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चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी

अनीस क़िदवाई

चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी

अनीस क़िदवाई

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    सुर्ख़-ओ-सफ़ेद रंग ख़ूब घनी स्याह बड़ी बड़ी मूँछें, मलमल का कुर्ता, उस पर अंगरखा, बड़ी मोहरी का लट्ठे का पाजामा, कभी शेरवानी और चूड़ीदार पाजामा। एक शानदार मुलाज़िम साथ, लड्डुओं की हांडी, शराब की बोतलें और सोडे का केस थामे हुए। बड़े बे-तकल्लुफ़ाना अंदाज़ में फाटक से दाख़िल होते। उनकी ग़ैरमामूली शोख़ी-ओ-ज़राफ़त और खुले हुए हाथ की बदौलत बच्चों, बूढ़ों और नौकरों सभी को उनकी आमद की ख़ुशी होती। बुज़ुर्गों तक को तोहफ़ा तहाइफ़ से नवाज़ते, नौकरों पर इनाम-ओ-इकराम की बारिश होती और बच्चे मिठाई की हांडियां फ़ौरन उचक लेते।

    मेरे वालिद से उनकी दोस्ती की इब्तिदा उन दिनों हुई थी जब वो नए नए अलीगढ़ से वकालत पास कर के बारहबंकी आए थे और प्रैक्टिस शुरू की थी। मुहम्मद अली चचा का इलाक़ा कोर्ट था और वो कोशिश कर रहे थे कि किसी तरह इलाक़ा वागज़ार हो जाए। ब्रिटिश गर्वनमेंट हर राजा या ताल्लुक़दार के नाबालिग़ लड़के को अपनी सरपरस्ती में लेकर उसका इलाक़ा कोर्ट आफ़ वाडस के सुपुर्द कर देती थी। अगर बेटा नाख़ल्फ़ निकला तो ज़ब्ती का बहाना मिल जाता था। वरना अक्सर जवान होते ही लोग अपनी जायदाद छुड़ाने की कोशिश करते थे और ज़्यादातर कामयाब भी होते थे।

    मुहम्मद अली चचा भी कामयाब हो गए। रियासत छुटी तो वो भी तमाम बंधनों से रिहा हो गए। कालविन स्कूल (जो अब कॉलेज है) राजाओं और ताल्लुक़दारों के बच्चों के लिए मख़्सूस था, वहीं तालीम पाई थी। वालिदैन के इकलौते बेटे थे। एक बड़ी बहन थी जिसकी शादी हो चुकी थी। इसलिए घर में सारा लाड प्यार, शान, रंग-रलियाँ उनकी थीं।

    सुनती हूँ, रुदौली की दो हसीन-तरीन बेगमात में से एक उनकी वालिदा थीं। हालांकि मैंने जब देखा ज़ईफ़ हो चुकी थीं और हुलिया बदल चुका था। बस आसार कह रहे थे कि इमारत अज़ीम रही होगी। बड़े कल्ले ठल्ले की बीवी थीं। उन्नीसवीं सदी के दिल फेंक ताल्लुक़दार की अनगिनत महबूबाओं के होते हुए भी बेगम का रोब-ओ-दबदबा और इज़्ज़त-ओ-एहतिराम मिसाली था।

    एक वाक़या उन ही लोगों की ज़बानी सुना हुआ याद है कि ताल्लुक़दार मरहूम का क़ायदा था कि बेगम को ख़ुश करने और राज़ी रज़ा रखने के लिए अक्सर नफ़ीस ज़ेवरात और मलबूसात तोहफ़े में दिया करते थे। ख़ासतौर पर अगर बाई साहिबान के लिए कोई ज़ेवर ख़रीदते तो बिल्कुल उसी तरह का बेगम के लिए भी आता, यूँ चांदी सोने की बारिश करके बीवी के ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब को टाला करते थे।

    ऐसे ही एक मौक़े पर अरबाब-ए-निशात में से किसी ने ख़्वाहिश की कि मेरा आपकी तरह अचकन पहनने को जी चाह रहा है। फ़ौरन लखनऊ के कारीगरों से ज़रदोज़ी से मुरस्सा अचकन सिलवाई मगर एक नहीं दो अदद। एक फ़र्माइश करने वाली को इनायत हुई दूसरी ख़ुद लेकर ख़ुश ख़ुश बीवी के पास पहुँचे। बेगम ने खोली, देखा और अपना सर पीट लिया।

