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मोगरे की बालियों वाली

जावेद सिद्दीक़ी

मोगरे की बालियों वाली

जावेद सिद्दीक़ी

MORE BYजावेद सिद्दीक़ी

    बिखरी हुई मिट्टी को उखाड़ कर के क़ब्‍र की शक्ल दे दी गई थी, सूखी मिट्टी पर पानी डाल कर गीला कर दिया गया था और धूप से कुम्हलाए हुए उदास फूलों की एक चादर क़ब्‍र के ऊपर डाल दी गई थी, जिस में लाल-पीले और हरी पत्ती के रिबन हवा के झोंकों से हिल रहे थे और एक अजीब बे-मानी और बे-हूदा सी आवाज़ पैदा कर रहे थे।

    वो चन्द लोग जो जनाज़े के साथ आए थे, जा चुके थे और सूरज पीला हो कर गुलमोहर के पेड़ के नीचे चला गया था। वहाँ मेरे अलावा क़ब्‍र खोदने वाला एक मज़दूर था, जो बिखरी हुई मिट्टी को टूटी हुई कब्‍रों में डाल कर सफ़ाई कर रहा था। मैं बहुत देर तक कुम्हलाए सफ़ेद फूलों के नीचे गीली काली मिट्टी को देखता रहा, फिर मैंने कहा, “अच्छा आपा, तो ख़ुदा हाफ़िज़...”

    ये कहते हुए शायद मेरी आवाज़ बहुत ऊँची हो गई थी इसलिए कि मिट्टी साफ़ करने वाले मज़दूर ने अपना फावड़ा रोका और सिर टेढ़ा कर के मुझे देखा। उसकी आँखों में कोई जज़्बा नहीं था, हैरत का, हमदर्दी का, दुख का। होना भी नहीं चाहिए था।

    ऐसे हंगामे तो याँ रोज़ हुआ करते है

    मैंने आख़िरी दफ़ा क़ब्‍र को देखा, हाथ हिलाया और बाहर जाने वाली पतली पगडंडी पर चल पड़ा। पता नहीं कैसे, वो आँसू जो बहुत देर से रुके हुए थे, अचानक बहने लगे। हर चीज़ एक दम से धुँधली हो गई और उस धुँध में ज़फ़र गोरखपुरी की आवाज़ सुनाई दी, “आपा बड़ी अच्छी इन्सान थीं...” मैंने सिर हिलाया और आँसू पोंछ डाले।

    ज़फ़र ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, “तुम्हारी रिश्तेदार थीं?”

    “नहीं...” मैंने कहा।

    “कब से जानते थे?”

    अब मैं उन्हें क्या बताता कि कब से जानता था! मुझे तो हमेशा ऐसा ही लगा कि मैं उन्हें हमेशा से जानता था, और मुझे ये नहीं मा’लूम कि ये हमेशा कितना लम्बा है।

    ये उस ज़माने की बात है जब मैं इन्क़िलाब में काम किया करता था। ख़ालिद अंसारी अमेरिका से जर्नलिज़्म की एक बड़ी सी डिग्री ले कर आए थे और उर्दू सहाफ़त में इन्क़िलाब लाने के लिए “इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद” का नारा लगा चुके थे। उन्होंने चुन-चुन कर उन तमाम नौजवान सहाफ़ियों को इन्क़िलाब में जमा कर लिया था जो इधर-उधर बिखरे पड़े थे। मैं भी उन्हीं में से एक था। शाम होते-होते दफ़्तर की सारी मेज़ें दोनों तरफ़ से भर जातीं। चूँकि मेज़ें कम थी, या यूँ कहना चाहिए कि जगह थोड़ी थी, इसलिए दो-दो आदमी आमने-सामने बैठा करते थे। सिर्फ़ एक मेज़ ऐसी थी जिस पर ख़लिश जाफ़री का क़ब्ज़ा बिला शिरकत-ए-ग़ैर रहा करता था, क्योंकि वो एडिटर थे। काम-वाम तो ख़ैर होता ही था लेकिन बातें करने और सुनने में भी बहुत मज़ा आता था। इस छोटे से दफ़्तर में अज़ीज़ क़ैसी भी थे, हाशिम तर्ज़ी भी, शाहिद रज़्ज़ाक़, शमीम ज़ुबैरी, महमूद राही, सरदार इरफ़ान, शम्स-उल-हक़-शम्स फुलवारवी और मैं। धारदार जुम्ले, ख़ारदार तब्सरे और कहक़हे एक ऐसा माहौल बनाते थे जो मैंने इन्क़िलाब के बा’द किसी दफ़्तर में नहीं देखा। सोने पर सुहागा कॉलम निगार अब्दुल्लाह नासिर, सलामत ख़ैराबादी, मौलाना अतहर मुबारक पुरी, शे’र पर शोशा वाले कार्टूनिस्ट वहाब हैदर और बिस्मिल्लाह होटल की चाय। बारह बजते-बजते आख़िरी कॉपी प्रेस में चली जाती और हममें से कई नौजवान, जिन के घर-बार नहीं थे, खाना ढूँडने के लिए निकल पड़ते।

    मुझे और सरदार इरफ़ानी को वो तमाम खुफ़िया जगहें मा’लूम थी जहाँ सस्ता और उम्दा खाना मिला करता था। फ़ारस रोड पर बच्चों की बाड़ी के बाहर नान चाप और भुना गोश्त बहुत अच्छा मिलता है। खाते-खाते कुछ ठुमके भी देखे जा सकते हैं। वहाँ पास में मुबारक सीख़ वाला भी अपना ठेला लगाता है। मस्ताना तालिब के कोने पर निहारी और सिरी पाए वाला कभी-कभी मिल जाता है क्योंकि उसका माल ज़रा जल्दी बिक जाता है। भिंडी बाज़ार के चौराहे पर पाटका मन्ज़िल के नीचे फ़ुटपाथ पर दूर तक चटाइयाँ बिछी होती हैं और निहायत मज़ेदार खिचड़ा, जिस पर तली हुई प्याज और हरी मिर्चों की ड्रेसिंग होती है, बहुत सस्ता मिलता है। आप चाहें तो वहीं दुकान के तख़्ते पर बैठ कर सिर की मालिश भी करा सकते हैं, क्योंकि दो-तीन मालिश वाले खिचड़े वाले के साथ ही फ़ुटपाथ पर डेरा जमा दिया करते हैं। अगर गोश्त-ख़ोरी का मूड हो तो ज़रा सा आगे बढ़ जाइए, पैधोनी और भुलेश्वर के बीच में चार-पाँच ठेले वाले बहुत अच्छी और सस्ती आलू की तरकारी और पूड़ियाँ बेचते हैं। और मुंह मीठा करने के लिए जे.जे. अस्पताल पर रबड़ी और काली जलेबी... सुब्हान अल्लाह, ऐसा डिनर किसे नसीब होगा। मगर खाना खाने के बा’द कॉफ़ी पीने का मज़ा नागपाड़ा जंक्शन पर ही आता है। रोलेक्स होटल के पास रोज़नामा हिन्दुस्तान के दफ़्तर के नीचे फ़ुटपाथ पर एक भैय्या दो समावार लिए हुए बैठा होता है। समावार के नीचे दहकती हुई आग और समावार के अन्दर उबलती हुई कॉफ़ी और चाय। चाय सात पैसे की, कॉफ़ी दस पैसे की। पीछे पान और सिगरेट की दुकान भी है। मुश्ताक़ पान वाला मीना कुमारी पर बहुत संजीदगी से आशिक़ है। उसकी दुकान में जो आईना लगा है, उस पर मीना कुमारी की दर्जन भर से ज़ियादा तस्वीरें चिपकी हुई है। आप देखना भी चाहें तो अपनी सूरत नहीं देख सकते, इसलिए मीना कुमारी की आँखों में झाँक कर ही दिल को तसल्ली देनी पड़ती है।

    पान की दुकान पर और रोलेक्स होटल की पत्थर की सीढ़ियों पर शब-ज़िन्दा-दारों की एक महफ़िल जमी होती थी। उन महफिलों में कोई बुज़ुर्ग तो कभी-कभार ही आया करते थे, हाँ लौंडे लपाड़े बहुत से होते थे। कुछ लोग अदब और सहाफ़त की गिरती हुई सेहत के बारे में परेशान होते, कुछ लड़के क्रिकेट और कोप्रेज पर होने वाले फ़ुटबॉल के मैच के हारने और जीतने पर झगड़ते होते और कभी-कभार कोई सियासी घमसान भी छिड़ जाता, क्योंकि सौ क़दम आगे कम्युनिस्ट पार्टी का ऑफ़िस था और लाल बाउटे वाले जब भी आते महफ़िल को गर्मा कर रख देते। मैंने बहुत सी रातें रोलेक्स होटल के ठंड़े पत्थर पर बैठे-बैठे गुज़ारी हैं। उसकी एक वज्ह तो ये थी कि मैंने जो कमरा किराए पर ले रखा था वो बांद्रा ईस्ट की एम.आई.जी. कॉलोनी में था, और वहाँ जाने का कोई रस्ता नहीं होता था क्योंकि दो बजे तक बस्ती और लोकल ट्रेन बंद हो जाती थी। इसलिए कभी कातिबों के बैठने की गद्दियाँ मिला के इन्क़िलाब के दफ़्तर में सो जाता और कभी कॉमरेड अब्दुल जब्बार की तरफ़ से लाल बाउटा ऑफिस की बेंच पर कमर सीधी करने की इजाज़त मिल जाती और कुछ हो तो रोलेक्स की सीढ़ियाँ तो मेहमान नवाज़ी के लिए मौजूद ही थीं। मक़्सद तो रात को सुब्ह करना होता था, और रात की एक अच्छी आदत ये है कि किसी तरह भी कटे मगर कट ज़रूर जाती है, और सुबह ख़म ठोकती हुई सामने खड़ी होती है,

    कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ्ग़न-ए-इश्क़

    ऐसी ही एक मैली-कुचैली सुब्ह थी। मैं रोलेक्स होटल में बैठा हुआ अपनी पहली चाय ख़त्म कर रहा था। पहली इसलिए कि जब ग्यारह बजे सोकर उठो तो नींद का नश्शा एक प्याली से नहीं टूटता। अचानक सामने के फ़ुटपाथ पर कुछ हलचल सी दिखाई दी। कुछ लड़के जिनके हाथों में लाल परचम थे, लपकते हुए गुज़र रहे थे उनके पीछे दस-पंद्रह आदमियों की एक छोटी सी टोली और भी थी जिनके बीच में सुल्ताना आपा सड़क पार कर रही थीं।

    लाल बॉर्डर वाली सफ़ेद साड़ी जिस का पल्लू तेज़ धूप से बचने के लिए सिर पर ले लिया गया था। गर्मी की शिद्दत से गोरा रंग सुर्ख़ी माइल हो गया था। बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत आँखों में चमक थी और पतले-पतले गहरे गुलाबी होंठों पर एक ऐसी मुस्कुराहट जो उनके होठों से नहीं चेहरे से फूटती हुई लगती थी। सुल्ताना आपा कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर नागपाड़े से असेंबली इलेक्शन लड़ रही थीं और इसी सिलसिले में इलाक़े के गली-मोहल्लों में घूम रही थीं। मेरे ज़ेह्​न के एलबम में सुल्ताना आपा की ये पहली तस्वीर है।

    इन्क़िलाब में मेरी तनख़्वाह थी एक सौ बीस रुपए। दूसरे अख़बारों के मुक़ाबले में ये ख़ासी बड़ी रक़म थी, क्योंकि दूसरे अख़बारों के मालिक तो पचास साठ रूपए से ज़ियादा का नाम सुनते ही नौकरी माँगने वालों को भगा दिया करते थे। मगर एक सौ बीस रूपए में भी क्या होता था। पचास साठ रूपए माहवार तो मालबारी के होटल में देना पड़ता था जो महीने भर तक दोपहर का खाना उधार खिलाया करता था और खाने की रक़म अपनी कापी में लिखते वक़्त हमेशा बता दिया करता था कि टोटल कितना हुआ, ताकि खाने वाला चादर से बाहर पाँव फैलाए। कुछ पैसे अम्मा को भी भेजने पड़ते थे। कमरे का किराया भी देना पड़ता था जो ज़ियादातर वा’दों की सूरत में अदा होता रहता था। बाक़ी ऊपर का ख़र्चा जिसमें एक नई इल्लत शम्स साहब ने शामिल कर दी थी।

    शम्स साहब मेरे सामने बैठा करते थे। बहुत दुबले-पतले थे। कमज़ोर तो मैं भी था मगर वो इस क़दर मनहनी थे कि अगर जिस्म पर खाल होती तो मेडिकल कॉलेज वाले ढाँचा समझ कर ले जाते। कोट पहनने और टाई लगाने के बड़े शौक़ीन थे। कोट तो ख़ैर ठीक था, उनकी कमज़ोरी को किसी हद तक छुपा लेता था, मगर वो ना-मुराद टाई उनकी पतली सी गर्दन को और ज़ियादा नुमाया कर देती थी। बिल्कुल ऐसा मा’लूम होता था जैसे तस्वीर के नीचे सुर्ख़ी लगी हो। वो चेन स्मोकर थे। एक सिगरेट ख़त्म नहीं होने पाती थी कि हाथ कोट की जेब में जाता, कैंची छाप सिगरेट की डिबिया बाहर निकल आती, शम्स साहब डिबिया को देखे बग़ैर टटोल के एक सिगरेट निकालते और डिबिया मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहते, “लीजिए लीजिए, सिगरेट पीजिए।” और मैं बहुत अदब से अर्ज़ करता, “शुक्‍रिया, मैं नहीं पीता...”शम्स साहब का सिगरेट पेश करने का अमल शाम से रात तक इतनी बार होता कि ग़ुस्सा आने लगता था, मगर मैं जानता था कि वो जान-बूझ कर मुझे तंग नहीं कर रहे हैं बल्कि मेहमान नवाज़ी और मुदारात उनके किरदार का एक हिस्सा है, क्योंकि आख़िर थे तो लखनऊ ही के।

    सिगरेट पेश करने और इन्कार करने का ये सिलसिला महीनों जारी रहा। मगर दिल के अन्दर पत्थर तो होता नहीं है, मेरी बर्फ़ भी पिघलने लगी और एक दिन मैंने शम्स साहब का सिगरेट इसलिए क़ुबूल कर लिया कि इतने अच्छे साथी का दिल आख़िर कितनी बार तोड़ा जा सकता है। शुरू’ में तो मैं ये करता था कि धुआँ मुंह में भरता था और निकाल देता था। मगर सिगरेट पीने वाले जानते हैं कि ये धुआँ मुंह के अन्दर नहीं रुकता, ये गले से उतर के वहाँ तक पहुँच जाता है जहाँ पहुँच कर ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन जाता है और फिर एक दिन ज़िन्दगी को साथ ले कर चला जाता है। शुरू’-शुरू’ में तो खाना खाने के बा’द एक सिगरेट बहुत मज़ा देती थी, फिर उसकी ज़रूरत बढ़ने लगी। और फिर कोई भी शरीफ़ आदमी माँगे के सिगरेट पर कब तक गुज़ारा कर सकता है। इसलिए मैंने अपने पैकेट मँगाना और शम्स साहब के एहसानों का बदला उतारना शुरू’ कर दिया। उस ज़माने में गोल्ड फ़्लैक की डिबिया एक रूपए की आती थी और मिल बाँट कर पी जाए तो डेढ़ दो पैकेट रोज़ाना का खर्चा था। ब-लफ़्ज़-ए-दीगर ये कि तक़्‍रीबन चालीस-पचास रूपए माहवार का ख़र्चा बढ़ चुका था। बहुत हिसाब लगाया, बहुत कोशिश भी की मगर एक सौ बीस रूपए में खाना, चाय और दीगर अख़्‍राजात के साथ सिगरेट किसी सूरत से नहीं समाया। महीने के आखिर में तो ट्राम और बस के पैसे भी नहीं बचते थे, और कुछ खाने-पीने से पहले जेब में हाथ डालकर उँगलियों से पैसे गिन लिया करता था कि कहीं बिल देते वक़्त बे-इज़्ज़ती हो जाए। ऐसा ही कोई दिन था जब कॉमरेड अब्दुल जब्बार ने पूछा, “क्या बात है कॉमरेड, बड़े उजड़े-उजड़े लग रहे हो?”

    मैंने जेब-ओ-दिल का सारा अहवाल सुना दिया।

    जब्बार भाई इक दम से चुप हो गए और सड़क पर गुज़रने वालों को देखने लगे।

    जब्बार भाई मेरी ज़िन्दगी में कब और कैसे घुस आए थे, मुझे याद नहीं। बस इतना याद है, मुझ जैसे बहुत से नौजवानों के लिए, और कुछ बुज़ुर्गों के लिए भी, हर मरज़ की दवा थे। वो जर्नलिस्टों की कोई प्रॉब्लम हो, हथ-करघा वालों के मस्अले हों, बेकरियों में ब्रेड और बिस्कुट बनाने वालों की परेशानी हो, म्युनिसिपल्टी का मस्अला हो या हुकूमत का, जब्बार भाई हर मोर्चे पर डट जाया करते थे।

    वो बहुत देर तक बिस्मिल्लाह होटल के बाहर सड़क की चहल-पहल देखते रहे। फिर अचानक मेरी तरफ़ मुड़े, मुस्कुराए और बोले, “अमा हटाओ, ये कोई इतना बड़ा प्रॉब्लम नहीं है। कोई रस्ता निकाल लेंगे। चलो चाय मँगवाओ।”

    उन्होंने रस्ता यूँ निकाला कि एक दिन सुबह मुझे लेकर नेपियन सी रोड पहुँचे जहाँ सोवियत इंफ़ॉर्मेशन का दफ़्तर था। एक बड़े से हॉल में बहुत से लोग लिखने पढ़ने में मस्‍रूफ़ थे। जब्बार भाई वहाँ बैठे हुए सब लोगों को जानते थे और सब लोग उन्हें जानते थे। उनमें मश्हूर जर्नलिस्ट और कॉलम-निगार लाजपत राय थे, गुजराती के अदीब बटक देसाई थे और दीना पाठक भी थीं जो बहुत मश्हूर स्टेज और फिल्म एक्ट्रेस थीं।

