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अपने परतव ही में ख़ालिक़ ने बनाया है मुझे

कृष्ण मोहन

अपने परतव ही में ख़ालिक़ ने बनाया है मुझे

कृष्ण मोहन

MORE BYकृष्ण मोहन

    अपने परतव ही में ख़ालिक़ ने बनाया है मुझे

    ज़ो'म-ए-दाराई इसी वज्ह से आया है मुझे

    किस का ग़म हूँ कि मशिय्यत ने मनाया है मुझे

    किस का दिल हूँ कि दो-‘आलम से लगाया है मुझे

    महव-ए-हैरत है तिरी शो'बदा-बाज़ी पर दिल

    ये बनाया है कि इस तौर मिटाया है मुझे

    यास और आस का इक सोज़-भरा नग़्मा हूँ

    साज़-ए-एहसास पे अरमानों ने गाया है मुझे

    चंद लम्हात की सत्ही सी मसर्रत के लिए

    लाल अंगारों पे ख़्वाहिश ने नचाया है मुझे

    हसरत-ओ-रंज हो या ‘इशरत-ओ-सर-मस्ती हो

    एक ही रंग में अहबाब ने पाया है मुझे

    दम तो लेने दो ज़रा ठहरो भयानक सपनो

    थपकियाँ दे के उमीदों ने सुलाया है मुझे

    साहबो कू-ए-मलामत में नदामत कैसी

    शौक़-ए-रुस्वाई यहाँ खींच के लाया है मुझे

    दिल कहे मैं हूँ फ़सुर्दा मिरा हँसना मा'लूम

    वो ख़राबा हूँ कि हसरत ने बसाया है मुझे

    रोज़-ओ-शब फिरता हूँ आशुफ़्ता-सर-ओ-आवारा

    इस क़दर तेरी मोहब्बत ने सताया है मुझे

    आँखें चंचल हैं मगर मन है मिरा बैरागी

    'कृष्ण-मोहन' ये मिलन मोह की माया है मुझे

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