दौर-ए-गर्दूं से हुई कुछ और मयख़ाने की तरह
दौर-ए-गर्दूं से हुई कुछ और मयख़ाने की तरह
भर न आवें क्यूँके आँखें मेरी पैमाने की तरह
आ निकलता है कभू हँसता तो है बाग़-ओ-बहार
उस की आमद में है सारी फ़स्ल गुल आने की तरह
चश्मक-ए-अंजुम में इतनी दिलकशी आगे न थी
सीख ली तारों ने उस की आँख झमकाने की तरह
हम गिरफ़्तारों से वहशत ही करे है वो ग़ज़ाल
कोई तो बतलाओ उस के दाम में लाने की तरह
एक दिन देखा जो उन ने बेद को तो कह उठा
इस शजर में कितनी है उस मेरे दीवाने की तरह
आज कुछ शहर-ए-वफ़ा की क्या ख़राबी है नई
इश्क़ ने मुद्दत से याँ डाली है वीराने की तरह
पेच सा कुछ है कि ज़ुल्फ़-ओ-ख़त से ऐसा है बनाओ
है दिल-ए-सद-चाक में भी वर्ना सब शाने की तरह
किस तरह जी से गुज़र जाते हैं आँखें मूँद कर
दीदनी है दर्द-मंदों के भी मर जाने की तरह
है अगर ज़ौक़-ए-विसाल उस का तो जी खो बैठिए
ढूँड कर इक काढ़िए अब उस के भी पाने की तरह
यूँ भी सर चढ़ता है ऐ नासेह कोई मुझ से कि हाए
ऐसे दीवाने को समझाते हैं समझाने की तरह
जान का सर्फ़ा नहीं है कुछ तुझे कुढ़ने में 'मीर'
ग़म कोई खाता है मेरी जान ग़म खाने की तरह
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0794
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