    कुछ देर तक ख़ैर ख़ैरियत पूछने का सिलसिला जारी रहा और फिर हम एक कमरे में दाख़िल हुए जहाँ चारों तरफ़ काग़ज़ों, किताबों और अख़बारों के ढ़ेर लगे हुए थे, और उस ढेर के पीछे एक कुर्सी पर सुल्ताना आपा बैठी थीं। वो सीनियर एडिटर थीं और उर्दू इंग्लिश के डिपार्टमेंट उनके पास थे। आँखों में वही चमक, होंठों पर वही मुस्कुराहट थी जो पूरे चेहरे से फूटती हुई महसूस होती थी। जब्बार भाई ने तआ’रुफ़ कराया। आपा ने मुझे बड़ी हमदर्दी और प्यार से देखा और पूछा, “चाय पियोगे?” मेरे हाँ कहने पर उन्होंने मेज़ के नीचे से एक थर्मस निकाला और थर्मस के ऊपर लगे हुए प्लास्टिक के कप में चाय डाल कर मेरी तरफ़ बढ़ा दिया, और ख़ुद जब्बार भाई से बातें करने लगीं। उन्होंने मुझसे कुछ पूछा मैंने बताया। थोड़ी देर बा’द जब हम लोग जाने लगे तो आपा ने APN के चार-पाँच आर्टिकल मेरी तरफ़ बढ़ा दिए, “इन्हें तर्जुमा करके ले आना, मगर ज़बान आसान लिखना।” आपा के साथ ये मेरी पहली मुलाक़ात थी।

    रूसी मज़ामीन मुल्क की मुख़्तलिफ़ ज़बानों में तर्जुमा किए जाते और अख़बारों को भेज दिए जाते। चूँकि इतने सारे मुतर्जिम मुलाज़िम नहीं रखे जा सकते इसलिए तर्जुमे का काम जॉब वर्क के तौर पर होता था और हम जैसे बहुत से लोग ये तर्जुमा करते थे और हमें इसका मुआवज़ा दिया जाता था। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, इंग्लिश के एक सफहे का तर्जुमा करने पर सात रूपए मिलते थे। दस-पाँच मिनट की मेहनत का ये मुआवज़ा बुरा नहीं था मगर मुश्किल ये थी कि सुल्ताना आपा किसी एक को ज़ियादा काम देकर जानिब-दारी का इल्ज़ाम अपने सिर नहीं लेना चाहती थीं। महीने में दो-चार दफ़’अ चला जाता, जो हाथ आता वो उठा लाता और जो पैसे मिल जाते उन्हें लेकर लिंकन का शुक्‍र अदा करता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बक़ौल बम्बई वालों के, खाने पीने के वांदे हो जाते। ऐसे मौक़ों पर दो ही सहारे थे ऑल इंडिया रेडियो या फिर सुल्ताना आपा। और वो भी बला की चेहरा-शनास थीं, मुंह देखकर जेब का हाल जान लिया करती थीं। कभी-कभी डाँट भी दिया करतीं, “भई तुम तो मुझे नौकरी से निकलवाओगे। अभी आठ दिन पहले ही तो...”

    “आपा, ज़माना बहुत ख़राब है और मेरे हालात ज़माने से ज़ियादा ख़राब हैं।” मैं ढिठाई से जवाब देता। वो मुस्कुरा देतीं। मुस्कुराहट पूरे चेहरे पर फैल जाती। फिर वो कोई आर्टिकल पकड़ाते हुए कहतीं, “चलो, उस कोने में बैठ जाओ और जल्दी से तर्जुमा कर डालो।” और मैं किसी कोने में बैठ कर दो-चार काग़ज़ काले करता और आपा के पास पहुँच जाता। आपा मज़्मून को देखती, एक काग़ज़ पर एक नोट बनातीं और फिर कहती, “लपको-लपको, बानोवा के पास चले जाओ वरना वो निकल जाएगी।”

    बानोवा सोवियत इन्फ़ॉर्मेशन की वज़ीर-ए-खज़ाना थी। बहुत नन्ही-मुन्नी सी ख़ातून थीं। ख़ुद को मेज के बराबर करने के लिए कुर्सी पर दो-तीन कुशन रखा करती थीं। शायद उज़्बेक या ताजिक थीं, लेकिन थीं बड़ी मोहब्बत वाली। उर्दू के दो-चार जुमले आते थे जिन्हें टूटी-फूटी अंग्रेजी में मिलाकर इस तरह बोलती थीं कि मज़ा जाता था।

    बानोवा मज़्मून देखतीं, फिर एक वाउचर बनातीं और रसीद टिकट लगा कर दस्तख़त लेने के बा’द नोटों को दो-तीन बार गिनतीं और हवाले करते वक़्त मेरा शुक्‍रिया सुनने से पहले ख़ुद ही कहतीं, “शुक्‍रिया!”

    शुरू’-शुरू’ में तो आपा से जितनी भी मुलाक़ातें हुई, वो रस्मी और कारोबारी थीं। मगर धीरे-धीरे ये दूरी कम होती गई। अक्सर ऐसा होता कि आपा फ़ुर्सत से होतीं और हम लोग अपनी बातें करते। आपा लखनऊ की रहने वाली थीं इसलिए बड़ी शाइस्ता ज़बान बोलती थीं। लिहाज़ा मद्धम और ठहरा हुआ और आवाज़ में एक ऐसी मिठास थी जो बहुत देर तक सुनने के बा’द भी कानों पर बार नहीं गुज़रती थी। उनकी बातों में इस्मत आपा वाली चुटकियाँ तो नहीं होती थी मगर थोड़ी थोड़ी देर बा’द एक आध जुम्ला ऐसा ज़रूर सुनाई देता था जो उनकी हाज़िर जवाबी और हाज़िर दिमाग़ी का सुबूत होता था।

    आपा ने बताया कि अमेठी के एक ख़ानदानी रईस मिन्हाजुद्दीन उनके वालिद थे। वो छह बहने थीं जिनमें से तीन, या’नी सुल्ताना, ख़दीजा और आमना इज़ाबेला थोबरन (IT) कॉलेज लखनऊ में पढ़ा करती थीं और मिन्हाज सिस्टर्ज़ के नाम से मश्हूर थीं। मगर जैसा कि यू.पी. की आम बोल-चाल में जवान लड़की के नाम के साथ बी, लगा दिया जाता है, उन तीनों के साथ भी लगा हुआ था या’नी सुल्ताना बी, ख़दीजा बी और आमना बी, और इस रिआयत से कॉलेज के मनचले उन तीनों को Three Bees के नाम से याद किया करते थे। ये तीनों बहने पढ़ने लिखने के साथ-साथ दूसरी सरगर्मियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं।

    हर साल जब दिल्ली में यूथ फ़ेस्टिवल होता तो लखनऊ की नुमाइन्दगी करने वालों में सुल्ताना मिन्हाज का नाम सबसे पहले लिखा जाता। यही वो यूथ फ़ेस्टिवल थे जहाँ अलीगढ़ के एक तेज़ तर्रार आतिश-बयाँ मुक़र्रिर अली सरदार जाफ़री से उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी। ये अलग बात है कि दोनों एक दूसरे के मुक़ाबले पर थे। पता नहीं मौज़ू-ए-बह्स क्या था, मगर जो भी था, सरदार जाफ़री ने उसकी धज्जियाँ उड़ा के रख दीं और सुल्ताना का ग्रुप हार गया। मगर सुल्ताना नहीं हारीं। उन्होंने रात में कैंप फ़ायर के मौक़े पर सरदार जाफ़री को पकड़ लिया और अपने मौक़िफ़ की हिमायत में ऐसी-ऐसी दलीलें दीं कि सरदार जाफ़री का मुंह खुला रह गया। उन्होंने हैरत से पूछा, “अरे भई, आपने ये सारे Arguments उस वक़्त स्टेज पर क्यों नहीं बोले?” सुल्ताना एक दम से चुप हो गईं। सरदार जाफ़री के बार-बार पूछने पर उन्होंने एक शर्मिंदा सा जवाब दिया, “उस वक़्त मैं भूल गई थी।”

    सुल्ताना आपा ने जब ये क़िस्सा सुनाया तो मैंने कहा, “आपा, इस क़िस्से में तो नूर-जहाँ और जहाँगीर वाली कहानी की बड़ी शबाहत है। मेरा कबूतर कैसे उड़ गया? ऐसे उड़ गया। इस सादगी पर तो कोई भी आशिक़ हो जाएगा।”

    आपा का चेहरा मुस्कुराहट से भर गया, आँखों में चमक गई मगर ग़ुस्से में बोलीं, “ऐ हटो, फ़ालतू बातें मत करो। कोई आशिक़ हुआ था किसी को इश्क़ हुआ था। मेरी शादी तय हो चुकी थी।”

