सुब्ह का तराना
ख़बर दिन के आने की मैं ला रही हूँ
उजाला ज़माने में फैला रही हूँ
बहार अपनी मशरिक़ से दिखला रही हूँ
पुकारे गले साफ़ चिल्ला रही हूँ
उठो सोने वालो कि मैं आ रही हूँ
अज़ाँ पर अज़ाँ मुर्ग़ देने लगा है
ख़ुशी से हर इक जानवर बोलता है
दरख़्तों के ऊपर अजब चहचहा है
सुहाना है वक़्त और ठंडी हवा है
उठो सोने वालो कि मैं आ रही हूँ
ये चिड़ियाँ जो पेड़ों पे हैं गुल मचातीं
इधर से उधर उड़ के हैं आती जातीं
दुमों को हिलातीं परों को फुलातीं
मिरी आमद आमद के हैं गीत गातीं
उठो सोने वालो कि मैं आ रही हूँ
हुई मुझ से रौनक़ पहाड़ और बन में
हर इक मुल्क में देस में और वतन में
खिलाती हुई फूल आई चमन में
बुझाती चली शम्अ' को अंजुमन में
उठो सोने वालो कि मैं आ रही हूँ
लो हुश्यार हो जाओ और आँखें खोलो
न लो करवटें और न बिस्तर टटोलो
ख़ुदा को करो याद और मुँह से बोलो
बस अब ख़ैर से उठ के मुँह हाथ धो लो
उठो सोने वालो कि मैं आ रही हूँ
स्रोत:
Urdu Ki Nai Kitab (Pg. 32)
- लेखक: अतीक़ अहमद सिद्दीक़ी, अतहर प्रवेज़, शहरयार, सुरैया हुसैन
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- प्रकाशक: नेशनल कौंसिल ऑफ़ एजुकेशनल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग, नई दिल्ली
- प्रकाशन वर्ष: 1986
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