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बे-रोज़गार

सिराज फ़ैसल ख़ान

बे-रोज़गार

सिराज फ़ैसल ख़ान

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    तो

    और इक बार

    फिर

    मेरा

    सेलेक्शन

    हो नहीं पाया

    मेरी

    हर एक

    नाकामी पे

    रस्सी मुस्कुराती है

    ख़ुशी से

    ऐंठती है

    और

    नए बल पड़ते जाते हैं

    मुझे अपना गला घुटता हुआ महसूस होता है

    मैं

    अपनी

    छत से

    जब

    नीचे गली में

    झाँकता हूँ

    तो

    ये लगता है

    सड़क मुझ को

    उछल कर

    खींच ले जाएगी

    अपने संग

    डरा देता है ये एहसास

    और

    मुझ को पसीने से लहू की गंध आती है

    अगर

    मैं दूर से भी

    रेल की

    आवाज़ सुनता हूँ

    तो

    कोई

    अजनबी

    हैबत मुझे झकझोर देती है

    अज़िय्यत

    ख़ून के

    कतरों में

    यूँ करवट बदलती है

    कि मैं टुकड़ों में बटते रूह को महसूस करता हूँ

    मेरे कमरे का

    सीलिंग-फ़ैन

    हँसता है

    मेरी जानिब

    लपकता है

    मैं डर से

    काँप जाता हूँ

    सिमट कर

    बैठ जाता हूँ

    किसी कोने में कमरे के

    यूँ लगता है

    कई सदियों का लम्बा फ़ासला तय कर के मैं ने सुब्ह पाई है

    मगर

    मैं सोचता हूँ

    कब तलक आख़िर

    मैं

    अपने आप को

    ख़ुद से बचाउंगा

    महज़

    इक और नाकामी

    मैं अब के टूट जाऊँगा

    बदन से छूट जाऊँगा

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