    आपा ने पॉलटिकल साईंस में एम.ए. किया था। उनकी शादी एक फ़ौजी अफ़्सर शहाबुद्दीन क़ुरैशी के साथ हुई थी जो उनके चचाज़ाद भाई भी थे। इस शादी से एक बेटी दुर्दाना (Guddo) पैदा हुई। मगर ये रिश्ता बहुत दिन तक क़ायम नहीं रह सका। दुर्दाना का कहना है कि उनके बाप और माँ दोनों बहुत अड़ियल थे। अगर मुंह से हाँ निकल गई तो नहीं होगी और कह दिया तो हाँ का सवाल ही नहीं पैदा होता। शहाबुद्दीन साहब के बारे में तो मैं कुछ भी नहीं जानता मगर आपा के ज़िद्दी होने पर यक़ीन नहीं आता। चालीस-इक्तालीस साल के मेल मुलाक़ात में आपा के बहुत सारे रूप मेरे सामने आए मगर उनकी ज़िद या हट धर्मी का कोई नमूना देखने को नहीं मिला। लेकिन हो सकता है कि आपा की शख़्सियत के कुछ ऐसे पहलू भी हों जो मेरी नज़र से चूक गए हों, क्योंकि ब-हर-हाल एक बेटी अपनी माँ को बेहतर जानती है।

    हाँ तो ये हुआ कि गुड्डी तीन-चार बरस की थी जब तलाक़ हो गई। आपा ने ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी कर ली और उनकी पोस्टिंग लाहौर में हुई। ये वो वक़्त था जब बँटवारे की तैयारियाँ तक़्‍रीबन मुकम्मल हो चुकी थीं और दिन गिने जा रहे थे कि कब इस ख़ूबसूरत मुल्क के चेहरे पर नफ़रत के चाकू से एक लकीर डाली जाएगी और एक ऐसा ज़ख़्म बनेगा जो सदियों तक खून देता रहेगा। फ़सादात शुरू’ हो चुके थे। किसी की समझ में नहीं रहा था कि कौन कहाँ ज़ियादा महफ़ूज़ रहेगा। लाहौर का स्टेशन डायरेक्टर एक हिन्दू था। उसने आपा को बुलाया और पूछा, “अगर मुल्क तक़्सीम हुआ तो इस बात का पूरा इम्कान है कि लाहौर पाकिस्तान का एक हिस्सा बनेगा। आप अपने हम मज़हबों के साथ यहाँ रहना पसंद करेंगी या...?” आपा ने जवाब दिया, “मैं हिन्दुस्तान जाऊँगी सर, जो मेरा वतन है।” और इस तरह 1946 में आपा ने अपना तबा’दला मुम्बई करा लिया। मुंबई पहुँच कर उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के कामों से ज़ियादा अंजुमप तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ीन में दिलचस्पी लेना शुरू’ की। उस वक़्त मुंबई तरक़्क़ी-पसंद तहरीक का मरकज़ था और वो तमाम लोग जो इस तहरीक के रूह-ए-रवाँ थे, मुंबई में जमा थे और उनमें अली सरदार जाफ़री भी थे।

    उस ज़माने में दो बातें एक साथ हुईं। सुल्ताना आपा कम्युनिस्ट पार्टी के क़रीब आने लगीं और सरदार जाफ़री सुल्ताना आपा के और 1948 में एक सादा सी तक़्‍रीब में सुल्ताना मिन्हाज, उर्फ़ सुल्ताना कुरैशी, सुल्ताना जाफ़री बन गईं।

    कभी-कभी ऐसा होता कि मैं मज़ामीन लेने के लिए सोवियत इन्फ़ॉर्मेशन में जाता तो फ़रीदा को भी ले जाता, और आपा बार-बार पूछती थीं, “अरे भाई, तुम लोग शादी कब कर रहे हो?” और मैं हमेशा बात को टाल जाया करता था। एक दिन आपा कुछ ज़ियादा ही संजीदा हो गईं। कहने लगीं, “लड़की बहुत अच्छी है, जावेद। जितनी जल्दी हो सके शादी कर लो, क्योंकि अच्छी लड़कियों को रिश्तों की कमी नहीं होती। और मिडल क्लास के माँ-बाप की सब से बड़ी ख़्वाहिश यही होती है कि जवान बेटी जल्दी से रुख़्सत हो जाए। कहीं ऐसा हो कि फ़रीदा के माँ-बाप किसी और को हाँ कह दें। तुम तो ख़ैर पछताओगे ही, उसकी ज़िन्दगी भी बर्बाद हो जाएगी।” मैंने कहा, “आपा, इतनी कम तनख़्वाह है, ऊपर से जो इन्कम होती है वो भी आप जानती हैं। सिर के ऊपर अपनी छत भी नहीं है। फ़रीदा तो अपने माँ-बाप की मर्ज़ी के बग़ैर भी शादी के लिए तैयार है मगर उनका सवाल भी यही है कि शादी के बा’द रहेंगे कहाँ? ऑफ़िस की मेज़ पर तो सोने से रहे।”

    आपा ने अपना हाथ ज़ोर से हवा में घुमाया और बोली, “सब हो जाता है, हिम्मत होनी चाहिए। जब मेरी शादी हुई थी तो सरदार के पास कौन से बंगले थे? अंधेरी कम्यून में रहते थे हम लोग। सरदार पार्टी के फ़ुल टाइमर (Full Timer) थे, उनको सौ रूपए महीना मिलता था। और मेरी तनख़्वाह 240 रूपए थी।”

    मैं कुछ ला-जवाब सा हो गया। आपा ने कहा, “जल्दी करो जल्दी, वरना मैं किसी दिन ख़िलाफ़त-हाऊस जाऊँगी जहाँ फ़रीदा रहती है, और उसके माँ-बाप से कहूँगी कि ये लड़का बिल्कुल निकम्मा और नाकारा है, आप अपनी बेटी की शादी किसी अच्छे घर में कर दीजिए। सोच लो, तुम्हारा क्या अन्जाम होगा।” वो मेरे ज़र्द होते हुए चेहरे को देख कर बहुत ज़ोर से हँसी और फिर बड़े राज़-दाराना अंदाज़ में धीरे से बोली, “कभी मायूस मत होना। कभी नहीं। चाय पियोगे?”

    ये हक़ीक़त है कि शादी के बा’द आपा और जाफ़री साहब काफ़ी भटकते रहे मगर मायूस नहीं हुए। पहले अंधेरी कम्यून में रहते थे। लेकिन चूँकि सरदार जाफ़री का हल्क़ा-ए-कारकर्दगी लाल बाग़ परेल के मिलों से ले कर मदनपुरा नागपाड़े तक था, इसलिए पार्टी ने दादर में एक कमरा दे दिया। फिर बा’द में उन्हें खेतवाड़ी में रेड फ़्लैग हॉल में मुन्तक़िल कर दिया गया जहाँ और भी बहुत से कॉमरेड रहते थे।

    आपा जब भी रेड-फ़्लैग हॉल में गुज़रे हुए अपने दिनों के क़िस्से सुनातीं तो बिल्कुल ऐसा लगता जैसे कोई अपने बचपन के टूटे-फूटे खिलौनों को साफ़ करके सहला के, प्यार करके अलमारी में सजा रहा हो।

    “कैफ़ी और मोती (शौक़त कैफ़ी) सामने वाले कमरे में रहते थे। मोती बड़ी सुघड़ है, उसने अपनी छोटी सी बालकॉनी को किचन बना लिया था और जब भी उसके कमरे से खाने की ख़ुश्बू आती थी तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता था।”

    “खाने पर ग़ुस्सा क्यों आता था?”

    “भई, मुझे ऑमलेट के सिवा कुछ बनाना नहीं आता। कभी-कभी क़ोरमा और कीमा बनाती हूँ या माश की सफ़ेद दाल। ये कभी अच्छे बन जाते हैं तो खाने वालों की क़िस्मत।”

    “अरे आप कैसी लखनऊ वाली हैं, खाना बनाना नहीं जानतीं?”

    “भई ये हमारी ख़ानदानी मजबूरी है। हमारी अम्मा को भी खाना पकाना नहीं आता था और हमारी बेटी को आता है। मगर लखनऊ का इतना असर ज़रूर है कि अच्छे और बुरे खाने की तमीज़ रखते हैं, अच्छे खाने के शौक़ीन हैं और इस लालच में कहीं भी पहुँच सकते हैं।”

    ये “शौक़ीन” वाली बात ज़रा क़ाबिल-ए-ग़ौर है। सुल्ताना आपा अच्छे खाने की ही नहीं, हर तरह के खाने की शौक़ीन थीं। इस्मत आपा उन्हें चटोरी कहा करती थीं हालाँकि ख़ुद इस्मत आपा भी निहायत चटोरी थीं। और ये दोनों चटोरी ख़्वातीन कहीं भी, कुछ भी खा सकती थीं, बस चटपटा होना चाहिए। अगर यक़ीन हो तो इंडस कोर्ट (जहाँ इस्मत आपा रहती थीं) के नीचे खड़े होने वाले चना चाट, भेल पूरी और पानी पूरी वालों से पूछ लीजिए कि उर्दू अदब की ख़ातून-ए-अव्वल और सुल्ताना जाफ़री ने खटाई और मिर्चें खाने के कैसे-कैसे रिकॉर्ड बनाए हैं।