    “मैं कहती हूँ, तुम्हारी ग़ैरत को क्या हो गया है। अल्लाह की शान अब मुझे मुई निकाहियों और नाचने वालियों का सा लिबास पहनाओगे। ऐसा दीदा हवाई है कि शरीफ़ ज़ादियों और कमीनियों का फ़र्क़ भी मिट गया। ऐसे पहनने वालियों पर अल्लाह की मार, बस और क्या कहूँ लो देखो।”

    और ये कह कर झट कपड़ों को दियासलाई दिखा दी। अचकन जल कर ख़ाक हो गई और मियां बेचारे एक लफ़्ज़ भी बोल सके।

    हाँ तो साहब, वही मुर्तज़ाई बेगम हमारे मुहम्मद अली चचा की वालिदा थीं। बहुत सख़्त मज़हबी थीं, इसलिए मुहम्मद अली चचा की सुन्नी बीवी के आते ही उन्होंने बराबर के मकान में रिहाइश इख़्तियार करली और उन्हें आज़ाद छोड़ दिया। दिन में दो-चार बार कर बेटे बहू को डाँट डपट जातीं। बाक़ी अपने हिस्से में नज़र-ओ-नियाज़, मजलिस, ताज़ियादारी, मातम सब करती रहती, क्यों कि मुहम्मद अली चचा ने आख़िर उम्र में ताज़ियादारी बंद कर दी थी।

    मुहम्मद अली चचा के मुसाहिबीन में हकीम नेअमत रसूल (जो उनकी बीवी के हक़ीक़ी चचा ज़ाद भाई भी थे), मैनेजर नौशाद अली साहब और ख़ासे की चीज़ मियां मिट्ठू मुलाज़िम थे। और चचा का हुक्म था कि पुराने नौकरों को दादा, चचा, मामूं कह कर बुलाया जाए, ताकि उनको ये महसूस हो कि वो भी ख़ानदान के एक फ़र्द हैं।

    मेरे वालिद (विलायत अली साहब) के इंतिक़ाल के बाद उनके दोस्तों में सबसे ज़्यादा मुहब्बत-ओ-ख़ुलूस हमें उन ही से मिला। ख़ुद कहा करते थे कि “दो आदमियों ने मेरी ज़िन्दगी तल्ख़ कर दी, एक विलायत, दूसरे बीवी।” वालिद के इंतिक़ाल के बाद भी वो हमसे मिलने मसूली आया करते थे और मेरे छोटे भाई रुदौली भी पहुँचते थे।

    फिर जब लखनऊ में हमारा क़ियाम हुआ तो अक्सर मुलाक़ातें होती रहीं। हज़ारों क़िस्से उनके पास थे, और सुनने वालों का कसीर मजमा। सारे लड़के लड़कियां उनको घेर लेते और उस वक़्त कोई देखता उनकी गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार। लखनवी और क़स्बाती दोनों ज़बानों पर उबूर हासिल था। फ़ारसी और अंग्रेज़ी में भी बर्क़ थे। इमामन मोहरी के फ़लसफ़ियाना ख़यालात लिख कर सारी औरतों पर बेगमाती ज़बान के माहिर होने का सिक्का उन्होंने बिठा दिया था। रईसज़ादे होते हुए भी अवाम में घुल मिलकर अवधी ज़बान के लतीफ़े, मिसालें और कहानियां भी अज़बर करली थीं।

    कपड़े, ज़ेवरात, तमीज़, तहज़ीब और मुआशरती रख-रखाव उनका तुर्रा-ए-इम्तियाज़ था। मुझे याद है जब उन्होंने सलाहकार लिखी है तो हम लोग ख़ूब हंसते थे कि ख़ुदा की शान! नौजवानों के सलाह कार मुहम्मद अली चचा बन गए, जिनके दिल फेंक और दिल-नवाज़ होने के चर्चे सारे ज़िले में फैले हुए थे।

