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बदलती रुत पे हवाओं के सख़्त पहरे थे

रफ़ीआ शबनम आबिदी

बदलती रुत पे हवाओं के सख़्त पहरे थे

रफ़ीआ शबनम आबिदी

MORE BYरफ़ीआ शबनम आबिदी

    बदलती रुत पे हवाओं के सख़्त पहरे थे

    लहू लहू थी नज़र दाग़ दाग़ चेहरे थे

    ये राज़ खुल सका हर्फ़-ए-नारसा पे मिरे

    सदाएँ तेज़ बहुत थीं कि लोग बहरे थे

    वो पूजने की सियासत से ख़ूब वाक़िफ़ था

    वही चढ़ाए जो गेंदे के ज़र्द सेहरे थे

    जो भाई लौट के आए कभी दरिया से

    उन्हीं के बाज़ू क़वी थे बदन इकहरे थे

    उसी सबब से मिरा अक्स टूट टूट गया

    उस आइने में कई और भी तो चेहरे थे

    समुंदरों का वो प्यासा था और ओस थी मैं

    वो अब्र लौट गया जिस के लब सुनहरे थे

    इन आँचलों पे कोई सज्दा-रेज़ हो सका

    कि जिन के रंग बहुत शोख़ और गहरे थे

    समाअ'तों के धुँदलकों में खो गए 'शबनम'

    वो सारे लफ़्ज़ जो पलकों पे के ठहरे थे

    RECITATIONS

    अज़रा नक़वी

    अज़रा नक़वी,

    अज़रा नक़वी

    Badalti rut pe hawaon ke sakht pehre the अज़रा नक़वी

    स्रोत :
    • पुस्तक : Mausam bhiigii aa.nkho.n kaa (पृष्ठ 37)
    • रचनाकार : Rafia Shabnam Abidi
    • प्रकाशन : Hassan Publications, Mumbai (1985)
    • संस्करण : 1985

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