लगे, इसमें उनकी मेहनत और साधना का बड़ा हाथ था। कभी कभी वो ख़ुद को कोठरी में बंद कर लेते, खाना-पीना तक स्थगित कर देते और तभी बाहर निकलते जब हस्ब-ए-मंशा मरसिया मुकम्मल हो जाता। ख़ुद कहा करते थे, "मरसिया कहने में कलेजा ख़ून हो कर बह जाता है।" जब मीर ख़लीक़ को, जो उस वक़्त तक लखनऊ के बड़े और अहम मरसिया निगारों में थे, पूरा इत्मीनान हो गया कि अनीस उनकी जगह लेने के क़ाबिल हो गए हैं तो उन्होंने बेटे को लखनऊ के रसिक और गुणी श्रोताओं के सामने पेश किया और मीर अनीस की शोहरत फैलनी शुरू हो गई। अनीस ने मरसिया कहने के साथ मरसिया पढ़ने में भी कमाल हासिल किया था। मुहम्मद हुसैन आज़ाद कहते हैं कि अनीस क़द-ए-आदम आईने के सामने, तन्हाई में घंटों मरसिया-पढ़ने का अभ्यास करते। स्थिति, हाव-भाव और बात बात को देखते और इसके संतुलन और अनुपयुक्त का ख़ुद सुधार करते। कहा जाता है कि सर पर सही ढंग से टोपी रखने में ही कभी कभी एक घंटा लगा देते थे।

अवध के आख़िरी नवाबों ग़ाज़ी उद्दीन हैदर, अमजद अली शाह और वाजिद अली शाह के ज़माने में अनीस ने मर्सिया गोई में बेपनाह शोहरत हासिल कर ली थी। उनसे पहले दबीर भी मरसिये कहते थे लेकिन वो मरसिया पढ़ने को किसी कला की तरह बरतने की बजाय सीधा सादा पढ़ने को तर्जीह देते थे और उनकी शोहरत उनके कलाम की वजह से थी, जबकि अनीस ने मरसिया-ख़्वानी में कमाल पैदा कर लिया था। आगे चल कर मरसिया के इन दोनों उस्तादों के अलग अलग प्रशंसक पैदा हो गए। एक गिरोह अनीसिया और दूसरा दबीरिया कहलाता था। दोनों ग्रुप अपने अपने प्रशंसापात्र को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करते और दूसरे का मज़ाक़ उड़ाते। अनीस और दबीर एक साथ किसी मजलिस में मरसिया नहीं पढ़ते थे। सिर्फ़ एक बार शाही घराने के आग्रह पर दोनों एक मजलिस में एकत्र हुए और उसमें भी अनीस ने ये कह कर कि वो अपना मरसिया लाना भूल गए हैं, अपने मरसिये की बजाय अपने भाई मूनिस का लिखा हुआ हज़रत अली की शान में एक सलाम सिर्फ़ एक मतला के इज़ाफ़े के साथ पढ़ दिया और मिंबर से उतर आए। मूनिस के सलाम में उन्होंने जिस तत्कालिक मतला का इज़ाफ़ा कर दिया था वो था;
ग़ैर की मदह करुं शह का सना-ख़्वाँ हो कर
मजरुई अपनी हुआ खोऊं सुलेमां हो कर

ये दर असल दबीर पर चोट थी जिन्होंने परम्परा के अनुसार मरसिया से पहले बादशाह की शान में एक रुबाई पढ़ी थी। इसके बावजूद आमतौर पर अनीस और दबीर के सम्बंध ख़ुशगवार थे  और दोनों एक दूसरे के कमाल की क़दर करते थे। दबीर बहुत विनम्र और शांत स्वभाव के इंसान थे जबकि अनीस किसी को ख़ातिर में नहीं लाते थे। उनकी पेचीदा शख़्सियत और नाज़ुक-मिज़ाजी के वाक़ियात और उनकी मरसिया गोई और मरसिया-ख़्वानी ने उन्हें एक पौराणिक प्रसिद्धि दे दी थी और उनकी गिनती लखनऊ के प्रतिष्ठित शहरीयों में होती थी। उस ज़माने में अनीस की शोहरत का ये हाल था कि सत्ताधारी अमीर, नामवर शहज़ादे और आला ख़ानदान नवाब ज़ादे उनके घर पर जमा होते और नज़राने पेश करते। इस तरह उनकी आमदनी घर बैठे हज़ारों तक पहुंच जाती लेकिन इस फ़राग़त का ज़माना मुख़्तसर रहा। 1856 ई.में अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया। लखनऊ की ख़ुशहाली रुख़सत हो गई। घर बैठे आजीविका पहुंचने का सिलसिला बंद हो गया और अनीस दूसरे शहरं में मरसिया-ख़्वानी के लिए जाने पर मजबूर हो गए। उन्होंने अज़ीमाबाद(पटना), बनारस, इलाहाबाद और हैदराबाद में मजलिसें पढ़ीं जिसका असर ये हुआ, दूर दूर के लोग उनके कलाम और कमाल से वाक़िफ़ हो कर उसके प्रशंसक बन गए।