    आपा ने मुझे रेड फ़्लैग हॉल के ज़माने की बहुत से गुफ़्तनी और ना-गुफ़्तनी क़िस्से सुनाए थे जिनमें से कुछ अब तक याद है। उन्होंने बताया था कि एक मर्तबा रईस-उल-मुतगज़्ज़लीन हज़रत जिगर मुरादाबादी मुंबई आए हुए थे। उन्होंने रात को मुशाइ’रा पढ़ा और सुबह अचानक ग़ायब हो गए। चाहने वाले तो चाहने वाले, जाहने वालों में भी खलबली मच गई कि जिगर साहब कहाँ चले गए। जहाँ-जहाँ जाने के इम्कानात थे वहाँ-वहाँ फ़ोन किए गए, जान पहचान वालों से पूछ ताछ की गई मगर जिगर साहब का कोई पता नहीं चला। मजरूह साहब ख़ास तौर परेशान थे, क्योंकि एक तो ये कि वो जिगर को अपना उस्ताद समझते थे, दूसरे ये कि शराबी आदमी हैं, ख़ुदा ना-ख़्वास्ता कोई हादसा पेश गया हो। शाम को जब हाँपते-काँपते मजरूह सुल्तानपुरी सरदार जाफ़री को जिगर साहब की गुमशुदगी की मन्हूस ख़बर सुनाने के लिए रेड फ़्लैग हॉल पहुँचे तो देखा कि कमरे में मज्लिस जमी हुई है। जिगर साहब, सुल्ताना जाफ़री, सरदार जाफ़री और एक सी. आई. डी. इंस्पेक्टर यूसुफ खाँ साहब रमी खेल रहे हैं। पूरा कमरा धुएँ से भरा हुआ है और चटाई पर सिक्कों के छोटे-छोटे ढेर लगे हुए हैं. मजरूह अपना सिर पकड़ के बैठ गए और उन्होंने जिगर साहब से कहा, “क़िब्ला, आपको मा’लूम है कि सारा शह्​र आप के लिए किस क़दर परेशान है!” जिगर साहब ने बड़ी संजदीगी से जवाब दिया, “मियाँ मजरूह, आप ज़रा मेरी परेशानी देखिए, एक पत्ते के लिए हाथ रोके बैठा हूँ।”

    आपा ने बताया कि जिगर साहब के रेड फ़्लैग हॉल में आने की असली वज्ह ये नहीं थी कि वो रमी के बहुत शौक़ीन थे और जब भी आते तो वक़्त निकाल कर आपा से दो-दो हाथ ज़रूर करते, बल्कि असली वज्ह ये थी कि कोई फ़िल्म स्टार (शायद दलीप कुमार) जिगर साहब की माली मदद करना चाहता था और जिगर साहब उसे मना भी नहीं कर सकते थे इसलिए चुपके से भाग खड़े हुए थे।

    आपा का रमी का शौक़ तो मैंने अपनी आँखों से देखा है। दीवाली से कई दिन पहले कैफ़ी साहब के घर पर पत्ते बाज़ी शुरू’ हो जाती है। (ये रिवायत अब भी क़ायम है) सुल्ताना आपा जब तक ज़िन्दा रहीं, हमेशा इन महफिलों में शरीक होती रहीं। लेकिन उनकी असली रमी पार्टी इस्मत आपा थीं और जब भी मौक़ा मिलता था, इस्मत आपा पत्ते निकाल कर शुरू’ हो जाती थीं, और जब जीतती थीं तो सारे पैसे बच्चों में बाँट दिया करती थीं। दुर्दाना का कहना है कि जब भी अम्मा और इस्मत ख़ाला रमी खेलने बैठतीं तो बच्चे कुछ दूर बैठ कर ज़ोर-ओ-शोर से दुआएँ माँगा करते थे कि अल्लाह इस्मत ख़ाला को जिता दे और हमें के रुस्तम की आइसक्रीम मिले।

    दो गवाहों, इस्मत चुग़ताई और लाजपत राय का कहना है कि सुल्ताना आपा ज़िन्दगी में जितनी ईमानदार थीं, ताश खेलते वक़्त उतनी ही बेईमानी करती थीं। अक्सर ऐसा होता था कि उन पर नज़र रखने के लिए किसी बच्चे को बैठाया जाता था ताकि वो पत्तों की हेरा-फेरी कर सके या प्वाइंट कम करके बताएँ।

    रेड फ़्लैग हॉल के ज़माने की बात है कि एक दिन सरदार जाफ़री की बहन रुबाब जाफ़री ने आपा के कान में कहा, “आज मोती के यहाँ खाना नहीं पका है। शायद पैसे नहीं हैं।”

    कमरे आमने-सामने थे, आपा ने झाँक कर देखा तो रब्बो की बात की तस्दीक़ हो गई। स्टोव ख़ामोश था, उसके ऊपर कोई बर्तन भी नहीं था और शौक़त आपा (मोती) दीवार से पीठ लगाए कुछ सी रही थीं।

    आपा ने जाफ़री साहब को बताया और बीस रूपए दे कर कहा कि किसी सूरत से मोती को दे दें। मगर ये कोई आसान काम नहीं था।

    “कैफ़ी और शौकत किसी क़ीमत पर क़ुबूल नहीं करेगे। और कैफ़ी तो ऐसे हैं कि बुरा मान गए तो हफ्तों बात भी नहीं करेंगे...”

    “ऐ तो क्या वो लोग ऐसे ही बैठे रहेंगे?” आपा परेशान हो गईं। बहुत ग़ौर करने के बा’द एक तरकीब निकाली गई।

    जाफ़री साहब ख़ैरियत दर्याफ़्त करने के लिए कैफ़ी साहब के कमरे में गए कुछ इधर-उधर की बातें की और बीस रूपए एक किताब के नीचे रख के चले आए और इत्मिनान का साँस लिया कि इतना बड़ा मस्अला इतनी आसानी से हल हो गया। मगर कोई दो घंटे बा’द शौक़त क़ैफी आपा के रूम में दनदनाती हुई दाख़िल हुईं बीस रूपए उनकी उँगलियों में लहरा रहे थे। उन्होंने छूटते ही पूछा, “सरदार भाई, ये पैसे आप रख के आए थे ना?”

    “पैसे, कौन से पैसे?” सरदार जाफ़री ने बड़ी मा’सूमियत से पूछा।

    “ये बीस रूपए।”

    “नहीं मोती, ये रूपए मेरे नहीं हैं।” सरदार जाफ़री ने बेहद ईमानदारी के साथ कहा।

    “तो सुल्ताना ने रखे होंगे।”

    “मैं तो तुम्हारे रूम में गई ही नहीं।”

    शौकत आपा परेशान हो गई। उन्होंने नोटों को देखा, सुल्ताना और सरदार जाफ़री के चेहरों को देखा, और फिर जैसे ख़ुद से पूछा, “आप लोगों ने नहीं रखे तो फिर ये आए कहाँ से?”

    “तुम या कैफ़ी रख के भूल गए होगे।” सुल्ताना आपा ने बड़े प्यार से समझाया, “फ़ालतू हों तो मुझे दे दो।”

    शौक़त आपा बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं, फिर चुप-चाप वापस चली गईं। और थोड़ी देर बा’द जब कैफ़ी साहब के कमरे से स्टोव की आवाज़ सुनाई दी तो सरदार जाफ़री लिखना छोड़ के बहुत देर तक उसे सुनते रहे, फिर बोले, “सुल्ताना, आज तुमने बहुत बड़ा काम किया है।” मगर सुल्ताना आपा ख़ुश नहीं हुईं और धीरे से बोलीं, “इस बात का अफ़्सोस है कि मेरे पास बीस ही रूपए थे।”

    एक दिन मैं धक से रह गया।

    पता चला कि आपा फ़रीदा के घर पहुँच गई थीं और बहुत देर तक बैठी भी रही थीं।

    हालाँकि तब तक बहुत से इन्क़िलाब चुके थे। मैं अपना शाम नामा उर्दू रिपोर्टर निकालने लगा था जो घुटनों पर चलने की कोशिश कर रहा था, सरकार ने दो कमरों का एक घर भी दे दिया था और फ़रीदा के घर वाले भी तक़्‍रीबन राज़ी हो गए थे, सिवाए उनके भाइयों के, और फ़रीदा के पारसी रिश्तेदारों की तरफ़ से कोशिश इस बात की हो रही थी कि साँप मर जाए और लाठी भी टूटे, या’नी कोई हंगामा भी हो और बेटी रुख़्सत भी हो जाए।

    ब-ज़ाहिर सब ठीक था मगर सुल्ताना जाफ़री का खिलाफ़त हाऊस में (जहाँ फ़रीदा की फ़ैमिली रहती थी) वुरूद और उनके अह्ल-ए-ख़ानदान से मुलाक़ात मुझे इसलिए खौफ़ज़दा कर रहे थे कि आपा निहायत मुंह-फट वाक़े’ हुई थीं। पॉलिटिकल साइंस में डिग्री लेने के बावजूद सियासत, डिप्लोमेसी और मौक़ा शनासी की सख़्त दुश्मन थीं। मैं डर रहा था कि ख़ुदा जाने क्या बोल बैठी हों और मेरी मोहब्बत की कहानी एक अलमिए पर ख़त्म हो जाए।

    मैं उनके ऑफ़िस पहुँचा तो वो कुछ ज़ियादा ही ख़ुश दिखाई दीं। मुस्कुराहट चेहरे की हदों से बाहर तक फैली हुई थी और आँखों में एक शरीर सी चमक थी। मुझे देखते ही बोलीं, “भई तुम्हारी सास को तो मैं जानती हूँ। मेरे साथ Adult Education प्रोग्राम में काम किया करती थीं। उन्होंने धान साग बना के खिलाया। मज़ा गया।”

    “आपा, वहाँ कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं हुई?”

