इल्म
सर-ए-साहिल खड़ा हूँ फ़िक्र में गुम हूँ
समुंदर कितना गहरा है
निगाह-ए-जुस्तुजू ज़ेहन-ए-रसा मजबूर और आजिज़
लब-ए-तहक़ीक़ भी गुम-सुम
निगाह-ए-वुसअ'त-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हर्फ़-ए-बसीरत का अहाता कर नहीं पाती
शुऊ'र-ओ-फ़हम के साए झुलस जाते हैं राहों में
तजस्सुस जिस क़दर गहरा उतरता है
वजूद-ए-तिश्नगी कुछ और गहरा होता जाता है
अज़ल से नुक़्ता-ए-अव्वल हमारे कर्ब का शायद
शनावर तो कई आए
छुआ हर एक क़तरे को
मगर कोई सदाक़त बन के गहराई से कब उभरा
ये इक मौज-ए-परेशाँ है कि अंधी प्यास रौशन है
बिखरता दर्द टूटी उम्र का हर आख़िरी लम्हा
इसी ग़म में गुज़रता है
कि कितनी कट चुकी है कितनी बाक़ी है
ब-ईं काविश
अभी तक झाग है दस्त-ए-तजस्सुस में
सदफ़ तो तह में मिलते हैं
मगर ये तह कहाँ पर है
सर-ए-साहिल खड़ा हूँ फ़िक्र में गुम हूँ
स्रोत:
Iztarab Lafzon Ka (Pg. 42)
- लेखक: नसीर प्रवाज़
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- प्रकाशक: नसीर प्रवाज़
- प्रकाशन वर्ष: 2016
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