टुक देख लें चमन को चलो लाला-ज़ार तक
टुक देख लें चमन को चलो लाला-ज़ार तक
क्या जाने फिर जिएँ न जिएँ हम बहार तक
क़िस्मत ने दूर ऐसा ही फेंका हमें कि हम
फिर जीते-जी पहुँच न सके अपने यार तक
ले जाऊँ अब मैं याँ से कहाँ अपना आशियाँ
दुश्मन है इस चमन में मिरा ख़ार ख़ार तक
दस्त-ए-सितम दराज़ किया जब जुनून ने
छोड़ा न मेरे पास गरेबाँ का तार तक
फिर भी टुक इतना उस को तू कह दीजियो सबा
जावे अगर हमारे तग़ाफ़ुल-शिआर तक
जीने की सूरत उस की ठहरती है कोई दम
इस वक़्त में भी पहुँचो जो उस बे-क़रार तक
कह इस ज़मीं में एक ग़ज़ल और भी 'हसन'
है तेरी तब्अ कहने पर अब तो हज़ार तक
स्रोत:

Deewan-e-Meer Hasan (Pg. 54)
- लेखक: मीर हसन
-
- संस्करण: 1912
- प्रकाशक: मुंशी नवल किशोर, लखनऊ
- प्रकाशन वर्ष: 1912
स्रोत:

Deewan-e-Meer Hasan
- लेखक: मीर हसन
-
- प्रकाशक: मुंशी नवल किशोर, लखनऊ
- प्रकाशन वर्ष: 1912
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