    “ऐसी-वैसी बहुत सी बातें हुईं... तुम्हारे ख़िलाफ़त हाऊस में चूहे कितने हैं, एक तो मेरे पैरों के ऊपर से गुज़र गया। ये तुम्हारे चचा ज़ाहिद शौकत अली साहब चूहे भी नहीं मार सकते क्या?”

    “आपने ये तो नहीं बताया कि फ़रीदा मेरे साथ यहाँ आया करती हैं?”

    “फ़रीदा घर में नहीं थी। उसकी छोटी बहन थी। वो भी बहुत प्यारी है।”

    “मेरे बारे में क्या बात हुई?”

    “मरे क्यों जा रहे हो? मैंने तुम्हारा नाम भी नहीं लिया। उन्हें तो ये भी नहीं मा’लूम कि मैं तुम जैसे फ़ालतू आदमी को जानती हूँ।”

    “तो फिर आप वहाँ गई क्यों थी?”

    “देखने गई थी कि जो लोग लाठियों से तुम्हारी पिटाई की धमकियाँ दे रहे हैं, उनके पास लाठियाँ हैं भी या नहीं?”

    “मज़ाक मत कीजिए आपा...”

    आपा संजीदा हो गईं, “जावेद, अब तुम अपनी शादी का ऐलान कर दो और एक अच्छा सा रिसेप्शन दो। मैं शहाबुद्दीन दसनवी से कह दूँगी, वो साबू सिद्दीक़ का हॉल दे देगा। सरदार का दोस्त है, पैसे भी नहीं लेगा।”

    “मगर इतनी जल्दी?”

    “दस फ़रवरी बहुत अच्छी तारीख़ है, बर्टाेल्ट ब्रेख़्त की सालगिरह का दिन है।”

    “बर्टाेल्ट ब्रेख़्त से मेरा क्या तअ’ल्लुक़?”

    “ब्रेख़्त का तअ’ल्लुक़ हर तरक़्क़ी पसंद से है। तो मैं दसनवी को फ़ोन करुँ?”

    “फ़रवरी तक कैसे मुम्किन है आपा?”

    “फ़रवरी दो महीने दूर है, और इतने दिन में बहुत कुछ हो सकता है।”

    “वो तो ठीक है मगर और भी तो ज़रूरतें हैं।”

    “क्या जरूरतें?... तुमने क्या इंतेज़ाम किया है? मुझे बताओ।”

    “थोड़ा बहुत किया है, मगर फिर भी कम है।”

    “ठीक है, तुम कल आना और बताना कि क्या कमी है। फिर बात करेंगे।”

    मैं रात भर सो नहीं सका। आपा की मोहब्बत सर आँखों पर मगर उन्होंने तो अल्टीमेटम दे दिया, और वो भी ऐसा कि हाँ कह सकता हूँ ना।

    दूसरे दिन पहुँचा तो आपा मीटिंग में थीं। मॉस्को से कुछ रूसी आए हुए थे। बंद कमरे में बह्स छिड़ी हुई थी और मैं बाहर एक कोने में चुप-चाप बैठा परेशान हो रहा था।

    चार बजे के क़रीब आपा बाहर आईं। रात भर जागने और पाँच घंटे इंतज़ार करने की कहानी मेरे चेहरे पर लिखी हुई थी।

    आपा ने मा’ज़रत की और वो फ़ेहरिस्त देखी जो मैंने बनाई थी, बोलीं, “सारा बंदोबस्त तो है, और क्या चाहिए?”

    मैंने कहा, “मेरी तरफ़ से दो-चार जोड़े और कुछ ज़ेवर भी तो होना चाहिए।”

    “ज़ेवर किसलिए? मार्किस्ट बीवियाँ ज़ेवर नहीं पहनतीं।”

    मैं झुँझला गया। मैंने आवाज़ ज़रा सी ऊँची करके कहा, “फ़रीदा मार्किस्ट नहीं हैं और उनके घर वाले...”

    आपा ने एक खनकता हुआ क़हक़हा लगाया और बोलीं, “फूलों के ज़ेवर पहनाओ, फूलों के...”

    फूल आपा की कमज़ोरी थे, ख़ास तौर से मोगरा। जब भी मोगरे की लड़ियाँ मिल जातीं, उनके कंगन बना कर पहनतीं, बालों में लगातीं और बहुत सी कलियाँ चाँदी की बालियों में पिरों कर कानों में लटका लेतीं। उनकी बालियाँ क्या थीं, चाँदी का पतला सा तार था जिसे गोल करके कान में डाल लिया करती थीं, और जब फूल मिल जाते तो उसी चाँदी के तार को मोगरे से भर देतीं।

    1995 की बात है। आपा अलीगढ़ में थी। मौरिस रोड पर मोगरा दिखाई दिया तो साइकिल-रिक्शा से नीचे उतर गईं। पल्लू भर के कलियाँ ख़रीदी और रिक्शा में बैठ कर मोगरे की बालियाँ बनाने लगीं। झटका लगा तो कुछ फूल रिक्शे के पायदान में गिर पड़े। आपा उठाने के लिए झुकीं तो दूसरा झटका लगा और आपा सड़क पर इस तरह गिरीं की हाथ की हड्डी तीन जगह से टूट गई, मगर मोगरे के फूल हाथ से नहीं छूटे।

    आपा के चाहने वाले जब भी उनसे मिलने जाते, अगर मौसम होता तो मोगरे के फूल ज़रूर ले जाते। और आप उन्हें अपनी मश्हूर-ए-ज़माना चाय पिलातीं। दुर्दाना ने बताया कि अली रज़ा जब भी जाते थे, मोगरे के कम से कम पाँच वेणियाँ लेकर जाते, और पूछने पर बड़े प्यार से कहते, “भई, ये वेणी नहीं है, ये तो सुल्ताना की रिश्वत है। अब वो हमें लापचू (Lopchu) पिलाएगी।”

    ये फूलों वाली बात तो यूँ ही बर-सबील-ए-तज़्किरा गई, अस्ल मस्अला ये था कि आपा मेरी शादी कराने पर तुली हुई थीं और मेरी हालत वही थी जो एक अनाड़ी एक्टर की होती है, वो स्टेज पर तो जाता है मगर हाथ पाँव-काँपते होते हैं, ज़बान सूख जाती है, डायलॉग याद नहीं रहते और उसकी समझ में नहीं आता कि वो स्टेज पर खड़ा रहे या भाग जाए। मैं भी रातों को जाग कर यही सोच रहा था कि किस जंजाल में फंस गया हूँ। लोगों की शादियाँ होती हैं तो ख़ुशियाँ होती हैं, एक नई ज़िन्दगी का आगाज़ होता है। यहाँ ये आलम है कि आगाज़ से पहले अन्जाम का डर सोने नहीं देता।

    मैं कई दिन तक नहीं गया तो आपा का फोन आया, “क्या हुआ, क्या बीमार हो?”

    “जी नहीं, ज़रा मसरूफ़ था।”

    “मैंने दसनवी को फोन कर दिया है। दस फ़रवरी को छोटा वाला हॉल मिल जाएगा।”

    मेरे हाथ-पाँव सच-मुच ठंडे हो गए। सोचना चाहता था मगर समझ में नहीं आता था कि क्या सोचूँ। सोने पर सुहागा ये कि कॉमरेड हमीद मिल गए। बहुत दुबले पतले आदमी थे। पीरख़ान स्ट्रीट में टेलरिंग की दुकान थी। निहायत मुत्तक़ी मार्किस्ट थे, या’नी नमाज़ पाबंदी से पढ़ते थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सरगर्म रुक्न भी थे। मुझे देख कर उन्होंने एक बल खाया (बातें करते-करते बल खाना उन की आ’दत थी) और मुस्कारकर पूछा, “तुम शादी कर रहे हो?”

    “आपको किसने बताया?”

    “सुल्ताना आपा मिली थीं, वही बता रही थीं।”

    मेरा दिल चाहा कि मैं अपना सिर पीट लूँ और कॉमरेड हमीद को धक्का देकर भाग जाऊँ, मगर उनके अगले जुमले ने रोक लिया, “कपड़ा ला देना, सूट हम सी देंगे। हमारी तरफ़ से तोहफा।” मैंने एक पल को आँखें बंद की और तसव्वुर किया कि जब इन पचास किलो हड्डियों पर एक सूट होगा, पतली सी गर्दन में शम्स-उल-हक़ की तरह एक टाई होगी, सिर पर बड़े-बड़े बाल होंगे और एक बड़ी सी नाक पर मोटा सा चश्मा होगा, तो मैं कैसा नज़र आऊँगा। मेरे तसव्वुर की पर्वाज़ को दाद दीजिए कि मैं अपनी शादी के एलबम में बिल्कुल वैसा ही नज़र आता हूँ जैसा सोचा था। जो भी हमारी शादी की तस्वीरें देखता है, बड़ी हैरत से फऱीदा को ज़रूर देखता है। कई हमदर्दों ने तो दबी ज़बान में उनसे पूछ भी लिया, “बीबी, जब तुमने इस शादी को हाँ कही तो क्या तुम अपने पूरे होश-ओ-हवास में थीं?”

