ग़म-ए-आफ़ाक़ में आरिफ़ अगर करवट बदलता है
ग़म-ए-आफ़ाक़ में आरिफ़ अगर करवट बदलता है
सियाही से क़लम की नूर का मीनार ढलता है
बसीरत हो तो हर ज़र्रा तजल्ली-ज़ार-ए-सेना है
निगह तारीक हो तो आइना ज़ुल्मत उगलता है
हुज़ूर-ए-हुस्न होती है किसे देखें पज़ीराई
सदा इबरत-असर दस्तूर-ए-हक़ दिन-रात चलता है
ख़ुदा-आगाह का हर हर नफ़स दर्स-ए-तयक़्क़ुन है
हया-बेगाना तख़रीबी हमेशा चाल चलता है
मसाफ़-ए-रज़्म से हरगिज़ न जा आईना-ख़ानों में
ख़ुदा का शेर-दिल आफ़ात के क़ालिब में ढलता है
निगारिश मक़सद-ए-तख़लीक़-ए-बर्ग-ए-गुल पे है लेकिन
किसे है ताब-ए-नज़्ज़ारा चराग़-ए-तूर जलता है
ख़ुलूस-ए-दिल से बनता है हिसार-ए-नार भी जन्नत
ब-फ़ज़्ल-ए-हक़ ज़मीन-ए-शोर से ज़मज़म उबलता है
मज़ाक़-ए-सरफ़रोशी ख़ानक़ाहों से हुआ रुख़्सत
मगर तलवार की मेहराब में सर-बाज़ पलता है
ज़माना मस्त-ए-इशरत है तकल्लुफ़ के जहन्नम में
हरम का पासबाँ बुत-ख़ाना-ए-आज़र में पलता है
लुटा देते हैं अलमास-ओ-गुहर साहिब-नज़र हँस कर
सितारे डूबते हैं तो कोई सूरज निकलता है
बड़ा दाना है दीवाना कहीं ठोकर नहीं खाता
अँधेरी रात है लेकिन दिया तो दिल का जलता है
सदाक़त से लहक जाते हैं तन-साज़ों के बुत-ख़ाने
ग़ज़ल की आग से फ़ौलाद का पैकर पिघलता है
तसर्रुफ़ में शबिस्तान-ए-जहाँ है इशक़-ओ-मस्ती के
ज़माना सो चुका है फ़क़्र का जादू तो चलता है
बहुत दुश्वार है चलना सिरात-ए-दीन-ए-फ़ितरत पर
ख़ुदा की जुस्तुजू में हर नफ़स शो'ला उगलता है
तुम्हारी अज़्मत-ए-दस्तार तो तस्लीम है नासेह
कलेजा राह-ए-हक़ में शेर मर्दों का दहलता है
ये ख़तरा है न ले डूबे परस्तिश तन की मुर्शिद को
चराग़ इस्लाम का ईसार-ओ-क़ुर्बानी से जलता है
दिल-ए-नाज़ुक पे हर्फ़ आए न उन 'बेबाक' मस्तों के
मुक़द्दर जिन की ठोकर से ज़माने का बदलता है
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