अश्क रुख़्सार को धोता तो सुख़नवर होता
में सलीक़े से जो रोता तो सुख़नवर होता
चश्म-ए-हैरत में भी रक़्साँ थी झड़ी अश्कों की
अपने दामन को भिगोता तो सुख़नवर होता
डूबते शम्स के होंटों से ज़फ़र ज़ाहिर थी
इस तबस्सुम को संजोता तो सुख़नवर होता
दश्त-ए-तन्हाई में ये उँगलियाँ कुछ देर अपनी
ख़ून-ए-दिल में जो डुबोता तो सुख़नवर होता
देर तक चाँदनी साहिल पे थी रक़्साँ अफ़्सोस
में इसी झील पे होता तो सुख़नवर होता
मेरे एहसास ने सीने से निचोड़ा है अरक़
इस में लफ़्ज़ों को डुबोता तो सुख़नवर होता
वादी-ए-हब्स में उखड़ी थी फ़ज़ा की साँसें
लफ़्ज़ क़िर्तास पे बोता तो सुख़नवर होता
जागने वालों ने 'आलम' को बदल डाला है
में ज़रा देर न सोता तो सुख़नवर होता
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