    बात कॉमरेड हमीद पर ख़त्म हो जाती तो भी ग़नीमत था। दो-तीन दिन के अन्दर अन्दर ये ख़बर अख़बारी ज़मीमे की तरह फैल गई कि मेरी शादी हो रही है, हॉल बुक हो चुका है, कॉमरेड हमीद सूट सी रहे हैं, जब्बार भाई ने चार गज़ इम्पोर्टेड कपड़ा ला के दिया है जो साबू सिद्दीक़ मुसाफ़िर-ख़ाने के बाहर दुकानें लगाने वाले स्मगलर से ख़रीदा गया है।

    हिन्दुस्तान के एडीटर ग़ुलाम अहमद ख़ाँ आरज़ू ने उस वक़्त पकड़ लिया जब मैं उनके दफ़्तर के नीचे एक दुकान से सिगरेट ख़रीद रहा था, “मुबारक हो, सुना है तुम शादी कर रहे हो?”

    “जी!” मैंने निहायत इन्किसारी से जवाब दिया।

    “बहुत अच्छी बात है, सब को शादी करनी चाहिए। मगर कोर्ट मैरिज है या निकाह-ए-मस्नूना?”

    “आपको मा’लूम कैसे हुआ?” मैंने पूछा।

    “राही ने बताया।”

    मैं फ़ौरन समझ गया कि महमूद राही को किस ने बताया होगा। राही हर हफ़्ते मज़ामीन का तर्जुमा करने के लिए आपा के पास जाया करता था। मतलब ये कि मोहतरमा सुल्ताना जाफ़री, जिन्हें सोवियत इंफ़ॉर्मेशन ऑफिस में बैठ कर रूस की तरक़्क़ी और कामयाबी की ख़बरें फैलाना चाहिए था, उन दिनों जावेद सिद्दीक़ की शादी-ख़ाना-आबादी की ख़बरों में ज़ियादा दिलचस्पी ले रही थीं।

    मैं बड़े ख़राब मूड में आपा के पास पहुँचा। वो ख़्वाजा अहमद अब्बास से बातें कर रही थीं। मुझे देखते ही अब्बास साहब से बोली, “तुम जानते हो अब्बास? ये अपने जावेद सिद्दीक़ी है। दस फरवरी को इनकी शादी है।” मैं तो पहले ही से जला भुना था, भड़क कर बोला, “शादी कैसे होगी आपा, अभी तक एक अंगूठी तक का तो बंदोबस्त नहीं हुआ है।”

    “हाय हाय, अभी तक नहीं हुआ?”

    मैं सिर झुका कर बैट गया। आपा कुछ सोचती रहीं, फिर बोलीं, “तुम एक काम करो, नीचे मेरा बैंक है और ये मेरा एकाउंट नंबर है। जाके मा’लूम करो, एकाउंट में पैसे कितने हैं?”

    मैं ख़ुद को गालियाँ देता हुआ मालाबार हिल से नीचे उतरा। आपा के बैंक से उनका बैलेंस मा’लूम किया तो दिल बैठ गया। उनके एकाउंट में सिर्फ़ 800 रूपए थे। मैं समझ गया कि आपा माफ़ी माँग लेंगी और मेरी हालत उस मछली जैसी होगी जो काँटा निगल लेती है और तड़पने के सिवा कुछ नहीं कर सकती। मैं पसीने और थकन से निढाल उनके ऑफिस पहुँचा और थके हुए लहजे में बोला, “आप के एकाउंट में तो पैसे ही नहीं है, बस 800 रूपए पड़े हुए हैं।” उनके माथे पर कोई बल आया आँखों में शर्मिंदगी की झलक दिखाई दी।

    “तो और कितना होगा, तुम्हारी क़िस्मत अच्छी है कि इतने भी बच गए।” उन्होंने अपनी चेक बुक निकाली और चेक लिखने लगी, “सात सौ तुम ले जाओ, सौ रूपए छोड़ना ज़रूरी है वरना खाता बंद हो जाएगा।”

    सस्ते का ज़माना था। साढ़े चार सौ रूपए तोला सोना था। आपा के पैसों की मदद से एक सेट खरीदा गया जो फ़रीदा के पास आज तक है और वो किसी को हाथ भी नहीं लगाने देती है। कुछ इसलिए कि वो उनकी शादी का चढ़ावा है और कुछ इसलिए कि उसके साथ आपा की याद जुड़ी हुई है। सोना बूढ़ा हुआ है और सुल्ताना आपा की याद।

    हमारी शादी के रिसेप्शन में आपा शरीक नहीं हो सकी थीं। वो जाफ़री साहब के साथ कहीं बाहर गई हुई थीं। मगर उन्होंने किसी के हाथ एक लिफ़ाफ़ा भिजवाया था जिसमें 51 रूपए थे और एक कागज़ पर सरदार जाफ़री के दो शे’र लिखे हुए थे। वो पर्चा तो कहीं खो गया, वो शे’र भी अब याद नहीं। जाफ़री साहब के अशआर वैसे भी ज़रा कम ही याद रहते हैं। इस बात पर सुल्ताना आपा से कई बार बह्स हुई कि सरदार जाफ़री शाइ’र अच्छे हैं, नक़्क़ाद अच्छे हैं, अदीब अच्छे हैं, या लीडर बहुत अच्छे हैं। अन्दाज़ा किया जा सकता है कि आपा की राय क्या रही होगी। सरदार जाफ़री का हर लफ़्ज़, चाहे वो काग़ज़ पर हो या ज़बान पर, उन्हें तो ऊपर से उतरा हुआ मा’लूम होता था। एक मर्तबा मैंने उन्हें छेड़ने की नीयत से कहा, “सरदार जाफ़री की शाइ’री बड़ी रुखी फीकी शाइ’री होती है। पढ़ कर कुछ मज़ा ही नहीं आता।” उस दिन आपा सच-मुच बुरा मान गईं, “तुम लोगों की सुनी सुनाई बातें मत दोहराया करो। जो लोग सरदार की शाइ’री को फीका और बे-मज़ा कहते हैं वो शाइ’री नहीं करते, बर्फ़ के गोले बेचते हैं, जो रंगीन भी होते हैं और ठंडे मीठे भी, मगर कितनी देर के लिए?... मेरे ख़याल में ‘हाथों का तराना’ उर्दू की बेमिसाल नज़्मों में से एक है।

    इन हाथों की ताज़ीम करो

    इन हाथों की तकरीम करो

    दुनिया को चलाने वाले हैं

    इन हाथों को तस्लीम करो

    क्या तुम इस नज़्म की अहमियत और मौज़ू’ की सच्चाई से इन्कार कर सकते हो?”

    मैं अगर इन्कार करना भी चाहता तो नहीं करता, क्योंकि आपा का दिल दुखाने से बड़ा गुनाह कोई दूसरा नहीं हो सकता। शाइ’री पर बात निकली है तो अर्ज़ करुँ सरदार जाफ़री ने लिखा है, ‘हर आशिक़ है सरदार यहाँ हर माशूक़ा सुल्ताना है।’ मगर आपा को जानने वाले जानते हैं कि ये झूठ है। सुल्ताना माशूक़ा नहीं थीं, वो आशिक़ थीं। उन्होंने अपने सरदार को जिस तरह प्यार किया उसकी कोई मिसाल मुझे तो नहीं दिखाई देती। जब सुल्ताना आपा और सरदार जाफ़री की शादी हुई तो हर अच्छे शौहर की तरह जाफ़री साहब को भी लगा कि उन्हें काम करना चाहिए, और वो नौकरी हासिल करने के लिए जगह-जगह दरख़्वास्तें भेजने लगे। आपा को मा’लूम हुआ तो उन्होंने वो सारी दरख़्वास्तें फाड़ कर फेंक दीं और कहा, “तुम बीवी बच्चों का पेट पालने के लिए नौकरी नहीं करोगे। तुम्हारा काम अदब की तख़्लीक़ है, तुम वही करो। घर कैसे चलेगा, कहाँ से चलेगा, कौन चलाएगा, आज से ये ज़िम्मेदारी मेरी।”

    आपा सत्तर साल की उ’म्‍र तक काम करती रहीं। उन्होंने जो वा’दा किया था, आख़िर तक निभाया। आदमनी कम थी, घर छोटा था और रहने वाले ज़ियादा। दो बच्चे, पप्पू और चनम, सरदार जाफ़री की दो बहनें, रुबाब और सितारा, ख़ुद सरदार जाफ़री और आपा। मेहमानों और आने-जाने वालों का सिलसिला भी लगा ही रहता था। मगर उनके चेहरे की मुस्कुराहट कभी मद्धम नहीं हुई।

