ख़ाक ओढ़े हुए इक ख़्वाब की ता'बीर का दुख
उस को खा जाएगा इक दिन मेरी तश्हीर का दुख
तुम ने ज़िंदाँ में फ़क़त मेरी असीरी देखी
अब दिला देख ज़रा पावँ की ज़ंजीर का दुख
जिस ने काटा है जवानी में बुढ़ापे का सफ़र
आ बताती हूँ तुझे हाए मिरे वीर का दुख
वक़्त-ए-रुख़्सत वो जो पलकों में छुपाया तुम ने
दिल में अब तक भी जवाँ है उसी इक नीर का दुख
इश्क़ में ख़ाक जो छानोगे समझ जाओगे
बूढ़े बरगद के तले बैठे हुए पीर का दुख
हाँ वही झंग जहाँ वंग के चर्चे हैं बहुत
पर मेरे दिल में निहाँ रहता है इक हीर का दुख
वर्ना शे'रों में तिरे मौत सी वहशत होगी
हाए तुझ को न लगे 'मीर' तक़ी 'मीर' का दुख
वो जो पल पल रहा मसरूफ़ कि मैं गिर जाऊँ
कैसे सह पाएगा 'ज़र्रीं' मिरी ता'मीर का दुख
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