ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तुगू करते
पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते
मिरी तरह से मह-ओ-मेहर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते
हमेशा रंग-ए-ज़माना बदलता रहता है
सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते
लुटाते दौलत-ए-दुनिया को मय-कदे में हम
तिलाई साग़र-ए-मय नुक़रई सुबू करते
हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया
तमाम उम्र रफ़ूगर रहे रफ़ू करते
जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते
बयाज़-ए-गर्दन-ए-जानाँ को सुब्ह कहते जो हम
सितारा-ए-सहरी तकमा-ए-गुलू करते
ये का'बे से नहीं बे-वज्ह निस्बत-ए-रुख़-ए-यार
ये बे-सबब नहीं मुर्दे को क़िबला-रू करते
सिखाते नाला-ए-शब-गीर को दर-अंदाज़ी
ग़म-ए-फ़िराक़ का उस चर्ख़ को अदू करते
वो जान-ए-जाँ नहीं आता तो मौत ही आती
दिल-ओ-जिगर को कहाँ तक भला लहू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता-तालई 'आतिश'
बरसती आग जो बाराँ की आरज़ू करते
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