रुस्वाई
टीका लगाऊँ माँग भी संदल से भर चुकूँ
दुल्हन बनूँ तो चाहिए जोड़ा सुहाग का
मेहंदी रचेगी पोरों कहीं जा के दैर में
कंघी करूँ तो चढ़ती है कालों की और लहर
अफ़्शाँ है बख़्त भी कि रहा उन के फेर में
कहती है साँझ भोर के अब घाट उतर चुकूँ
तुम बैठो मैं तो आई पे जी से गुज़र चुकूँ
इतने दिनों तो दिल की लगी ने ख़ुदाई की
पायल बजे तो बंसी की धुन नाच नाच उठे
बद-नामियाँ करिश्मे मिरे देवता के हैं
दीदे घुमा घुमा के कहीं क्यूँ न गोपियाँ
उन के चलन तो बिगड़े हुए इब्तिदा के हैं
बिपता न होगी कल से लगाई बुझाई की
दहके शफ़क़ तू दहके चिता जग हँसाई की
2
चीख़ें सुन सुन के सभी नींद के माते जागे
सामने दहकी हुई आग का पैकर देखा
चल के दो-चार क़दम फिर से पलट कर जौलाँ
चीख़ें शो'लों के दहकने पे लपक उठती थीं
दूद के हल्क़े रवाँ होए फ़लक चर्ख़ ज़नाँ
सब ये समझे कि कोई ग़ूल-ए-बयाबानी है
यूँही लूका जो लगाने को निकल आया यहाँ
बाद-पा आग थी या लाल रसीली साड़ी
छाया कालों की थी शो'लों की ज़बानों का धुआँ
यक-ब-यक कुंदनी बाहें भी उठीं चीख़ के साथ
काँपते आए नज़र फूल से मेहंदी भरे हाथ
एक ने बढ़ के वहीं आग पे डाला पानी
आग यूँ पानी की शह पाए तो दोज़ख़ न बने
जीते-जी अश्कों से क्या दिल की लगी बुझती थी
आग पानी में लड़ाई जो चिता पर भी ठने
ख़ाक डाली तो हुईं फिर कहीं मद्धम आँचें
बख़्त रुस्वा हो तो रुस्वाई बिना कैसे मने
पूछो जलने की तो जाने वही जिस तन लागे
चीख़ें सुन सुन के
- पुस्तक : Muntakhab Shahkar Nazmon Ka Album) (पृष्ठ 88)
- रचनाकार : Munavvar Jameel
- प्रकाशन : Haji Haneef Printer Lahore (2000)
- संस्करण : 2000
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