    अंग्रेज़ी तहज़ीब से मरऊब थे और अपनी तहज़ीब के आशिक़। इस्लामी और हिंदुस्तानी कल्चर ने उनका दिल मोह लिया था। ख़ासतौर से मुसलमान औरतों को वो चाहते थे कि इस राह से क़दम हटाएं। वैसे तालीम-ए-निस्वाँ के उन दिनों बहुत बड़े चैम्पियन थे। एक रोज़ कहने लगे, भई बीवी को तो ऐसा ज़रूर होना चाहिए कि अपने शौहर की ख़ुश-ज़ौक़ी सुख़न-शनासी की क़दरां हो और उसे समझ सकती हो। तुम्हें मालूम है? फ़ुलां साहब का क्या लतीफ़ा हुआ। इतना बड़ा शायर सारा वक़्त फ़िक्र-ए-सुख़न में खोया रहने वाला। उसने बीवी से निखट्टू का ख़िताब पाया। एक दिन उनके दिमाग़ में एक मिस्रा आया। मिसरा बड़ा ज़ोरदार था। दिन गुज़र गया, रात आगई, चराग़ पास रखे और क़लम हाथ में लिए बैठे हैं मगर दूसरे मिस्रा का तुक ही नहीं बैठ रहा था। एकबारगी रौशनी नुमूदार हुई और दूसरा मिस्रा बरजस्ता निकल पड़ा, ज़ोर से पुकार उठे, वो मारा, क्या लाजवाब शे’र हुआ है।

    बीवी सो चुकी थी। आवाज़ सुन कर चौंक पड़ी, “ऐ हे क्या हुआ, क्यों चिल्लाए।” आजिज़ी से कहा, “बेगम बस सुन लो। क्या मार्के का मतला हुआ है। शे’र कुछ इस क़िस्म का था (अगर्चे उन्होंने सुनाया था याद नहीं रहा) बाग़ था, बहार थी शबनम ने रात को मोती लुटाए थे और वो सरो-नाज़ नज़ारा-ए-सुब्ह में मह्व थी। तिश्ना लबान-ए-दीदार हम जिलौ थे वगैरह वगैरह।

    बीवी ने शे’र सुन कर करवट बदल ली, “मैं कहती हूँ तुम झूट कितना बोलते हो।” ये दाद मिली। बेचारे का मुँह इतना सा रह गया।

    एक दिन अपनी नई नई शादी का और बीवी पर फ़रेफ़्तगी का क़िस्सा बयान करने लगे कि मेरी बीवी के पेट में ज़ोर का दर्द उठा। मैं दवाओं पर दवाएं दे रहा था और वो मछली की तरह तड़प रही थी। इतने में क़स्बे की एक बीवी मिलने को गईं। वो कराह रही थीं और मैं बेताब हो रहा था। दर्द की शिद्दत से उन्होंने एक चीख़ मारी और मैं दीवानावार ये कहता हुआ उन पर झुक पड़ा, जान-ए-मन मैं क्या करूँ कैसे तुम्हारी तकलीफ़ दूर करूँ।

    मेहमान बीवी ने जो ये समां देखा तो दुपट्टे से अपना आधा चेहरा ढक लिया और बोलीं, “भय्या मुझे कोई डोली बुला दो मैं अपने घर जाऊँ, अब यहाँ जान-ए-मन वान-ए-मन होने लगा है।”

    मौलाना करामत हुसैन ने स्कूल खोला तो पहली लड़कियां मुहम्मद अली चचा की दाख़िल हुईं। मेरे वालिद को शायद वो राज़ी कर सके इसलिए मेरी हसरत पूरी हो सकी।

    दो ही साल के अंदर माँ ने आफ़त मचा दी और दोनों बड़ी लड़कियां वापस बुलाई गईं। तब उनकी तालीम के लिए एक हसीन नौजवान अंग्रेज़ी लेडी का तक़र्रुर हुआ, जो उन्हें लिखना, पढ़ना और बोलना सिखाती थी।

    लड़कियां तो बरा-ए-नाम तालीम हासिल कर सकीं मगर चचा के ताल्लुक़ात इतने बढ़ गए कि चची को अंदेशा पैदा हो गया और वालिदा तो शमशीर-ए-बरहना हो गईं। नाचार टीचर साहिबा को रुख़्सत करना पड़ा। उन्होंने अपने और बच्ची के गुज़ारे का दावा दायर कर दिया। आख़िरकार वकला ने दर्मियान में पड़ कर ख़तीर रक़म माँ-बच्ची की किफ़ालत के लिए देकर छुटकारा दिलवा दिया।