    ऐसा नहीं है कि सरदार जाफ़री ने वाक़ई’ कोई काम किया हो। उन्होंने फ़िल्म बनाई, सीरियल भी बनाए, रिसाले भी निकाले, मगर उनका सब से बड़ा कारनामा वो तीन किताबें हैं जो उनकी अनथक मेहनत और बरसों की तख़्लीक़ का नतीज़ा हैं। ये किताबें हैं दीवान-ए-मीर, दीवान-ए-ग़ालिब और कबीर बानी, जो इस तरह शाया की गई हैं कि उर्दू का हर लफ़्ज़ सामने वाले सफ़्हे पर हिन्दी में भी मौजूद है। जाफ़री साहब का इरादा था कि उर्दू का तमाम अदब और मश्हूर शाइ’रों के दीवान इसी तरह शाया किए जाएँ ताकि हिन्दी और उर्दू वाले दोनों एक ही वक़्त में मज़ा ले सकें। ये तीनों किताबें अब तक़्‍रीबन नायाब हैं, ख़ास तौर से दीवान-ए-ग़ालिब। एक दिन मैंने आपा से कहा, “कहीं से भी करके दीवान-ए-ग़ालिब की एक जिल्द ला कर दीजिए।” कहने लगीं, “सरदार वाला दीवान-ए-ग़ालिब तो मेरे पास भी नहीं है मगर मेरा अपना जो है वो मैं तुमको दे दूँगी।”

    “कब देंगी?” मैंने पूछा। आपा बहुत प्यार से मुस्कुराई और बोलीं, “जब वक़्त आएगा।”

    मैं तो ये बात भूल भी चुका था मगर आपा को याद थी। उनके इन्तिक़ाल से कुछ दिन पहले मुझे एक पैकेट मिला। खोला तो उसमें आपा का ज़ाती नुस्ख़ा रखा हुआ था जिस पर लिखा था, “जावेद सिद्दीकी, ये दीवान-ए-ग़ालिब है। सिर्फ़ तुम्हारे लिए है बल्कि फ़रीदा के लिए भी है। और हाँ तुम्हारी औलाद के लिए। और तुम्हारी औलाद की औलाद के लिए, तमाम प्यार और ख़ुलूस के साथ... सुल्ताना...”

    1-8-2003

    आपा ने अपना वादा पूरा कर दिया था।

    आपा बहुत बहादुर थीं, वो ज़िन्दगी से हारीं इन्सानों से। बस एक दफ़्अ’ मैंने आपा की आँखों में नमी देखी थी। ये मार्च 2000 की बात है। मैं उनसे मिलने गया और मैंने कहा, “मैं इप्टा के लिए एक डॉक्यूमेंट्री बना रहा हूँ जिसके लिए जाफ़री साहब का इंटरव्यू बहुत ज़रूरी है। क्योंकि वो इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (IPTA) के बानियों में से एक है।” आपा कहने लगीं, “सरदार की तबीअ’त ठीक नहीं है। पता नही क्या हो गया है, भूलने बहुत लगे हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बोलते वक़्त अल्फ़ाज़ भूल जाते हैं और फिर परेशान होकर बोलना ही बंद कर देते हैं...” कहते-कहते उन्होंने अपना चेहरा घुमाया, मगर मैं उनकी बड़ी बड़ी आँखों में पानी की लकीर देख चुका था।

    जाफ़री साहब की बीमारी बढ़ती गई, यहाँ तक कि वो कोमा में चले गए। मैं उन्हें देखने के लिए बॉम्बे हॉस्पिटल पहुँचा। वो शख़्स जिसकी ज़बान-ओ-बयान की धाक सारी उर्दू दुनिया में बैठी हुई थी, बे-हिस-ओ-हरकत ख़ामोश लेटा हुआ था। उनके बराबर एक कुर्सी पर आपा बैठी हुई उन्हें देखे जा रही थीं। कमरे में मुकम्मल ख़ामोशी थी, आपा ने मुझे देखा और धीरे से सिर हिला दिया।

    मैं बहुत देर तक कमरे के सन्नाटे को सुनता रहा, फिर इशारे से सलाम किया और बाहर निकल गया। आपा भी बाहर गईं।

    “बस यही हालत है। डॉक्टर कहते हैं कभी भी होश सकता है, पता नहीं...”

    मैं क्या कहता, कहने को था भी क्या। मुझे लफ़्ज़ी हमदर्दी हमेशा से बे-मा’नी मा’लूम होती है। फिर भी मैंने पूछा, “आपा, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो...” आपा बहुत थकी हुई लग रही थीं, शायद कई दिन से सोई नहीं थीं। वो बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं, फिर बोलीं, “सरदार ने दीवान-ए-मीर का नया एडिशन छपवाया है। पब्लिशर ने उसे बेचने का कोई इन्तिज़ाम अभी तक नहीं किया है। सैकड़ों जिल्दें घर में आके पड़ी हुई हैं। अगर तुम कुछ निकलवा सको तो...” वो चुप हो गईं।

    मैं समझ गया कि आपा माली तौर पर बहुत परेशान हैं। इस अस्पताल का ख़र्चा ही जाने कितना होगा। और आपा किसी के सामने हाथ फैलाएँ ये तो हो ही नहीं सकता। मैंने उन्हें यक़ीन दिलाया कि मैं दीवान-ए-मीर की कापियाँ उठा लूँगा और जितनी जल्दी हो सकेगा, बेचने की कोशिश करुँगा। आपा ने फिर सिर हिलाया जैसे कह रही हों, “शुक्‍रिया...” जाने के लिए पलटा तो उन्होंने पीछे-पीछे से आवाज़ दी, “जावेद...” मैं रुक गया। “जी आपा?” उन्होंने पूछा, “तुम दुआ’ माँगते हो?” और मेरा जवाब सुनने से पहले धीरे से बोलीं, “सरदार के लिए दुआ’ करना।” कहते-कहते मुड़ीं और कमरे के अन्दर चली गईं। मगर किसी दवा, किसी दुआ से कुछ नहीं हुआ। सरदार जाफ़री जिस ख़ामोश वीराने में चले गए थे, एक अगस्त 2000 को उसी में कहीं खो गए।

    उन्हें सीता महल लाया गया और आखिरी सफ़र की तैयारी शुरू’ हुई। सरदार जाफ़री तो ख़ैर किसी मज़हब को नहीं मानते थे मगर बलरामपुर के एक मुअ’ज़्ज़िज़ शिया घराने में पैदा हुए थे, इसलिए एक शिया क़ब्‍रिस्तान रहमताबाद में तदफ़ीन का बन्द-ओ-बस्त किया गया। और तब अचानक सुल्ताना आपा की आवाज़ सुनाई दी, “सरदार को सान्ता क्रूज़ क़ब्‍रिस्तान में दफ़्न किया जाएगा।” वो शिया मौलाना जो इन्तिज़ामात में पेश-पेश थे, उछल पड़े, “सांता क्रूज़ क़ब्‍रिस्तान?... मगर वो तो सुन्नियों का है।”

    “तो क्या हुआ? सरदार के सारे दोस्त वही हैं। ज़िन्दगी भर जिन का साथ रहा, मौत के बा’द उन्हें अलग कैसे किया जा सकता है?”

    और वही हुआ। तमाम ए’तिराज़ात और मुख़ालिफ़त के बावजूद सरदार जाफ़री को सांता क्रूज के सुन्नी कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया।

    उस वक़्त ये बात मेरी समझ में नहीं आई थी मगर आज जब सोचता हूँ तो ऐसा लगता है कि आपा सरदार जाफऱी की मौत के बारे में नहीं, उनकी अबदी तन्हाई के बारे में सोच रही थीं। अगर जाफ़री साहब शिया होने के नाते रहमताबाद चले जाते और आपा सुन्नी होने की वज्ह से सांता क्रूज़ पहुँचती तो दोनों के दर्मियान एक ऐसी दूरी बन जाती जो कभी ख़त्म होती। और वो सरदार और सुल्ताना जो चार दिन भी एक दूसरे से अलग नहीं रहे, हमेशा-हमेशा अलग रहें ये कैसे मुम्किन था!

    सरदार साहब की मौत के बा’द मैं आपा से कई दफ़्अ’ मिला, मगर हमेशा यही एहसास हुआ कि उनके अन्दर कुछ बुझ गया है। आँखों की वो चमक जो शम्एँ’ रौशन कर दिया करती थी, धुआँ बन चुकी है। चेहरे से फूटने वाली मुस्कुराहट ग़ायब हो चुकी है। बाल रुखे और बे-जान हो चुके थे, और वज़्न जो पहले ही से कम था और भी कम हो गया था। सफ़ेद साड़ी में लिपटा हुआ उनका सरापा कशिश खो चुका था। वो अपनी ही कोई पुरानी धुँधली सी तस्वीर मा’लूम होती थीं।

    अपने सरदार से अलग होकर वो चार साल भी नहीं रह सकीं और 16 जुलाई 2004 को वहीं पहुँच गई जहाँ सरदार जाफ़री अपने दोस्तों साहिर, मजरूह, जाँ-निसार अख़्तर, अख़्तर-उल-ईमान, ख़्वाजा अहमद अब्बास और राही मा’सूम रज़ा वग़ैरा के हुजूम में घिरे बैठे थे। उन्होंने जैसे ही सुल्ताना को देखा, कहा, “लीजिए हज़रात, वो भी गईं जिन के बग़ैर ये महफ़िल-ए-याराँ अधूरी थी। आओ भई सुल्ताना!...”

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