अनीस की तबीयत आज़ादी पसंद थी और अपने ऊपर किसी तरह की बंदिश उनको गवारा नहीं थी। एक बार नवाब अमजद अली शाह को ख़्याल पैदा हुआ कि शाहनामा की तर्ज़ पर अपने ख़ानदान की एक तारीख़ नज़्म कराई जाये। इसकी ज़िम्मेदारी अनीस को दी। अनीस ने पहले तो औपचारिक रूप से मंज़ूर कर लिया लेकिन जब देखा कि उनको रात-दिन सरकारी इमारत में रहना होगा तो किसी बहाने से इनकार कर दिया। बादशाह से वाबस्तगी, उसकी पूर्णकालिक नौकरी, शाही मकान में स्थायी आवास सांसारिक तरक़्क़ी की ज़मानतें थीं। बादशाह अपने ख़ास मुलाज़मीन को पदवियां देते थे और दौलत से नवाज़ते थे। लेकिन अनीस ने शाही मुलाज़मत क़बूल नहीं की। दिलचस्प बात ये है कि जिन अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर के उनकी आजीविक छीनी थी वही उनको पंद्रह रुपये मासिक वज़ीफ़ा इसलिए देते थे कि वो मीर हसन के पोते थे जिनकी मसनवी फोर्ट विलियम कॉलेज के पाठ्यक्रम और उसके प्रकाशनों में शामिल थी।

जिस तरह अनीस का कलाम जादुई है उसी तरह उनका पढ़ना भी मुग्ध करनेवाला था। मिंबर पर पहुंचते ही उनकी शख़्सियत बदल जाती थी। आवाज़ का उतार-चढ़ाओ आँखों की गर्दिश और हाथों की जुंबिश से वो श्रोताओं पर जादू कर देते थे और लोगों को तन-बदन का होश नहीं रहता था। मरसिया-ख़्वानी में उनसे बढ़कर माहिर कोई नहीं पैदा हुआ।
आख़िरी उम्र में उन्होंने मरसिया-ख़्वानी बहुत कम कर दी थी। 1874 ई. में लखनऊ में उनका देहांत हुआ। उन्होंने तक़रीबन 200 मरसिये और 125 सलाम लिखे, इसके इलावा लगभग 600 रुबाईयाँ भी उनकी यादगार हैं।

अनीस एक बेपरवाह शख़्सियत थे। अगर वो मरसिया की बजाय ग़ज़ल को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते तब भी उनकी गिनती बड़े शायरों में होती। ग़ज़ल पर तवज्जो न देने के बावजूद उनके कई शे’र ख़ास-ओ-आम की ज़बां पर हैं;

ख़्याल-ए-ख़ातिर अहबाब चाहिए हर दम
अनीस ठेस न लग जाये आबगीनों को

अनीस दम का भरोसा नहीं ठहर जाओ
चराग़ ले के कहाँ सामने हवा के चले

अनीस का कलाम अपनी वाग्मिता, दृश्यांकन और ज़बान के साथ उनके रचनात्मक व्यवहार के लिए प्रतिष्ठित है। वो एक फूल के मज़मून को सौ तरह पर बाँधने में माहिर क़ादिर थे। उनकी शायरी अपने दौर की नफ़ीस ज़बान और सभ्यता का तहज़ीब का दर्पण है। उन्होंने मरसिया की तंगनाए में गहराई से डुबकी लगा कर ऐसे क़ीमती मोती निकाले जिनकी उर्दू मरसिया में कोई मिसाल नहीं मिलती।

 

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