    बीवी बड़ी ख़ुदातरस, मरनजां-मरंज और मज़हबी थीं। हज को जाने लगीं तो चचा बम्बई तक छोड़ने गए। जुदाई के वक़्त बीवी के आँसू निकल पड़े। फिर क्या था। दौड़ धूप करके जहाज़ पर जगह हासिल की और ख़ुद भी हज को रवाना हो गए। ये ख़बर सुन कर सब हैरान रह गए।

    वापस आए तो हमने कहा, “चचा आप और हज। ये मोजिज़ा कैसे हो गया।” कहने लगे, “ये बीवी थी जो मुझे उस दरबार में ले गई मगर मदीने पहुँच कर बहुत ही दिल ख़ुश हुआ। बेहद लुत्फ़ आया।”

    हज से आने के बाद नमाज़ भी पढ़ने लगे। उन्होंने एक किताब “मेरा मज़हब” भी लिखी और उसे पढ़ कर मुझसे ख़ासा उलझावा रहा। मैंने कहा, “मुझे इस पर एतिराज़ नहीं कि आप शिया फ़िक़्ह पसंद हैं, क्योंकि मैं दोनों फ़िक़्ह से नाबलद हूँ। मगर सवाल ये है कि शिया फ़िक़्ह में आपको सिर्फ़ मुता और तक़य्या ही क्यों पसंद आया। अगर तक़य्या शरीयत की चीज़ थी और जाइज़ थी तो हज़रत अली ने, हज़रत इमाम हसन इमाम हुसैन ने और हज़रत ज़ैनब ने क्यों तक़य्या नहीं किया?”

    कहने लगे, “इमाम तक़य्या नहीं कर सकता। ये तो अवाम और कमज़ोरों के लिए जाइज़ है,” बहुत देर इस पर बहस रही मगर वो मुझे क़ाइल कर सके मैं उन्हें।

    शादी भी सुन्नी बीवी से हुई और ऐसी कट्टर कि सब सऊबतें सह लीं मगर टस से मस हुईं। आख़िरकार चचा ने ख़ानदान वालों से उनका पीछा छुड़ाया और सबको इस पर राज़ी कर लिया कि उनको उनके हाल पर छोड़ दो।

    दूसरा निकाह भी सुनी औरत ही से किया। शिया और सुन्नी फ़िक़्ह सब पढ़ डालीं, क़ुरआन और हदीस का विरिद रखा। अदबी ज़ौक़ की तकमील के लिए तमाम शोअरा और अदीबों से ताल्लुक़ात बढ़ाए। अच्छा कुतुबख़ाना जमा कर रखा था। हर मौज़ू पर और हर ज़बान में पढ़ते थे। इसलिए बहुत वसीअ मालूमात थीं।

    सन्1921 से 1930 ई. तक कांग्रेस से भी बहुत दिलचस्पी रही। जवाहर लाल जी से दोस्ताना ताल्लुक़ात रहे। एक पहियेदार चर्ख़ा भी ईजाद किया था। मुझे भी तोहफ़ा दिया था और उसका नाम चमरू चर्ख़ा रखा था। चमरू उनके नाम का जुज़्व था जिसे फ़ख़्रिया इस्तेमाल करते थे। उनकी माँ के बच्चे नहीं जीते थे। एक कसीर-उल-औलाद चमार के हाथ उन्हें टके में बेच दिया था। इसलिए चमरू उनका तख़ल्लुस बन कर रह गया था। उस चमार के ख़ानदान पर हमेशा नज़र-ए-इनायत रही।

    मुहम्मद अली चचा, जैसा कि मैं पहले कह चुकी हूँ, बीवी के आशिक़-ए-ज़ार होते हुए भी बला के हुस्न परस्त थे। ख़ूबसूरत कपड़ा, हत्ता कि क्रॉकरी और फ़र्नीचर तक देखकर लोट-पोट हो जाते थे। अपने बच्चों से शदीद मुहब्बत थी और दोस्तों के बच्चों से भी गहरा लगाव।

    अक्सर उनकी हुस्न-परस्ती के क़िस्से ज़बान ज़द अवाम होते। चचा से पूछो तो कभी इनकार करते। जब यूपी कौंसिल में ज़नान-ए-बाज़ारी के इख़राज और उनको लाइसेंस इस्मत फ़रोश देने का सवाल आया तो मुहम्मद अली चचा ने मुख़ालिफ़त में बड़ी ज़ोरदार तक़रीर की और कहा कि हमेशा से रूसा के बच्चे इल्म-ए-मजलिस सीखने के लिए तवायफ़ों के यहाँ जाते रहते हैं।

