चाँदनी ओढ़ ले मुझ को तिरे आँचल की तरह
चाँदनी ओढ़ ले मुझ को तिरे आँचल की तरह
मैं बरस जाऊँ तिरे बाम पे बादल की तरह
मैं ने क्या सोच के रक्खी थी ज़बाँ काँटों पर
तू लिपटने लगी जब ओस से मख़मल की तरह
तू ने पूछा था कभी सुर्मा लगा कर मुझ से
क्या इन आँखों में समा जाओगे काजल की तरह
उतर आती हैं कहीं दूर की कूजें मुझ में
फैलता जा रहा हूँ दश्त में दलदल की तरह
थपकियाँ दे के कोई ख़्वाब सुलाता था मुझे
तू महकती थी मिरे पहलू में संदल की तरह
पहली बारिश में मिरे दिल से निकलने वाली
तू ने तोड़ा था मुझे मिट्टी की छागल की तरह
तू गुज़रती ही रही दे के हवा दामन की
मैं लरज़ता ही रहा काँच की बोतल की तरह
साएँ साएँ से हवाओं की दहलता हूँ 'शफ़क़'
मैं तो सुनसान हुआ हिज्र में जंगल की तरह
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