हिज्र में रोता हूँ हर शब मैं तो इस सूरत से याँ
हिज्र में रोता हूँ हर शब मैं तो इस सूरत से याँ
वे अँधेरी मींह बरसे जूँ कभू शिद्दत से याँ
किस क़दर बेगाना-ख़ू हैं मर्दुमान-ए-शहर-ए-हुस्न
बात करना रस्म-ओ-आदत ही नहीं उल्फ़त से याँ
उठ गए हैं जब से हम सूना पड़ा है बाग़ सब
शोर हंगाम-ए-सहर का मुहर है मुद्दत से याँ
सर कोई फोड़े मोहब्बत में तो बारे इस तरह
मर गया है इश्क़ में फ़रहाद जिस क़ुदरत से याँ
दिलकशी इस बज़्म की ज़ाहिर है तुम देखो तो हो
लोग जी देते चले जाते हैं किस हसरत से याँ
सूरतों से ख़ाक-दाँ ये आलम-ए-तस्वीर है
बोलें क्या अहल-ए-नज़र ख़ामोश हैं हैरत से याँ
फ़हम हर्फ़ों के तनाफ़ुर का भी यारों को नहीं
उस पे रखते हैं तनफ़्फ़ुर सब मिरी सोहबत से याँ
पंज-रोज़ा उम्र करिए आशिक़ी या ज़ाहिदी
काम कुछ चलता नहीं इस थोड़ी सी मोहलत से याँ
क्या सर-ए-जंग-ओ-जदल हो बे-दिमाग़-ए-इश्क़ को
सुल्ह की है 'मीर' ने हफ़्ताद-ओ-दो-मिल्लत से याँ
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 4, ग़ज़ल नंo- 1459
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