    और हम लोग ये पढ़ कर उनसे झगड़ पड़े। बहुत देर गर्मागर्मी रही, हंस हंस कर उन्होंने बहुत से लतीफ़े सुनाए। मगर ये एक बात बड़े पते की कह गए कि अगर ये अड्डे ख़त्म कर दिए गए, जहाँ सोसाइटी का फ़ासिद उन्सुर निकाल कर डाला जाता है तो हर घर में ऐसे अड्डे खुल जाएंगे और शरीफ़ ज़ादियों की इस्लाह ख़त्म हो जाएगी।

    लुत्फ़ ये है कि अपनी बीवी, बेटियों और तमाम रिश्तेदारों, औरतों के लिए वो अख़लाक़, शराफ़त, शौहरों से वफ़ादारी वग़ैरा लाज़िमी समझते थे। मगर पुराने जागीरदाराना निज़ाम में परवरिश पाने का इतना गहरा असर था कि मर्दों के लिए नज़रबाज़ी-ओ-शाहिद परस्ती में कोई बुराई नहीं समझते थे। मुहम्मद अली चचा अजीब माजून-ए-मुरक्कब थे। मेरे वालिद के तक़द्दुस-ओ-मासूमियत के क़ाइल थे, मगर किसी मुज्तहिद या मौलवी की बरतरी-ओ-बुज़ुर्गी पर बरफ़रेफ़्ता हो जाते थे।

    वो ब-यक वक़्त सूफ़ी मनुष भी थे और रंगीन मिज़ाज भी। उनकी ज़ात में तलव्वुन, सख़ावत, ख़ुश-मिज़ाजी और मग़्लूब-उल-ग़ज़बी का हैरत अंग्रेज़ इम्तिज़ाज था। रसूल और ऑल-ए-रसूल से मुहब्बत रखते हुए भी निकाह ख़ुद बैठ कर पढ़ लेते और उसको जाइज़ समझते और बिला मुता किए किसी औरत से मिलना गुनाह समझते थे।

    हम लोग एक आध बार रात को भी रुदौली पहुँचे। मगर पूरी पूरी ख़ातिर मुदारात से मुस्तफ़ीज़ हो कर रात के बारह एक बजे वापस लौटे। उस वक़्त उनकी ख़ुशी क़ाबिल-ए-दीद होती थी। चाहते थे कि क्या कुछ हमें खिला दें और कितनी ख़ातिर करें।

    बला के ज़हीन, ग़ैर-मामूली ख़ुश-मिज़ाज, खुला हुआ दिल, खुला हुआ हाथ, वसीअ मुताला और ज़िन्दगी का भरपूर तजुर्बा, क्योंकि उन्होंने जी भर के ज़िन्दगी से लुत्फ़ उठाया था, बिला किसी दग़दग़े खटके के ज़िन्दगी की बहारों में हर फूल से रस निचोड़ा था।

    और फिर वो ज़माना भी आया कि वक़्त ने चेहरे पर अपने निशान सब्त कर देने शुरू कर दिए। स्याही सफ़ेदी से, सुर्ख़ी ताँबे से और आज़ा की तवानी फ़ालिज की मार से बदली।

    पहली बीवी के इंतिक़ाल को अर्सा हो गया था। मगर एक दिन सज बन कर बाहर निकले तो एक काश्तकार ने टोका, “चौधरी साहब, क्या ब्याह करने वाले हो?” और फिर सचमुच उन्होंने एक जवान औरत से निकाह कर लिया।

    एक-बार लखनऊ आए तो कहने लगे, “भई मैं तो बुड्ढा हूँ और ये हैं बिल्कुल जवान। इसलिए वुजु (मेरे भाई) देखो अगर मैं रहूं, तो तुम इनकी सरपरस्ती करना।”

    मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकला, “हाय चचा छोटी कन्या और जलेबियों की रखवाली।” मुहम्मद अली चचा बहुत महज़ूज़ हुए। जा कर सब लड़कियों को बताया कि आज अनीस ने ये जुमला कहा है। मगर क़ैसर (उनकी नई बीवी) रो दें। उन्होंने बहुत शिकायत की कि तुमने मेरे लिए ऐसा क्यों कहा।

