कोई अरमाँ तलाश-ए-दोस्त का क्यूँ दिल में रह जाता
ग़ुबार अपना अगर गर्द-ए-रह-ए-मंज़िल में रह जाता
नहीं मालूम किस मुद्दत से ख़ंजर तिश्ना-ए-ख़ूँ था
कोई ख़तरा लहू का क्यूँ तन-ए-बिस्मिल में रह जाता
सफ़ाई कब थी मुमकिन ये ग़ुबार-ए-दिल वो काफ़िर है
मिरे दिल से निकलता भी तो उस के दिल में रह जाता
जला और जल के सोज़-ए-रश्क से दिल बुझ गया फ़ौरन
अगर होता चराग़-ओ-शम्अ उस महफ़िल में रह जाता
तअस्सुफ़ है ग़ुबार-ए-क़ैस की पर्वाज़-ए-हसरत पर
लिपट कर काश थोड़ा पर्दा-ए-महमिल में रह जाता
न देता गर सहारा कुछ उमीद-ए-वस्ल का तूफ़ाँ
शनावर बहर-ए-ग़म का हसरत-ए-साहिल में रह जाता
इस आईने में गर वो देख लेते रू-ए-अनवर को
तो क्यूँ इतना बड़ा धब्बा मह-ए-कामिल में रह जाता
न मिलता मुद्दआ-ए-दिल दिरम मिलता जो मुनइम से
मगर इक दाग़ बन कर वो कफ़-ए-साइल में रह जाता
निशाँ उस का कहीं मिलता सुराग़ उस का कहीं लगता
तो अपना पाँव क्यूँ थक कर रह-ए-मंज़िल में रह जाता
'नज़र' हम को इलाक़ा शेर से क्या पर ये हसरत है
न रहते हम तो अपना ज़िक्र उस महफ़िल में रह जाता
स्रोत:
Deewan-e-Sharf Mujaddidi (Pg. ebook-25 page-3)
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लेखक:
अब्दुल क़ादिर मुजद्दिदी
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- संस्करण: 1937
- प्रकाशक: रईस-उल-मताबे, कानपुर
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