    आख़िर ज़माने में मसूरी में काफ़ी दिन साथ रहा। निचली मंज़िल उनके पास थी। ऊपर की मेरे पास। उन्ही दिनों एक साहब मअबुर्क़ापोश ख़ातून के चचा के पास आए और तालिब-ए-मदद हुए कि मसूरी में जेब कट गई है। बहुत परेशान हूँ। पैसा पास है रहने का ठिकाना और ज़नाना साथ है। चचा बेसाख़्ता बोले और ज़नाना भी अपना नहीं पराया है। इतना सुनना था कि उनका चेहरा फ़क़ हो गया। चचा ने कुछ रक़म हाथ पर रख दी और वो फ़ौरन चल दिए। हम लोगों ने कहा कि “आपको कैसे अंदाज़ा हुआ कि ज़नाना पराया है।” बहुत हंसे कहने लगे, “दरियाफ़्त कर लो। दूसरे ही का निकलेगा।” बाद को मालूम हुआ कि उनका अंदाज़ा सही था। वाक़ई ज़नाना कहीं से उड़ा लाए थे।

    पहाड़ियों के रस्म-ओ-रिवाज का ज़िक्र हो रहा था। कहने लगे भई नैनीताल में एक पहाड़ी मेरे पास आया। कहने लगा, “साहब! आप पढ़ा लिखा आदमी है। हमारा एक काग़ज़ लिख दो।” मैंने क़लम संभाला और कहा, “बताओ क्या लिखूँ।” उसने कहा, “हमारे पास दो औरत है और उसका औरत मर गया है। मगर उसके पास एक घोड़ी है। हम एक औरत उसको दे दिया है और ये अपना घोड़ी हमको देगा। इसका पक्का काग़ज़ लिख दो।” और ये अहद-नामा मैंने लिख दिया।

    अजीब बाग़-ओ-बहार शख़्सियत थी। ख़ालिस जागीरदारी माहौल की पैदावार। अब किसी को इतने मवाक़े हैं फ़ुर्सत। इसलिए मैंने सोचा एक हल्का सा ख़ाका पेश कर दूँ क्योंकि इस दौर में ऐसी शख़्सियतें बनेंगी, उनकी ज़रूरत है। एक बात और बता दूँ। बुल-हवसी से सख़्त नफ़रत करते थे। और फ़नकाराना अय्याशी को आर्ट समझते थे और अपना पैदाइशी हक़।

    ख़ुदा मग़फ़िरत करे, जब तक जिए ख़ुश रहे। दूसरों को ख़ुश रखा और सबको ख़ुश देखना पसंद किया। आख़िर में फ़ालिज से माज़ूर रुदौली में बैठ रहे थे। बच्चे सब पाकिस्तान चले गए थे। दो छोटे लड़के पास थे। उसमें एक ख़ब्त-उल-हवास था। दूसरा अभी पढ़ रहा था। इस वक़्त वही रुदौली में उनका नाम लेवा है। बड़ी हसरत-ओ-ग़म से पाकिस्तान जाने वाले लड़के-ओ-लड़कियों को याद करते थे।

    महफ़िलों की रौनक़, जलसों के सद्र नशीन, दोस्तों के महबूब और मज़हबी हलक़ों से बरसर-ए-पैकार। ये थे मुहम्मद अली चचा!

    वो साहब-ए-तर्ज़ अदीब और अफ़साना निगार भी थे। अफ़सानों के दो मजमूओं के अलावा उनके नाम को ज़िंदा रखने वाली मुतअद्दिद किताबें भी हैं। मसलन अतालीक़ बीवी, सलाहकार, हयात-ए-करामत-ए-हुसैन, मेरा मज़हब और कश्कोल मुहम्मद अली शाह फ़क़ीर वग़ैरा। आर्ट की परख पर एक मुख़्तसर-सा किताबचा नक़्क़ादी के नुक़्ते के नाम से और दूसरा फैमली-प्लानिंग पर पर्दे की बात के नाम से लिखा था, अगरचे उस वक़्त फैमली-प्लानिंग का किसी को ख़्याल भी आया था। गोया दबिस्ताँ खुल गया के नाम से उनके ख़ुतूत का एक मजमूआ उनकी बेटी हुमा बेगम ने, उनकी ज़िन्दगी ही में लाहौर (पाकिस्तान) से शाए किया था। अब उनकी किताबों के नाम से भी बहुत कम लोग वाक़िफ़ हैं।

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